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नहीं,मोदी-शाह ने CAA से गांधी का विजन पूरा नहीं किया 

गांधी ने स्पष्ट रूप से कहा था कि भारत को राष्ट्रवादी मुसलमानों का भी स्वागत करना चाहिए जो पाकिस्तान छोड़ना चाहते हैं

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इससे पहले कि जन नेता अपने झूठ को वास्तविकता का जामा पहनाने की ताकत हासिल करें, उनका प्रोपगंडा यह बता देता है कि वे तथ्यों की अवमानना कर रहे हैं. उनकी राय में तथ्य उस व्यक्ति की ताकत पर निर्भर करते हैं, जो इसमें छेड़छाड़ कर सकते हैं. – हन्ना अरेंड्ट, सर्वसत्तावाद के उद्भव में

हन्ना अरेंड्ट पिछली सदी की प्रमुख राजनीतिक दर्शनशास्त्री थीं. वह एक यहूदी थीं जो हिटलर के जर्मनी से बमुश्किल भागकर अमेरिका में जा बसी थीं. उन्होंने 1951 में “द ऑरिजिन्स ऑफ टोटलिटैरिज्म” नामक किताब लिखी और दुनिया को बताया कि किस तरह नाजीवाद और स्टालिनवाद ने तथ्यों को तोड़ामरोड़ा और फिर भी लोगों को इस बात का विश्वास दिलाने में कामयाब रहे कि वही सत्य है.

हिटलर के जर्मनी या स्टालिन के रूस के आसपास भारत कहीं नहीं ठहरता है.

फिर भी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह में अधियानकवादी प्रवृत्ति को कोई भी पहचान सकता है जो ‘अपने तथ्यों के साथ वास्तविकता को जोड़ने’ की कोशिशों में जुटे हैं.

देखें कि किस तरह वे मूल रूप से मुस्लिम विरोधी और एक असंवैधानिक कानून सिटिजनशिप अमेंडमेंट एक्ट (सीएए) की मार्केटिंग कर रहे हैं. हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक महात्मा गांधी की इच्छा और उनके विज़न को पूरा करने की इच्छा के साथ वे इस कोशिश में जुटे हैं. इसका आधार और इसके तहत बाद में जुड़ने वाली प्रशासनिक प्रक्रियाएं महात्मा गांधी के उपदेश, आचरण और जीवन पर पानी फेरते हैं, जैसे नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स (एनआरसी), जो डिटेंशन सेंटर के लिए मजबूर करता है.

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स्नैपशॉट
  • विभाजन के वक्त गांधी ने जो इच्छा जतायी थी उसके शब्द और संदर्भ दोनों मोदी और शाह ने तोड़-मरोड़ दिए हैं.
  • गांधीजी के भाषण के उद्धृत अंश में ‘नागरिकता’ और ‘वोट देने का अधिकार’ कहीं नहीं है.
  • गांधी ने स्पष्ट रूप से कहा था कि भारत को ‘राष्ट्रवादी मुसलमानों’ का भी स्वागत करना चाहिए जो पाकिस्तान छोड़ना चाहते हैं. उन्होंने उनके भारतीय होने पर जोर दिया था. गैर मुस्लिम शरणार्थियों ‘जैसी हैसियत’ उनकी भी होनी चाहिए.
  • बड़ा ऐतिहासिक संदर्भ यह है कि क्या शाह और मोदी दोनों दमन नहीं कर रहे हैं? मुस्लिम लीग के जहरीले ‘द्वि राष्ट्र’ सिद्धांत के आधार पर भारत के विभाजन की इसी कोशिश का गांधी ने विरोध किया था.
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क्या गांधी चाहते थे कि केवल पाकिस्तान के गैर मुस्लिमों का स्वागत हो?

12 जनवरी को कोलकाता के रामकृष्ण मिशन में अपने विवादास्पद भाषण में मोदी ने दावा किया कि महात्मा केवल धार्मिक रूप से उत्पीड़ित गैर मुसलमानों को भारत की नागरिकता देना चाहते थे, “हमने केवल वही काम किया है जो महात्मा गांधी ने दशकों पहले कहा था.” लेकिन वास्तव में गांधी ने कहा क्या था? हमने पहली बार इसे अमित शाह से सुना, जिन्होंने सिटिजनशिप अमेंडमेंट बिल (सीएबी) पर हुई बहस का जवाब देते हुए राज्य सभा में गांधीजी को उद्धृत किया कि उन्होंने 26 सितम्बर 1947 को प्रार्थना सभा की बैठक में कहा, “पाकिस्तान में रह रहे हिन्दू और सिख अगर वहां नहीं रहना चाहते हैं तो वे निस्संदेह भारत आ सकते हैं. इस मामले में भारत सरकार का प्राथमिक कर्त्तव्य होगा कि वह उन्हें रोजगार, वोट का अधिकार और सम्मानपूर्ण ज़िन्दगी व खुशियां उपलब्ध कराए.”

बिहार में एक रैली में 16 जनवरी को उसी प्रार्थना सभा की बैठक का गलत तरीके से जिक्र करते हुए शाह ने महात्मा के मुंह में ‘नागरिकता’ तक ठूंस दी.

विभाजन के समय गांधीजी ने जो इच्छा जतायी थी उसके शब्द और संदर्भ दोनों को मोदी और शाह ने विकृत कर दिया है. सबसे पहले तथ्यात्मक रूप से गलत कहा. गांधीजी के भाषण से वास्तव में कोई उद्धरण ऐसा नहीं है जिसमें ‘नागरिकता’ और ‘वोट के अधिकार’ जैसे शब्दों का जिक्र हुआ हो. इसका ऑनलाइन सत्यापन महात्मा गांधी’ज कलेक्टेड वर्क्स के वॉल्यूम 96 से किया जा सकता है. यह राजनीतिक जरूरतों के लिए शरारतपूर्ण छेड़छाड़ है.

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गांधी के शब्दों को गलत साबित करना

लेकिन क्या राष्ट्रपिता चाहते थे कि पाकिस्तान से केवल गैर मुस्लिमों का भारत में स्वागत हो? मोदी और शाह का यह दावा 10 जुलाई की प्रार्थना में दिए गये उनके भाषण से ध्वस्त हो जाता है. उन्होंने साफ-साफ कहा कि भारत को पाकिस्तान में नहीं रहने की इच्छा रखने वाले ‘राष्ट्रवादी मुसलमानों’ का भी स्वागत करना चाहिए. उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि ‘भारतीय के रूप में’ बाकी गैर मुस्लिम शरणार्थियों जैसी ‘समान हैसियत’ उनकी भी होनी चाहिए. उन्होंने इस बिन्दु को 12 जुलाई को विस्तार से बताया, “कई मुसलमान इन दिनों मुझसे मिलने आते हैं. वे भी पाकिस्तान को लेकर हताश हैं. कोई ईसाई, पारसी और दूसरे गैर मुसलमानों की भावनाओं को लेकर असहज हो सकता है लेकिन मुसलमानों को लेकर क्यों? वे कहते हैं कि उनके साथ गद्दार जैसा व्यवहार किया जाता है. उन्हें लगता है कि उनके साथ पाकिस्तान में रहने वाले हिन्दुओं से भी बुरा बर्ताव होगा. जब पाकिस्तान को पूरी शक्ति हस्तांतरित हो जाएगी तो कांग्रेस के साथ उनके संबंध को शरीयत के हिसाब से अपराध माना जाएगा.”

शाह का गलत संदर्भ और भी अधिक अहंकारी और आकर्षक है.

लोकसभा में सीएबी पर अपने भाषण में उन्होंने यह आधारहीन दावा किया कि ‘धार्मिक आधार पर भारत के विभाजन के लिए कांग्रेस जिम्मेदार थी’. उन्होंने आगे कहा कि अगर कांग्रेस पार्टी ने यह पाप नहीं किया होता तो नया नागरिकता कानून लाने की जरूरत बिल्कुल नहीं पड़ती. चूकि तब खुद महात्मा गांधी ही सबसे बड़े कांग्रेस नेता थे, इसलिए शाह उसी व्यक्ति पर आरोप लगा रहे थे जिनके समर्थन की जरूरत उन्हें सीएबी को सही ठहराने के लिए थी.

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गांधी के बारे में शाह और मोदी क्या दबा रहे हैं?

चलिए इस मुश्किल भरे विवाद को एक ओर रख देते हैं और पूछते हैं : वह बड़ा ऐतिहासिक संदर्भ क्या है जिसे दोनों शाह और मोदी दबा रहे हैं? यह वह गांधीजी ही थे जिन्होंने मुस्लिम लीग के जहरीले ‘द्वि राष्ट्र सिद्धांत’ के आधार पर भारत के विभाजन का पुरजोर विरोध किया था. लेकिन जब यह अगस्त 1947 में हुआ, तो उन्होंने सांप्रदायिक नरसंहार को रोकने के लिए एक नायक की तरह कोशिशें कीं. इन दंगों में करीब 5 लाख हिन्दू, सिख और मुसलमान मारे गये थे. इन्हीं हत्याओं की वजह से मानव इतिहास का सबसे बड़ा उत्प्रवासन (माइग्रेशन) हुआ. शरणार्थियों की संख्या बढ़कर 1.5 करोड़ पहुंच गयी. मारे गये और विस्थापित हुए हिन्दुओँ और सिखों (मूल रूप से पश्चिम पाकिस्तान के इलाकों में) की संख्या कमोबेश मुसलमानों के बराबर थी. (मुख्य रूप से पूर्वी पंजाब में, जो अब भारत में है) दोनों ओर से संपत्तियां लूट ली गयीं, उपासना स्थलों पर हमले हुए और महिलाओं के साथ बलात्कार किए गये. (बंगाल के हिस्से में कम हिंसा हुई)

इस अकथनीय त्रासदी का सामना करते हुए गांधीजी ने अपने सम्पूर्ण नैतिक बल का इस्तेमाल करते हुए हिन्दुओं, सिखों और मुसलमानों एवं उनसे जुड़े रक्तरंजित सीमा के दोनों ओर के नेताओं को चार निर्देशों को आवश्यक रूप से पालन करने का आदेश दिया.

पहला, लोग अपने पैतृक गांव और शहरों में रहें और अपने पड़ोसियों की सुरक्षा सुनिश्चित करें. दूसरा, दोनों नयी सरकारों को सांप्रदायिक हिंसा और शरणार्थियों की खेपों को रोकने के लिए सभी सम्भव उपाय करने चाहिए. तीसरा, जिन लोगों ने स्वेच्छा से देश छोड़ा है उनके लिए सम्मानजनक पुनर्वास को सुनिश्चित किया जाना चाहिए. चौथा और हमारी चर्चा में सबसे प्रासंगिक : दोनों देशों की सरकारों और समुदायों को तेजी से ऐसा माहौल तैयार करना चाहिए जिससे शरणार्थी अपने पैतृक स्थानों तक आसानी से लौट सकें. 26 सितम्बर 1947 के अपने भाषण में जिसमें शाह ने गलत तरीके से गांधीजी को उद्धृत किया, कहा- “हम परस्पर मित्रतापूर्वक एक समझौते पर पहुंचें. हम क्या ऐसा नहीं कर सकते? हम हिन्दू और मुसलमान कल तक मित्र थे. क्या हम आज ऐसे दुश्मन हो गये हैं कि एक-दूसरे पर भरोसा न कर सकें?”

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दोनों ओर की सांप्रदायिक ताकतों को जिम्मेदार ठहराने में निष्पक्ष थे गांधी

प्रार्थना की शक्ति में विश्वास रखने वाले उत्साही व्यक्ति थे महात्मा. दिल्ली के बिड़ला हाऊस में अपने तमाम सर्वधर्म प्रार्थना सभाओं में अद्वितीय रहे गांधी ने सांप्रदायिक हिंसा के पागलपन को रोकने के लिए अपने आध्यात्मिक प्रतिरोध सामने रखा. उन्होंने दुख जताते हुए कहा, “इसमें कोई शक नहीं कि दिक्कत पश्चिम पाकिस्तान से शुरू हुई, लेकिन भारतीय संघ के कुछ हिस्सों ने प्रतिशोध का सहारा लिया है.” उन्होंने कहा, “या तो डोमिनियन सही से बर्ताव करे और दोनों पक्ष उसका पालन करे. तभी दोनों बचे रहेंगे.” 15 सितम्बर को उन्होंने कहा, “मेरे लिए लाखों हिन्दुओं, सिखों और मुसलमानों का हस्तांतरण कल्पना से परे है. यह गलत है. पाकिस्तान की गलती का जवाब है आबादी के हस्तांतरण को रोकने जैसा सही कदम.”

दोनों ओर की सांप्रदायिक ताकतों को जिम्मेदार ठहराने में वे निष्पक्ष थे.

राष्ट्रीय राजधानी में जब मुसलमान परिवारों पर हमले शुरू हुए, अपने अखबार हरिजन (28 सितंबर 1947) में अपने बयान में उन्होंने कहा : “पाकिस्तान सरकार से न्याय की मांग को मुश्किल बना देंगे दिल्ली के लोग. जो लोग न्याय मांगते हैं उन्हें खुद भी न्याय करना होगा, उनके हाथ साफ होने चाहिए. हिन्दुओं और सिखों को सही कदम उठाने दें और अपने घर से बेघर कर दिए गये मुसलमानों को आमंत्रित करने दें. अगर वे लोग यह साहस भरा कदम उठाते हैं तो यह हर नजरिए से बुद्धिमत्तापूर्ण होगा. शरणार्थी की समस्या को वे तत्काल सीमित कर देंगे. उन्हें पाकिस्तान ही नहीं, पूरी दुनिया से मान्यता मिली. वे दिल्ली और भारत को अपमान और बर्बादी से बचाएंगे.”

8 सितम्बर की प्रार्थना सभा में महात्मा गांधी ने कहा, “मैं तब तक शांति से नहीं बैठ सकता जब तक कि भारत और पाकिस्तान का हर मुसलमान, हिन्दू और सिख का अपने-अपने घरों में पुनर्वास नहीं हो जाता.” वे आगे कहते हैं, “भारत की सबसे बड़ी मस्जिद जामा मस्जिद का या फिर ननकाना साहेब या पुंजा साहेब का क्या होगा अगर दिल्ली या भारत में कोई मुस्लिम नहीं रह सकता और पाकिस्तान में कोई सिख नहीं रह सकता? क्या इन पवित्र स्थानों को किसी और मकसद के लिए बदला जा सकता है? कभी नहीं.”

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भारत और पाकिस्तान दोनों मेरे देश हैं : गांधी

इस मूल आधार से आगे बढ़ें कि हिन्दुओं और सिखों का पाकिस्तान के नागरिक के तौर पर समान रूप से कानूनी दावा है जैसा कि भारत में मुसलमानों का रहा है. वे 23 सितम्बर की प्रार्थना सभा की बैठक में निम्न सवाल रखते हैं : “आज जो रावलपिंडी है उसे हिन्दुओं और सिखों ने बनाया. वे सभी वहां से बाहर जा चुके हैं. आज वे बिना आश्रय के शरणार्थी हैं. यह मुझे व्यथित करता है. आधुनिक लाहौर का निर्माण किसने किया, क्या यह हिन्दुओं और सिखों का नहीं है? उन्हें अपनी ही जमीन से निर्वासित होना पड़ा. इसी तरीके से दिल्ली बनाने में मुसलमानों का कोई लेना-देना नहीं है. इस तरह सभी समुदायों ने मिलकर काम किया है उस भारत के लिए, जो बीते 15 अगस्त तक था.”

उन्होंने लगातार दोनों देशों को चेताया- इस्लाम और हिन्दूवादियों को भी- कि अगर पाकिस्तान ‘एक विशुद्ध मुस्लिम देश’ बन जाता है और भारत ‘एक विशुद्ध हिन्दू और सिख देश’, जहां दूसरे देश के अल्पसंख्यकों के अधिकार न हों तो ऐसा करके वास्तव में दोनों देश अपने आपको बर्बाद कर लेंगे.

2 जुलाई को उन्होंने शांति मिशन पर पश्चिमी सीमा पार करने के अपने संकल्प की घोषणा की. ऐसी ही मिशन पर वे पहले पूर्व में नोआखाली जा चुके थे, जो अब बांग्लादेश में है. अविश्वसनीय दुस्साहस दिखाते हुए उन्होंने कहा, “भारत और पाकिस्तान दोनों मेरे देश हैं. कोई मुझे नहीं रोक सकता. यहां तक कि श्री जिन्ना भी मुझे नहीं रोक सकते. मैं विदेशी नहीं बना हूं. पाकिस्तान जाने के लिए मैं कोई पासपोर्ट लेने नहीं जा रहा हूं.” पाकिस्तान को ‘मेरा देश’ कहने के लिए उन्हें आज की तारीख में मोदी-शाह के समर्थकों द्वारा देशद्रोही करार दिया जाता.

हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दिलों को जोड़ने वाले के तौर पर काम करना

अपनी हत्या से चार दिन पहले 26 जनवरी की प्रार्थना सभा की बैठक में उन्होंने इसी विचार को व्यक्त किया : “हालांकि भौगोलिक और राजनीतिक रूप से भारत दो हिस्सों में बंट गया है, दिल से हम हमेशा मित्र और भाई रहेंगे. एक-दूसरे की मदद और सम्मान करते रहेंगे और दुनिया के लिए एक बने रहेंगे.” एक दिन बाद एक बार फिर न्यू स्टेट्समैन, लंदन के संपादक किंग्स्ले मार्टिन के साथ साक्षात्कार में गांधीजी ने कहा कि वे हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच न सिर्फ भारत में, बल्कि पाकिस्तान में भी ‘हर्ट यूनियन’ यानी दिलों को जोड़ने वाला सेतु बने रहेंगे.

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क्या यह सब सीएए के भेदभावपूर्ण और बहिष्कार के इरादों के अनुरूप है?

अगर मोदी, शाह और उनके समर्थक अब भी ऐसा सोचते हैं तो उन्हें 13 जनवरी 1948 की प्रार्थना सभा में महात्मा गांधी ने क्या कहा था, उस पर गौर करना चाहिए. कई बार उपवास कर चुके गांधीजी के जीवन में यह अंतिम उपवास का दूसरा दिन था. उन्होंने यह उपवास दिल्ली में मुसलमानों पर बड़े पैमाने पर हुई हिंसा की घटनाओं पर अपना गुस्सा जताने के लिए किया था. “दिल्ली भारत की राजधानी है. यह मूर्खता की पराकाष्ठा है कि इसे हिन्दुओं या सिखों का माना जाए... जो कोई भी कन्याकुमारी से कश्मीर तक और कराची से असम के डिब्रूगढ़ तक रहता है और जिन्होंने प्यार और सेवा की भावना से इसे अपनी प्यारी मातृभूमि माना है, वैसे सभी हिन्दू, मुसलमान, सिख, पारसी, ईसाई और यहूदी लोगों के हक समान हैं. कोई यह नहीं कह सकता कि यह जगह केवल बहुसंख्यकों की है और अल्पसंख्यकों का सम्मान नहीं होगा. इसलिए जो कोई भी मुसलमानों को भगाना चाहता है दिल्ली का दुश्मन नम्बर एक है और इसलिए भारत का दुश्मन नम्बर एक है.”

मोदी-शाह अपने दावे को न्यायोचित नहीं ठहरा सकते कि गांधी होते तो सीएए का समर्थन करते

ध्यान दें कि पाकिस्तान बन जाने के बावजूद गांधी अब भी इस बात को जोर देकर स्वीकार रहे थे कि कराची के मुसलमानों का दिल्ली पर ‘समान अधिकार’ है. और हमारी ‘प्रिय मातृभूमि’ से अल्पसंख्यकों को निकाला नहीं जा सकता और न ही उनका अपमान किया जा सकता है. वास्तव में उन्होंने (6 दिन तक चले) अपने उपवास तोड़ने के लिए एक महत्वपूर्ण शर्त यही रखी थी कि पाकिस्तान से अपने घरों को लौटने वाले मुसलमानों को गैर मुस्लिमों के द्वारा नहीं रोका जाना चाहिए.

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इन बातों से दो बातें साफ उभरती हैं

  • मोदी और शाह का यह दावा वास्तव में जायज नहीं है कि महात्मा होते तो सीएए का समर्थन करते. वे नहीं चाहते थे कि नागरिकता के जरिए पाकिस्तान से हिन्दू-सिख शरणार्थियों की आवक को कानूनी, स्थायी और अहस्तांतरणीय बनाया जाए. अगर वह कुछ चाहते थे तो यह कि दो राष्ट्र के तौर पर वैध पहचान के बावजूद सभी धर्मों से जुड़े भारतीय और पाकिस्तानी एक-दूसरे से घुलें-मिलें और सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान के साथ साझा मूल्यों को विकसित करें.
  • विभाजन के वक्त सीमा के दोनों ओर धार्मिक उत्पीड़न की घटनाएं हुईं. इसी तरह पाकिस्तान, बांग्लादेश और भारत में आज भी अल्पसंख्यकों के साथ खराब व्यवहार हो रहे हैं. हालांकि यह संवैधानिक रूप से धर्मनिरपेक्ष भारत के मुकाबले इस्लामिक पाकिस्तान में अधिक है. हमारी प्रतिक्रिया सीएए नहीं हो सकती जो भारत के हिन्दूकरण की दिशा में धूर्त्ततापूर्ण प्रयास है. इसके बजाए यह तरीका गांधीवादी होगा- अपने घर में हिन्दू-मुस्लिम एकता को मजबूत करें और साथ-साथ अपने पड़ोसियों के साथ भाईचारगी के साथ एक लम्बे काल तक आगे बढ़ें. इस दौरान एक-दूसरे पर सकारात्मक प्रभाव डालें जो भारतीय उपमहाद्वीप में दिलों को जोड़ने वाला साबित हो.

(लेखक भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के करीबी सहयोगी थे. वो Music of the Spinning Wheel: Mahatma Gandhi’s Manifesto for the Internet Age के लेखक हैं. इसके अलावा वो ‘FORUM FOR A NEW SOUTH ASIA – Powered by India-Pakistan-China Cooperation’ के संस्थापक हैं. उन्हें @SudheenKulkarni पर ट्वीट और sudheenkulkarni.gmail.com पर मेल किया जा सकता है. आर्टिकल में लिखे गए विचार उनके निजी विचार हैं और द क्विंट का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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