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हवन करते हाथ जला बैठने वाले मोदी दुनिया के अकेले नेता नहीं

नरेंद्र मोदी के लिए यह सबक है कि भयंकर गलतियों की बड़ी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ती है.

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अच्छे लीडर्स के खराब आइडिया से इतिहास भरा पड़ा है. चाहे आप किसी भी लोकतांत्रिक देश को लें, उसके लीडरों और एलीट तबके ने ऐसी भयंकर गलतियां कीं, जिनसे उनका करियर खत्म हो गया और साख मिट गई. इससे भी बड़ी बात यह है कि इन मामलों ने उन देशों के अपने बारे में सोचने का तरीका भी बदल डाला, जिसका असर आने वाले वर्षों में उनकी पॉलिसी मेकिंग पर पड़ा.

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इलाहाबाद हाईकोर्ट के इंदिरा गांधी के चुनाव को 1971 में रद्द करने के बाद जस्टिस कृष्ण अय्यर ने उन्हें क्यों लोकसभा जाने की इजाजत दी? वैसे इंदिरा को जस्टिस अय्यर ने लोकसभा में वोट का अधिकार नहीं दिया था. वह जहीन जज थे, लेकिन उनके इस फैसले से देश में इमरजेंसी लगाने की राह तैयार हुई. आपातकाल के दौरान सुप्रीम कोर्ट के चार जजों (जिनकी काबिलियत पर किसी को शक नहीं था) ने किस वजह से आरोपी को अदालत में पेश करने के कानून को ही सस्पेंड कर दिया था, जो एक नजीर बन गया.

क्यों आर्मी चीफ जनरल सुंदरजी ने इंदिरा गांधी को यकीन दिलाया कि गोल्डेन टेंपल पर हमला करने का अच्छा आइडिया था? इसके चार महीने बाद ही इंदिरा की हत्या कर दी गई. क्यों राजीव गांधी को बाबरी मस्जिद का ताला खोलना अच्छा आइडिया लगा? इस फैसले की वजह से यूपी से पार्टी का नामोनिशान मिट गया. क्यों नरसिंह राव को झारखंड मुक्ति मोर्चा को रिश्वत देना सही लगा? झारखंड की पार्टी ने चेक से रिश्वत ली और राव पकड़े गए. इस झटके से वह कभी नहीं उबर पाए और 1996 के लोकसभा चुनाव में उनकी हार हुई.

अटल बिहारी वाजपेयी को क्यों लगा कि खुलेआम परमाणु परीक्षण करना अच्छा आइडिया था? इससे 6 साल तक भारत पर अंतरराष्ट्रीय पाबंदी लगी रही, जिसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी. मनमोहन सिंह क्यों मनरेगा के लिए मान गए, जबकि वह निजी तौर पर योजना को पैसे की बर्बादी मानते थे? इससे देश में महंगाई बेलगाम हुई और 2014 के आम चुनाव में उनकी पार्टी की जबरदस्त हार हुई.

दुनिया में ऐसे मामलों की कमी नहीं

सिर्फ भारत के अच्छे लीडर्स ने ही ऐसी गलतियां नहीं की हैं. दुनिया में भी ऐसी कई मिसालें हैं. मैं किसी तानाशाह की बात नहीं कर रहा हूं, जिसके राजकाज में ऐसे मामले होते ही रहते हैं. मेच्योर डेमोक्रेसी में भी नियमित तौर पर ऐसा देखा गया है. जॉन एफ केनेडी को वियतनाम में अमेरिका का युद्ध करना अच्छा आइडिया लगा. इस वॉर में अमेरिका की हार हुई और इससे 1971 में इंटरनेशनल फाइनेंशियल सिस्टम तबाह हो गया. अमेरिका के अच्छे राष्ट्रपतियों में शामिल रिचर्ड निक्सन को डेमोक्रेटिक पार्टी के हेडक्वॉर्टर्स की जासूसी क्यों अच्छा आइडिया लगा? इससे वह शर्मसार हुए और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा.

मार्गरेट थैचर को सभी ब्रिटिश नागरिकों पर एक समान टैक्स लगाने का आइडिया क्यों अच्छा लगा? इसके चलते उनकी अपनी ही पार्टी ने उन्हें पद छोड़ने के लिए कहा. डेविड कैमरन को यूरोपियन यूनियन (ईयू) में बने रहने के लिए रेफरेंडम कराना क्यों अच्छा आइडिया लगा, जिसमें वहां के लोगों ने ईयू से बाहर निकलने का फैसला किया. जब भी इस पर अमल (अगर ऐसा होता है तो) होगा, यह ब्रिटेन के लिए तबाही होगी.

बराक ओबामा को लगा कि अमेरिका का दूसरे देशों के मामलों में टांग नहीं अड़ाना अच्छा आइडिया है, लेकिन इससे चीन को आक्रामक होने का मौका मिल गया. इसी वजह से आखिरकार डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिका के राष्ट्रपति चुने जाने का रास्ता खुला.

पश्चिमी यूरोप और जापान में भी ऐसे मामलों की कमी नहीं है. कहने का मतलब यह है कि कोई भी देश ऐसी भयंकर गलतियों से बचा नहीं है.

नरेंद्र मोदी के लिए यह सबक है कि भयंकर गलतियों की बड़ी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ती है.
व्हाइट हाउस स्थित ओवल ऑफिस में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा (फोटोः AP)
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मोदी के लिए सबक

इसमें नरेंद्र मोदी के लिए यह सबक है कि भयंकर गलतियों की बड़ी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ती है. 86% करेंसी को अचानक अवैध घोषित करने के उनके फैसले के बाद देश की 130 करोड़ जनता के मन में यह सवाल उठ रहा है कि मोदी भाषण देते वक्त जितने समझदार लगते हैं, क्या वह वास्तव में वैसे हैं? नोटबंदी के इतने बुरे आइडिया के लिए वह क्यों मान गए? उन्हें इसकी कितनी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ेगी? अगले दो साल में इस सवाल का जवाब मिल जाएगा.

इस बीच, दबी आवाज में कई बातें कही जा रही हैं. बीजेपी के अंदर से ऐसी आवाजें उठ रही हैं कि मोदी की नीयत में खोट नहीं है, लेकिन उनका अंदाज सही नहीं है.

पार्टी के अंदर से इस तरह की जो आवाजें उठ रही हैं, उनकी डिटेल अलग-अलग है, लेकिन इसका मतलब यह है कि प्रधानमंत्री मसलों का नाटकीय हल चाहते हैं. उनकी दिलचस्पी सोच-समझकर बनाई गई पॉलिसी और उसे लागू करने में नहीं है.

मोदी के पास अपने कामकाज का तरीका बदलने के लिए दो साल का वक्त बचा है. चाहे ब्लैकमनी पर रोक लगाने की बात हो या ज्यादा लोगों को टैक्स के दायरे में लाने की, प्रधानमंत्री की नीयत ठीक है. इसलिए इन पर गलत तरीके से अमल करके लोगों का भरोसा गंवाने का कोई तुक नहीं बनता. अगर बीजेपी को 2019 में लोकसभा चुनाव में जीत नहीं मिलती, तो देश में फिर गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हो जाएगा. क्या कोई ऐसा चाहता है?

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(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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