नोटबंदी पर राजनीतिक ध्रुवीकरण बढ़ता जा रहा है. संसद में हंगामा. काम ठप. सड़क पर आंदोलन. विपक्ष एक सुर में बोल रहा है. भारत बंद कर दिया है. लोग बेहाल हैं. गरीब मजदूर परेशान. गांव देहात से खबरें और भी बुरी आ रही हैं.
शहरों में मीडिया है, टीवी है तो सरकारी तंत्र एक्टिव है. माहौल को संभालने की कोशिश हो रही है. लेकिन अगर सरकार ने समय रहते कार्यवाही नहीं की तो मीडिया से दूर छोटे कस्बों और सुदूर ग्रामीण इलाकों में स्थित भयावह हो जाएगी. इसके बावजूद मोदी सरकार टस से मस होती नहीं दिख रही है.
नोटबंदी से हो रही परेशानी पर बचाव के लिए तीन तर्क दिए दिए जा रहे हैं - पहला, अभी शुरुआत में तकलीफ हो रही है, लेकिन आगे ठीक होगा. दूसरा, काला धन निकलवाने के लिए कड़े कदम उठाने होंगे. तीसरा, नोटबंदी को देशप्रेम के सापेक्ष कर सीमा पर सैनिकों की कुर्बानी से जोड़ा जा रहा है. यानी कुल मिलाकर आशय ये है कि देश को भ्रष्टाचार से निजात दिलाने के लिये तकलीफ उठानी पड़ेगी.
मोदी के नैतिक आवरण में हैं छेद
मोदी ने अचानक एक नैतिक आवरण ओढ़ लिया है. उनके इस आवरण में छेद भी खूब दिख रहे हैं. आजाद भारत का सबसे मंहगा चुनाव लड़ने वाले जिसका आजतक हिसाब नहीं दिया गया, वही मोदी अब विपक्ष को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं. मानो वो कालेधन के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं और विपक्ष कालेधन के पक्ष में खड़ा है.
इसमें कोई दो राय नहीं कि विपक्ष को पिछले ढाई साल में पहला पुख्ता मुद्दा मिला है, जिस पर वो काफी हद तक प्रधानमंत्री को घेर पा रहे हैं. नीतीश कुमार को छोड़कर सारा विपक्ष एक आवाज में मोदी के खिलाफ खड़ा है. नीतीश अकेले हैं, जो नोटबंदी पर मोदी सरकार का पूरा समर्थन कर रहे हैं. इसको बीजेपी से उनकी नयी दोस्ती का आगाज भी माना जा रहा है और बिहार में उभरते नये समीकरण और नीतीश की दीर्घकालीन महत्वाकांक्षा से भी जोड़कर देखा जा रहा है.
नोटबंदी के मुद्दे पर एकजुट है विपक्ष
नीतीश के इतर मुलायम हों या मायावती, लालू हों या ममता या फिर केजरीवाल, या समूचा लेफ्ट, शरद पवार और दक्षिण की लगभग सभी पार्टियां, सरकार पर सबका निशाना है. यहां तक कि बीजेपी की सरकार में सहयोगी शिवसेना भी खुलकर बोल रही है.
लंबे समय के बाद कांग्रेस की चाल में थिरकन दिख रही है. राहुल काफी सक्रिय हैं. एक दिन में कई-कई बार सड़क पर निकल रह हैं. इनके बीच 28 तारीख को भारत बंद का आह्वान भी किया गया है. बंद की कामयाबी सरकार विरोध का कोई पैमाना नहीं कहा जा सकता है. लेकिन संकेत साफ है.
मरे विपक्ष में फिर से जवानी के लक्षण दिख रहे हैं. देश की राजनीति में एक समय ऐसा भी था जब कांग्रेस का दबदबा था. देश और ज्यादातर राज्यों में कांग्रेस की ही सरकारें होती थी. रजनी कोठारी जैसे विशेषज्ञ इस अवस्था को कांग्रेस सिस्टम कहते थे. जो अपने आप में पूरा हिंदुस्तान समाये रखता था. कांग्रेस को हराना असंभव लगता था.
विचारधारा में भिन्नताओं के बावजूद होना होगा एकजुट
तब राम मनोहर लोहिया ने गैर-कांग्रेसवाद का नारा बुलंद किया और ये कहा कि कांग्रेस को हराने के लिये विचारधाराओं की भिन्नताओं के बावजूद सभी विपक्षी पार्टियों को एक साथ आना पड़ेगा, एकजुट होना पड़ेगा. लोहिया की इस पहल की वजह से 1967 में पहली बार बड़ी संख्या में विपक्षी पार्टियों और गठबंधन की सरकारें बनीं. और 1977 में आपातकाल के बावजूद इंदिरा गांधी खुद भी हार गयी, उनकी पार्टी हार गयी और केंद्र में पहली बार गैर-कांग्रेस की सरकार बनी.
आज कमोवेश हालात वैसे ही हैं. केंद्र में बीजेपी है. कांग्रेस सिस्टम टूट चुका है. कांग्रेस जनसंघ की तरह हाशिये पर है. उसके सामने अस्तित्व का संकट है. नेतृत्व पर गहरे सवाल हैं. नेहरू-गांधी परिवार की विश्वसनीयता रसातल में है और नया उभरता तर्कशास्त्री-समाज परिवारवाद को अपनाने को तैयार नहीं दिखता.
कांग्रेस को नये बीज की जरूरत है जो भविष्य का शक्तिशाली वृक्ष खड़ा कर सके. बीजेपी आज पूरे शबाब पर है. अपने बल पर उसके पास बहुमत है. पूंजीवादी पूरी ताकत से उसके साथ हैं. कार्यकर्ताओं की पूरी फौज है. संसाधनों की कोई कमी उसके पास नहीं है. मीडिया पर जबर्दस्त पकड़ है. लंबे संघर्ष के बाद दक्षिणपंथी हिंदुत्व को बड़े तबके की स्वीकारोक्ति मिल रही है. वो आक्रामक है और उदारवादी सोच बैकफुट पर. कह सकते हैं कि बीजेपी ने बदले स्वरूप में कांग्रेस सिस्टम को रिप्लेस कर दिया है.
विपक्ष के सामने चुनौती मुश्किल है, नामुमकिन नहीं
विपक्ष अपने स्वरूप में वैसे ही खड़ा है जैसे लोहिया के समय था. छिन्न-भिन्न. अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग. हालांकि तब की तरह आज वैचारिक आधार काफी कमजोर है. विचारधारा की जगह पार्टियां प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां बन गयी हैं. विचार की जगह न्यस्त स्वार्थ महत्वपूर्ण है. और लोहिया जेपी जैसा चमत्कारिक व्यक्तित्व अभी पूरी तरह से उभरना बाकी है. एक फर्क और है कांग्रेस सिस्टम में दूसरे परस्पर विरोधी विचारों के लिये स्थान था पर बीजेपी में ऐसा नहीं है. इसकी सीमा भी सीमित है और आकर्षण भी. ऐसे में विपक्ष के सामने चुनौती बड़ी तो है पर दुरूह नहीं.
लेकिन अभी इसे बीजेपी सिस्टम कहना गलत होगा. बीजेपी को अभी भी सही मायने में अखिल भारतीय पार्टी नहीं कह सकते हैं. दक्षिण और उत्तर पूर्व में बीजेपी को अभी विस्तार करना है. कांग्रेस की कमजोरी बीजेपी के लिये मार्ग प्रशस्त कर सकती है. पर ये भविष्य की अटकलबाजियां हैं. हकीकत में आज विपक्ष के सामने फासीवाद का संकट है. कांग्रेस अपनी तमाम लोकतांत्रिक परंपराओं के बाद भी सत्तर के दशक में अधिनायकवाद में तब्दील हो गयी थी. फासीवाद की आहट विपक्ष को एक मंच पर लाने का एकमात्र कारण बन रहा है.
नोटबंदी ने विपक्षी एकता की प्रक्रियात्मक शुरुआत कर दी है. इसके पहले अरुणाचल प्रदेश और बाद में उत्तराखंड की सरकारों की अकारण बर्खास्तगी ने समूचे विपक्ष को भविष्य के संकट की चेतावनी दे दी थी. अब विपक्ष को लगने लगा है कि बिना साथ आए बीजेपी का सामना मुश्किल है.
बीजेपी के खिलाफ विपक्ष के एकजुट होने में ये है मुश्किल
बीजेपी के खिलाफ विपक्ष के एकजुट होने में चार मुश्किलें हैं. एक, कांग्रेस और ‘आप’ को छोड़कर बीजेपी के साथ अतीत में गलबहियां लगभग सारी पार्टियां कर चुकी हैं. यहां तक लेफ्ट भी गैरकांग्रेसवाद के दौर में बीजेपी/जनसंघ के साथ रणनीतिक साझेदार रहे हैं. इसलिए वैसी नफरत इन पार्टियों में बीजेपी को लेकर नहीं दिखती जैसी कांग्रेस को लेकर थी.
दो, ज्यादातर विपक्षी दल मौजूदा दौर में विचारधाराविहीन हैं, ऐसे में विपक्षी एकता के दीर्घायु होने की संभावना कम है. निजी स्वार्थ इनमें से कईयों को पाला बदलने के लिये मजबूर कर सकता है. तीन, ऐसा विशालकाय व्यक्तित्व जिसकी सभी सुनें, की कमी इस एकता को स्थायी रूप या संरचनात्मक आधार देने में बड़ी दिक्कत पैदा करेगा. चार, विपक्षी पार्टियां अलग-अलग राज्यों में एक दूसरे से ही लड़ रही हैं.
राज्यों में एक-दूसरे के खिलाफ हैं दल
बंगाल में ममता-लेफ्ट हैं तो यूपी में मुलायम-माया और तमिलनाडु में करुणानिधि-जयललिता. उड़ीसा में कांग्रेस और बीजू जनता दल एक दूसरे के खिलाफ हैं. ऐसे में ये एकता की कोशिशें कितनी जल्दी या देर में रंग लाएंगी या लाएंगी भी या नहीं फिलहाल कहना मुश्किल है. बीजेपी के लिये ये प्लस प्वाइंट है. पर कब तक, ये देखना होगा. लेकिन नोटबंदी ने विपक्ष को ऑक्सीजन देने का काम किया है इसमें कोई शक नहीं है.
(लेखक आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)