दशकों में सबसे ज्यादा संकट के दौर के स्वतंत्रता दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के देश के नाम संबोधन को लेकर लोगों में उत्सुकता इस बात को लेकर थी कि वो अभी और आने वाले समय में जनता की परेशानियों को किस तरह से हल करने के संकेत देते हैं.
भाषण खत्म होने के बाद ज्यादातर लोग कई कारणों से थोड़े निराश हुए होंगे. पहला महामारी बढ़ती ही जा रही है और आंशिक सुधार के आंकड़ों के तर्क जो आधिकारिक तौर पर दिए जाते हैं- कि कैसे हमने सबसे बुरा दौर पीछे छोड़ दिया है, उस सांत्वना से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता.
लेकिन मोदी ने ये आशा जताई कि वैक्सीन के लिए रिसर्च सही रास्ते पर है और जब भी ये तैयार हो जाती है उनकी सरकार इसकी उपलब्धता जल्द से जल्द सुनिश्चित करेगी। लोग ये सुनकर ज्यादा आश्वस्त होते कि ये सबसे लिए कम कीमत पर उपलब्ध होगी और इसपर अमीर और प्रभावशाली लोगों का विशेषाधिकार नहीं रहेगा जैसा कि पिछले कुछ महीनों में अच्छी स्वास्थ्य सुविधाओं पर रहा है.
दूसरी बात ज्यादातर नागरिकों की निजी आर्थिक स्थिति बिगड़ चुकी है और ये निश्चित नहीं है कि कब इसकी हालत सुधरेगी. हाल के वर्षों में, यहां तक कि अपने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में भी मोदी ने नौकरी मांगने वाले से नौकरी देने वाला देश बनने के बदलाव पर जोर दिया है.
नारे, अनुप्रास और ऐलान
महामारी और बिना योजना के अचानक लॉकडाउन लागू किए जाने के परिणामस्वरूप, दोनों श्रेणी के कई लोग इस बात को लेकर चिंतित रहते हैं कि अगली बार उनके खाने का इंतजाम कैसे होगा. ठोस आश्वासनों की जगह मोदी का भाषण नारों, तुकबंदी, घोषणाओं का रहा जिनका या तो पहले ही एलान किया जा चुका था या जो पहले से ही है, उसे नए सिरे से पेश कर दिया गया.
उदाहरण के तौर पर पब्लिक हेल्थ नेटवर्क के जरिए एक रुपये की दर से पांच करोड़ सैनिटरी पैड बांटने का प्रशंसनीय उल्लेख. “लाल किले से सैनिटरी पैड की बात करने वाले पहले पीएम” होने के लिए उनकी तारीफ हुई. यहां इस बात का जिक्र करना जरूरी है कि 2014 में इसी जगह से बलात्कार की बात करने वाले वो पहले प्रधानमंत्री बने थे लेकिन जब उनकी पार्टी को चंडीगढ़ मामले में कार्रवाई की जरूरत थी, वो अपना उपदेश भूल गए.
मोदी जैसे नेता जो ज्यादा भाषण देते हैं (अगस्त में ये उनका नौवां भाषण था) उनके साथ फायदा ये है कि ज्यादा भाषण सुनने के कारण जनता की याददाश्त धुंधली हो जाती है.
नतीजतन पुराने वादे और योजनाओं को अगर काफी दिन बाद फिर से बताया जाए तो वो नई लगती हैं- आखिरकार मेनस्ट्रुल हाइजीन लंबे समय से इस सरकार का मूलमंत्र रहा है, एक पसंदीदा बॉलीवुड अभिनेता ने इस विषय पर एक फिल्म भी बनाई है.
सरकार ने जन औषधि सुविधा ऑक्सो-बायोडिग्रेडेबल सैनिटरी नैपकिन योजना जून 2018 में शुरू की थी. 2019 के चुनाव के पहले मोदी ने सस्ते सैनिटरी पैड का वादा किया था और अगस्त 2019 में प्रधानमंत्री भारतीय जनऔषधि केंद्रों में हर पैड की कीमत घटाकर एक रुपये कर दी थी.
'भव्य' योजनाओं की मोदीनॉमिक्स
अप्रैल के अंतिम हफ्ते से आत्मनिर्भर भारत के विचार को सभी समस्याओं के समाधान के लिए लगातार रामबाण के तौर पर पेश किया जा रहा है, न सिर्फ प्रधानमंत्री द्वारा बल्कि हर उस व्यक्ति द्वारा जो अपनी निष्ठा और आदर दिखाने का इच्छुक है
इसी के साथ एक ही सांस में मोदी ने दावा किया यही देश का नया मंत्र है. जब लोग संकट में होते हैं तो बड़ी-बड़ी बातें खोखली लगती हैं.
लंबे समय तक मोदीनॉमिक्स के सिद्धांत स्वदेशी के 100 साल से ज्यादा समय से चले आ रहे अभियान के विपरीत थे. गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर भी मोदी और भगवा दल के आर्थिक राष्ट्रवादियों के रास्ते अक्सर अलग-अलग ट्रैक पर रहे.
मोदी का मेक इन इंडिया प्लान, जिसकी घोषणा 2014 में की गई थी, छह साल बाद भी पूरी तरह तैयार नहीं हुआ और इसलिए इस आइडिया को नए तरीके से पेश किया जा रहा है.
हाल ही में सरकार ने 101 रक्षा उपकरणों के आयात पर भी रोक लगा दी-एक ऐसा एलान जिसपर अभी भी ये तय नहीं हो सका है कि इससे भारतीय रक्षा उद्योग में बदलाव आएगा कि नहीं.
लेकिन ये तय है कि ऐसे फैसलों से तुरंत नौकरियां पैदा नहीं होगी जबकि इनकी तेजी से आवश्यकता है.
इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास से निश्चित तौर पर नई नौकरियां पैदा होंगी लेकिन इसमें समय लगेगा. मोदी ने पहले कहा था कि चाहे जितना भी केंद्र सरकार कर ले ये कम ही लगेगा. ये सुनिश्चित करना उनका काम है कि ये भावना असंतोष में न बदल जाए.
तारीफ करने लायक ऐलान, लेकिन प्रभावी कितने?
मोदी के भाषण में कुछ तारीफ करने योग्य एलान भी थे लेकिन ऐसी योजनाओं के पीछे के मुद्दों को देखने से इनकार करने के कारण इनका प्रभाव कम हो जाता है. नेशनल डिजिटल हेल्थ मिशन लॉन्च करना ऐसा ही बड़ा एलान है. आधार कार्ड जैसी हेल्थ आईडी जिसमें सभी मेडिकल टेस्ट रिपोर्ट, डॉक्टर के पर्चे, हर व्यक्ति की बीमारी की पूरी जानकारी होगी, ये एक सराहनीय पहल है.
लेकिन यहां सवाल ये है कि ये कितना कारगर होगा, खासकर अच्छे पब्लिक हेल्थ केयर सिस्टम की अनुपस्थिति और ये देखते हुए कि खर्च न उठा पाने या पड़ोस में अच्छा अस्पताल नहीं होने के कारण ज्यादातर लोग अच्छा और समय पर इलाज नहीं करा पाते.
जैसा कि मोदी ने अपनी ‘रिपोर्ट कार्ड’ में जिक्र किया एम्स जैसे स्वास्थ्य संस्थान की संख्या में वृद्धि होना सराहनीय है लेकिन इसके साथ ही पूरे देश की स्वास्थ्य सेवाओं में भी सुधार होना चाहिए. अगर अच्छी स्वास्थ्य सुविधा केंद्रीकृत रह जाए और कुछ संस्थानों तक ही सीमित रहे तो ये कार्ड जनता के ज्यादा काम का नहीं होगा.
इसी तरह मोदी ने बताया कि सरकार ने 100 शहरों को प्रदूषण घटाने के लिए चुना है. लेकिन शहरों में अधिकांश समस्याएं केवल स्थानीय कारणों से नहीं होती, बल्कि पड़ोस के इलाके की आदतों, प्रथाओं और नीतियों के कारण भी उत्पन्न होती हैं- उदाहरण के तौर पर ठंड के मौसम में उत्तर भारत में स्मॉग ज्यादातर पराली जलाने से होती है. इसके अलावा क्या ये कार्यक्रम सिर्फ शहरों के लिए होगा या फिर प्रदूषण फैलाने वाले इलाकों के हिस्सेदार या इलाके भी इसमें शामिल किए जाएंगे।
2014 के स्वतंत्रता दिवस के भाषण में ऐलान किया गया स्वच्छ भारत अभियान सरकार की उपलब्धियों की सूची में सबसे आगे है. फिर भी ये कार्यक्रम नगरपालिका में सुधारों के अभाव, बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर और बहुत से सफाई कर्मचारियों की असफलता के कारण असर खोता जा रहा है.
मोदी का 'मिशन मोड'
गुजरात के एक वरिष्ठ नौकरशाह ने एक बार कहा था कि “मोदी मिशन” मोड में काम करते हैं. इस तरह के ‘मिशन’ या परियोजनाएं स्पष्ट तौर पर परिभाषित उद्देश्यों, व्यापकता और क्रियान्वयन की समय सीमा और उपलब्धियां उनके प्रधानमंत्री बनने के पहले से शासन का हिस्सा रही हैं. लेकिन वो बार-बार नए एलानों पर जोर देते हैं क्योंकि मोदी आकर्षक गढ़े गए नारों के असर को जानते हैं. लोगों के साथ अपनी संवाद करने की क्षमता के कारण प्रधानमंत्री अपनी कुर्सी को बचाने में सफल हो जाते हैं.
चीन के साथ जारी कूटनीतिक तनाव और राम मंदिर के भूमि पूजन पर वो क्या बोलेंगे इसको लेकर पूर्वानुमान लगाए जा रहे थे. इन दोनों मुद्दों पर उन्होंने पहले जो कहा है उससे ज्यादा वो कुछ नहीं बोले. मोदी की 173 सीमा और तटीय जिलों में राष्ट्रीय कैडेट कोर के विस्तार की घोषणा 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद के दिनों की याद दिलाती है जब एनसीसी में सेवा अनिवार्य कर दी गई थी. 1968 में इसे ऐच्छिक बना दिया गया था.
ये अहम है कि प्रधानमंत्री ने इस बात पर जोर दिया कि उनके शासन में कैसे ऐसे देशों से रिश्ते मजबूत हुए हैं जिनसे देश की सीमाएं नहीं लगती हैं. हालांकि उन्होंने उन देशों के साथ तनाव के बारे कुछ नहीं कहा जिनसे हमारे देश की सीमाएं लगती हैं.
(लेखक दिल्ली स्थित लेखक और पत्रकार हैं. उन्होंने ‘डेमोलिशन: इंडिया एट द क्रॉसरोड्स’ और ‘नरेंद्र मोदी: द मैन, द टाइम्स’ जैसी किताबें लिखी हैं. उनसे @NilanjanUdwin पर संपर्क किया जा सकता है.)
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