नेता कोई भी हो, वो बिना किसी अपवाद के, अपने विरोधियों के खिलाफ प्रचार और सजा (प्रॉपगैंडा और पनिशमेंट) की दुधारी तलवार का इस्तेमाल करता है. इसलिए मसला ये नहीं है कि इनका इस्तेमाल कब होता है, या होता है या नहीं. बल्कि देखने वाली बात ये है कि इनका इस्तेमाल कैसे किया जाता है. इसी से तय होता है कि किसी नेता का चरित्र और मिजाज कैसा है और उसका या उसकी सरकार का दबदबा कितने लंबे अरसे तक टिकने वाला है.
मेरा मानना है कि इन दोनों हथियारों का बड़ी बेरहमी से इस्तेमाल करने वाला एडॉल्फ हिटलर, ऐसे नेताओं की लिस्ट में सबसे अंतिम पायदान पर है. वो बदले के लिए हत्याएं करवाने से लेकर अपने प्रचार मंत्री गोएबल्स की अगुवाई में दिनरात झूठा प्रचार करवाने तक, हर किस्म के धतकरम करता था. कोई अचरज की बात नहीं कि उसका अंत भी बुरा ही हुआ.
नेल्सन मंडेला जैसे नेता इस लिस्ट में सबसे ऊंचे पायदान पर हैं, जिन्होंने प्रॉपगैंडा/पनिशमेंट के इस्तेमाल में हमेशा तसल्ली, उदारता और गहरी सूझबूझ से काम लिया. यही वजह है कि मंडेला लोगों की यादों में हमेशा अमर रहेंगे.
जाहिर है कि कोई नेता प्रॉपगैंडा और पनिशमेंट को अपनी पॉलिटिकल स्ट्रैटजी (राजनीतिक रणनीति) का हिस्सा जिस तरीके से बनाता है, उसी से तय होता है कि उसके बारे में चौथा "पी" यानी लोगों का परसेप्शन (मान्यता) क्या होगा. ये बात बेहद अहम है, क्योंकि फिजिक्स की तरह ही राजनीति में भी "हर क्रिया की समान लेकिन विपरीत प्रतिक्रिया" होती है.
अगर कोई नेता जरूरत से ज्यादा हमलावर हो जाता है, तो वो अपने विरोधी को “पीड़ित होने के आभामंडल” से लैस करने का खतरा मोल लेता है. ऐसे हालात पॉलिटिक्स के पांचवें “पी” यानी विरोधी के पर्सेक्यूशन (उत्पीड़न) वाले भाव को जन्म दे सकते हैं, जिससे “उत्पीड़ित” राजनेता के पराभव का दौर अचानक उसकी शानदार वापसी में तब्दील हो जाता है.
अगर आप अब भी इस बात से पूरी तरह सहमत नहीं हैं, तो राजनीति के चार ताजा उदाहरण पेश हैं (पुराने इतिहास से निकाले हुए नहीं) :
- पाकिस्तान में नवाज शरीफ की बार-बार सत्ता में वापसी का क्या मतलब है?
- पिछले साल हुए ब्रिटेन के चुनाव के दौरान जेरेमी कॉर्बिन की हैसियत में आया चमत्कारिक उछाल क्या बताता है?
- मलेशिया में महाथिर मोहम्मद या अनवर इब्राहिम की हैरान करने वाली जीत से क्या पता चलता है?
- और ब्राजील में लुला की किस्मत जिस हैरतअंगेज तरीके से पलटी है, उसके क्या मायने हैं?
शाह कमीशन ने कैसे आसान की थी इंदिरा गांधी की वापसी
लेकिन उत्पीड़ित राजनेता की वापसी का शायद सबसे शानदार उदाहरण जब अपने देश में ही मौजूद है तो देश के बाहर झांकने की भी कोई जरूरत नहीं है. आपको वो दौर याद है, जब 1977 में इमरजेंसी के बाद इंदिरा गांधी की हार हुई थी और सब सोच रहे थे कि उनका राजनीतिक करियर अब खत्म हो चुका है?
जनता पार्टी के नाम से बने राजनीतिक गठबंधन ने तब 51.89% वोट हासिल किए थे. हालात ऐसे हो गए थे कि इंदिरा गांधी के सबसे भरोसेमंद सहयोगियों ने भी वाईबी चव्हाण और ब्रह्मानंद रेड्डी की अगुवाई में उनसे ये सोचकर किनारा कर लिया था कि जनता की अदालत में अब उनकी छवि हमेशा के लिए ध्वस्त हो चुकी है. लुटियंस दिल्ली के बंगले 12 विलिंगडन क्रेसेंट के गार्डेन में अकेली और असहाय इंदिरा गांधी बिना किसी मकसद के यूं ही टहलती नजर आती थीं.
लेकिन तभी जनता सरकार एक भयानक राजनीतिक गलती कर बैठी. सत्ता में आने के दो महीने के भीतर ही उसने देश के रिटायर हो चुके पूर्व चीफ जस्टिस जेसी शाह को बुलाकर “इमरजेंसी में हुए अत्याचारों” की जांच का काम सौंप दिया.
जस्टिस शाह की न्यायिक विश्वसनीयता संदेह के परे थी - वो महात्मा गांधी की हत्या के केस में नाथूराम गोडसे को सजा दिलाने में अहम भूमिका निभा चुके थे -लेकिन उन्हें जांच सौंपने का राजनीतिक फैसला विवादास्पद था. इंदिरा गांधी के साथ उनके रिश्ते बेहद कड़वाहट भरे थे, क्योंकि 1970 में लोकसभा के 199 सांसदों ने उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पेश किया था. (ये प्रस्ताव आखिरकार खारिज हो गया था, लेकिन इंदिरा गांधी के साथ उनका टकराव जगजाहिर हो चुका था). इन हालात में एक चालाक राजनेता के लिए शाह कमीशन के गठन को "गलत इरादे से प्रेरित बदले की कार्रवाई" के रूप में पेश करना बेहद आसान था.
जनता सरकार अनजाने ही इंदिरा गांधी को वो पॉलिटिकल ऑक्सीजन देने की मूर्खता कर बैठी थी, जिसने उनके राजनीतिक करियर में नई जान फूंक दी. और इंदिरा गांधी ऐसी नेता नहीं थीं कि वो भेंट में मिले इस शानदार मौके को हाथ से फिसल जाने देतीं !
इंदिरा, उनके बेटे संजय गांधी और उनके राजनीतिक सहयोगी प्रणब मुखर्जी ने शाह कमीशन की कानूनी वैधता को चुनौती देते हुए उसके सामने शपथ लेने से इनकार कर दिया. इस पर जस्टिस शाह अपना आपा खो बैठे और इंदिरा गांधी को फटकार लगा डाली.
सरकार ने एक अनाड़ी की तरह इंदिरा गांधी को गिरफ्तार कर लिया और ये खबर अखबारों की सबसे बड़ी हेडलाइन बन गई. उन्हें जेल भेजा गया, लेकिन आरोप इतने कमजोर थे कि उन्हें कोर्ट ने खारिज कर दिया. अदालत में "निर्दोष" करार दिए जाने के साथ ही इंदिरा गांधी को अपनी "जीत के क्षण" का ऐलान करने का सुनहरा मौका मिल गया.
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इंदिरा गांधी के एक माहिर राजनेता वाले मिजाज पर हार के कारण छाई धुंध न सिर्फ छंट गई, बल्कि वो एक नए तेवर के साथ मैदान में कूद पड़ीं. बिहार के दूरदराज के गांव बेलछी में जब 11 दलितों को गोली मारने और जिंदा जलाए जाने की वारदात हुई तो इंदिरा गांधी वहां हाथी पर सवार होकर जा पहुंचीं.
तब तक सरकार के किसी भी मंत्री ने वहां पहुंचकर संवेदना जाहिर करने की जहमत नहीं उठाई थी. गांव वालों ने जब "आधी रोटी खाएंगे, इंदिरा को बुलाएंगे" के नारे लगाए तो ये उनके राजनीतिक प्रचार का जबरदस्त मौका बन गया. और फिर इंदिरा गांधी ने सबसे दुस्साहसिक कदम उठाते हुए कर्नाटक के चिकमंगलूर से उप-चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया.
इस चुनाव में “एक शेरनी, सौ लंगूर, चिकमंगलूर भाई चिकमंगलूर” के नारे ने लोगों को सम्मोहित कर लिया. इंदिरा ने चुनाव जीता और नेता प्रतिपक्ष (लीडर ऑफ ऑपोजिशन) के तौर पर कैबिनेट मंत्री का दर्जा हासिल किया. उनका राजनीतिक सिक्का एक बार फिर से चल निकला था.
लेकिन जनता सरकार ने आत्मघाती गलतियों का सिलसिला जारी रखा और अपने पूर्ण बहुमत का इस्तेमाल करते हुए इंदिरा गांधी को संसद से निष्कासित कर दिया. उनकी लोकप्रियता लगातार बढ़ती गई और आखिरकार 1980 के आम चुनाव में उन्हें जबरदस्त जीत हासिल हुई.
वोट प्रतिशत में आए 8.17 के जबरदस्त उछाल की मदद से इंदिरा गांधी ने लोकसभा की 542 में 353 सीटें जीत लीं. और इस तरह, दुनिया के इतिहास की सबसे बड़ी राजनीतिक वापसी हमारे सामने थी!
राहुल गांधी को बात-बेबात बनाया जा रहा है बलि का बकरा!
अब बात करते हैं 2014 की, जब प्रधानमंत्री मोदी ने 335 लोकसभा सीटों के साथ वैसी ही जबरदस्त जीत हासिल की थी. कई लोग कयास लगा रहे थे कि क्या अब शाह कमीशन 2.0 की शुरुआत होगी. (इसे मोदी की पसंद से चुने गए पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के सरनेम से जोड़कर देखने की गलती न करें. ये सिर्फ एक मामूली संयोग है).
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लेकिन मोदी ने सावधानी बरती और इतिहास की गलतियों को दोहराने का काम नहीं किया. उन्होंने जांच आयोग बनाने या एक साथ कई लोगों पर मुकदमा चलाकर संस्थागत रूप से उनका उत्पीड़न करने वाला कोई कदम नहीं उठाया.
मोदी ने "बड़े पैमाने पर सजा देने" जैसा कदम भले ही नहीं उठाया, लेकिन अपने तरकश का दूसरा तीर चलाने में उन्होंने कोई परहेज नहीं किया. ये दूसरा तीर है "दुष्प्रचार" का. ये एक ऐसा दुष्ट राक्षस है, जो अब बेलगाम हो चुका है. आज कोई चाहे तो इस पर एक मोटा ग्रंथ लिख सकता है कि ट्रोल्स, टेलीविजन एंकर्स और सच से बिलकुल अलग हटकर बातें लिखने वाले पोस्ट-ट्रुथ कॉलमिस्ट ने मोदी सरकार की तरफ से कैसा प्रचंड प्रचार-युद्ध छेड़ रखा है.
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इसके पांच सबसे घटिया उदाहरण देखिए :
(ऐसे अनगिनत उदाहरण दिए जा सकते हैं, लेकिन बात को समझने के लिए इतने काफी होने चाहिए).
तारीख: 20 जून 2018
बड़ी खबर: जम्मू-कश्मीर जैसे बेहद संवेदशील और विस्फोटक हालात से गुजर रहे राज्य में पीडीपी-बीजेपी सरकार के गिरने की खबर ने देश को हिलाकर रख दिया था. भारत के राजनीतिक जीवन को नष्ट कर रहे कैंसर का एक और दर्दनाक घाव खुलकर सामने आ गया था. उधर 500 मील दूर, देश की राजधानी में एक मुख्यमंत्री लेफ्टिनेंट गवर्नर का घेराव किए बैठा था.
प्राइम टाइम प्रॉपगैंडा शो : “क्या राहुल गांधी और उनके सहयोगियों ने अपने फायदे के लिए रोहित वेमुला का इस्तेमाल किया?”
आरोपों से भरे इस हमले की “प्रेरणा” उन्हें इसलिए मिली क्योंकि वेमुला की मां ने 15 लाख रुपये की मदद देने के इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (IUML) के वादे के बारे में बात की थी. उन्होंने राहुल गांधी का तो कहीं नाम तक नहीं लिया था. फिर भी प्राइम टाइम के कई घंटे सिर्फ राहुल गांधी को बलि का बकरा बनाने की कोशिश में खर्च कर दिए गए !
तारीख: 12 जून 2018
बड़ी खबर: नीरव मोदी को ब्रिटेन में खोज निकाला गया था और सीबीआई आखिरकार इंटरपोल तक पहुंच गई थी. ये वक्त शासन में बैठे लोगों को उनकी अयोग्यता या मिलीभगत के लिए सख्त लहजे में जवाबदेह ठहराने का था.
प्राइम टाइम प्रॉपगैंडा शो: “राहुल का वाजपेयी को अस्पताल में देखने जाना क्या एक राजनीतिक स्टंट था ?”
एंकर की शुरुआती लाइनें ही उसके पक्षपात भरे रुख की पोल खोलने के लिए काफी थीं : “राहुल गांधी ने एक सम्मानजनक शिष्टाचार को राजनीतिक रेस में तब्दील कर दिया.”
तारीख: 17 मई 2018
बड़ी खबर: कर्नाटक का राजनीतिक ड्रामा, जिसमें एक तरफ राज्यपाल ने चुपके-चुपके बीजेपी की अल्पमत सरकार बनवाने का प्रयास किया, तो दूसरी तरफ कांग्रेस इसे रुकवाने के मकसद से सुनवाई के लिए आधी रात को सुप्रीम कोर्ट जा पहुंची. उधर, वाराणसी में कई लोगों की जान लेने वाले दर्दनाक फ्लाइओवर हादसे के पीछे भयानक लापरवाही भी सामने आई.
प्राइम टाइम प्रॉपगैंडा शो: “राहुल गांधी ने न्यायपालिका की तुलना पाकिस्तान से की.”
राहुल ने सिर्फ इतना कहा था: “सुप्रीम कोर्ट के चार जजों को जनता के सामने आकर समर्थन मांगना पड़ा. उन पर दबाव है, उन्हें मजबूर किया जा रहा है...ऐसा तो तानाशाही में होता है, ये तो पाकिस्तान में होता है.” एक बार फिर से वही रवैया देखने को मिल रहा था कि असली खबर भाड़ में जाए, हमें तो राहुल गांधी को बलि का बकरा बनाने से मतलब है!
तारीख: 9 मार्च 2018
बड़ी खबर: सत्ताधारी एनडीए को बड़ा झटका, गठबंधन की शुरुआत से ही उसमें शामिल रही पार्टी टीडीपी ने आखिरकार अलग होने का एलान कर दिया.
प्राइम टाइम प्रॉपगैंडा शो: “राहुल गांधी की डिजाइनर सिंगापुर यात्रा”
एंकर ने अपनी बात ऐसे शुरू की : “राहुल गांधी सवालों के जवाब देने की जगह पानी की बोतल खोजने लगे.” ये राहुल गांधी को बलि का बकरा बनाने की एक और बेहद बचकानी चाल थी !
मैं ऐसे उदाहरण लगातार गिनाता रह सकता हूं. जैसाकि मैंने पहले बताया था, ऐसी अनगिनत मिसालें हैं. हर दिन ऐसी दर्जनों खबरें जबरन गढ़ी जाती हैं, ताकि राहुल गांधी को किसी तरह राजनीतिक मजाक का निशाना बनाया जा सके. बहरहाल, ये प्रॉपगैंडा साफ तौर पर इतना बचकाना, फूहड़ और घटिया है कि इसका उलटा असर पड़ना तय है.
राजनीतिक इतिहास की घटनाओं से सबक लेना चाहिए; उत्पीड़न और दुष्प्रचार की ज्यादती से सावधान !
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