मैं समझ नहीं पा रहा कि मुझे हंसना चाहिए या रोना? मैं इस बात की खुशी मनाऊं कि आखिरकार मेरी बात सही साबित हुई या ये सोचूं कि मेरे साथ धोखा हुआ? मेरी ये हालत फाइनेंशियल टाइम्स की ये खबर पढ़ने के बाद हुई है:
इमरान खान पाकिस्तान की सभी सरकारी कंपनियों को एक स्पेशल फंड के तहत रखने जा रहे हैं, जिसका मैनेजमेंट सरकारी दखल से दो हाथ दूर रखा जाएगा....असद उमर ने फाइनेंशियल टाइम्स से कहा है कि पाकिस्तान की सरकारी एयरलाइन समेत देश की सबसे बड़ी कंपनियों को सरकारी नियंत्रण से अलग रखना उन कदमों में शामिल है, जो पाकिस्तान की नई सरकार सबसे पहले उठाने जा रही है. मिस्टर उमर पाकिस्तान के बड़े कारोबारी समूह एनग्रो के पूर्व चीफ एक्जिक्यूटिव हैं और वो इमरान खान के विपक्ष में रहने के दौरान उनके शैडो वित्त मंत्री यानी आर्थिक मामलों में उनके सबसे बड़े सलाहकार माने जाते रहे हैं. उन्होंने कहा है कि "तमाम कंपनियों को एक वेल्थ फंड के तहत रखा जाएगा, जिसकी कमान प्राइवेट सेक्टर के लोगों को सौंपी जाएगी." उनका कहना है कि इस फंड का काम "कंपनियों के घाटे और कर्जों में कमी लाना होगा, जिसके बाद ये फैसला किया जाएगा कि उनमें से किन कंपनियों का निजीकरण किया जा सकता है और किनके ढांचे को सुधारने में अभी ज्यादा वक्त लगना है." उन्होंने एक ऐसी कंपनी की मिसाल भी दी है, जिस पर कर्ज के बोझ को कम करना निहायत जरूरी है. ये कंपनी है पाकिस्तान इंटरनेशनल एयरलाइंस, जिसकी मौजूदा देनदारी 406 अरब रुपये (3.3 अरब डॉलर) है.
इस खबर को पढ़ते ही मुझे बड़ी बेबसी के साथ अपना वो लेख याद आ गया, जो मैंने 2014 के उन उत्तेजना भरे दिनों में लिखा था, जब हमारे नए-नवेले प्रधानमंत्री ने देश की आर्थिक नीतियों को जड़ से बदल डालने का वादा किया था:
हम एक ट्रिलियन डॉलर का इंडिया सॉवरेन फंड बना सकते हैं, वो भी सरकारी खजाने से एक रुपया भी खर्च किए बिना ! मैं बताता हूं कि ये कैसे हो सकता है. सरकार को चाहिए कि वो अपने कॉरपोरट इनवेस्टमेंट को एक फंड में ट्रांसफर कर दे. इस फंड का मैनेजमेंट प्रोफेशनल लोगों के एक बोर्ड के हाथों में होना चाहिए, जिसके सामने सिर्फ दो लक्ष्य होंगे: 1) पोर्टफोलियो में शामिल कंपनियों के गवर्नेंस में सुधार करके उनकी वैल्यू बढ़ाना; और 2) उस वैल्यू को, (पोर्टफोलियो में शामिल कंपनियों की जगह) फंड की इक्विटी में खरीद-फरोख्त करके पैसों में बदलना. ऐसा तब नहीं करना चाहिए जब सरकार की पैसों की जरूरत हो, बल्कि तब करना चाहिए जब बाजार का माहौल अनुकूल हो. इस फंड का बोर्ड वित्त मंत्रालय के जरिये संसद के प्रति जवाबदेह होगा. सरकारी कंपनियों को बेचने को लेकर जिस तरह की राजनीतिक संवेदनशीलता है, उसे देखते हुए फंड को ये निर्देश दिया जा सकता है कि वो सभी पोर्टफोलियो कंपनियों में 51 फीसदी सरकारी नियंत्रण बनाए रखे. (कम से कम तब तक, जब तक भारत की लिबरल डेमोक्रेसी इतनी समझदार न हो जाए कि संसद निजीकरण करने के लिए हामी भर दे. जब ऐसा हो जाएगा, तब इंडिया सॉवरेन फंड कंपनियों को पूरी तरह बेचने का काम भी कर सकता है. लेकिन अभी तो हम 51 फीसदी सरकारी नियंत्रण को अनिवार्य बनाकर काम करेंगे, ताकि वामपंथी रुझान वाले भारतीय राजनेताओं की मन की आशंकाएं भी दूर रहें).
सिंगापुर का टेमासेक सॉवरेन वेल्थ फंड इसी तरह का एक उदाहरण है. इस फंड के शुरुआती पोर्टफोलियो में शिप रिपेयर बिजनेस में तब्दील एक पोर्ट, एक बर्ड पार्क, एक जूता बनाने वाली कंपनी, एक डिटरजेंट प्रोड्यूसर, एक छोटी एयरलाइन और एक स्टील कारखाना शामिल थे. 1974 में अपनी शुरुआत से लेकर अब तक टेमासेक का एन्युलाइज्ड शेयरहोल्डर रिटर्न 16 फीसदी रहा है और 31 मार्च को इसके पोर्टफोलियो की वैल्यू 267 अरब डॉलर थी. टेमासेक से प्रेरणा लेकर ही सितंबर 2008 में 200 अरब डॉलर के शुरुआती निवेश के साथ चाइना इनवेस्टमेंट कॉरपोरेशन को शुरू किया गया, जिसके लिए पूंजी चीन के विदेशी मुद्रा भंडार से ली गई. चीन के बैंकों में इक्विटी रखने वाले चाइना हुइजिन नाम के इनवेस्टमेंट कॉरपोरेशन को भी इस फंड में ट्रांसफर कर दिया गया था.
भारत की ज्यादातर मुनाफा कमाने वाली सरकारी कंपनियां लिस्टेड हैं. लिहाजा, अगर अनलिस्टेड कंपनियों को शामिल करें, तो इंडिया सॉवरेन फंड की वैल्यू 180 से 200 अरब डॉलर तक पहुंच सकती है. दुर्भाग्य से निवेशकों को सरकार की वैल्यू क्रिएशन की क्षमता में ज्यादा भरोसा नहीं है, जिसके कारण इन कंपनियों का पीई अनुपात 7 के आसपास रहता है, जबकि सेंसेक्स में शामिल 30 कंपनियों के पीई अनुपात 17 के आसपास होते हैं. इतना ही नहीं, एयर इंडिया जैसी कई अनलिस्टेड कंपनियों के पास लंबी-चौड़ी जमीनों और द्विपक्षीय फ्लाइंग राइट्स के रूप में कीमती एसेट्स मौजूद हैं. ऐसे में ये माना जा सकता है कि एक स्वायत्त और प्रोफेशनल होल्डिंग कंपनी के मैनेजमेंट के तहत लाए जाने पर इनकी मौजूदा वैल्यू 180-200 अरब डॉलर से बढ़कर 225-250 अरब डॉलर तक पहुंच सकती है.
अब जरा नए और अलग तरीके से सोचते हैं. अगर इंडिया सॉवरेन फंड की औसत या मीडियन वैल्यू अगले 6-8 साल में बढ़कर 325 अरब डॉलर के आसपास पहुंच जाए (हम ये मानकर चल रहे हैं कि इन वर्षों के दौरान फंड के एसेट और इनकम की वैल्यू मौजूदा 225 अरब डॉलर से आगे बढ़ेगी), तो ये फंड 325 अरब डॉलर की रकम इक्विटी के तौर पर भी जुटा सकता है. इसके लिए सरकार को नए शेयर जारी करके अपनी इक्विटी को घटाकर 51 फीसदी पर लाना होगा. इसके अलावा ये फंड 650 अरब डॉलर की रकम कर्ज से भी जुटा सकता है (1:1 के कंजर्वेटिव कर्ज/इक्विटी रेशियो के हिसाब से). ये काम 'सही अवसरों' का ध्यान रखकर कई चरणों में किया जा सकता है. यानी जब ब्याज दरें निचले स्तर पर हों तो कर्ज के जरिए फंड जुटाया जाए और जब इक्विटी की वैल्यू ऊंचाई पर हो तो इक्विटी जारी करके पैसे जुटाए जाएं. इस स्ट्रैटेजी पर चलते हुए अगले 6-8 साल में करीब 1 ट्रिलियन डॉलर के नए फंड जुटाए जा सकते हैं, जिनका इस्तेमाल नए निवेश के लिए हो सकता है.
"ट्रिलियन डॉलर" वाली हेडलाइन ने दिलचस्पी जगाई
जोश से भरी मोदी सरकार अपने पहले साल में नए-नए आइडिया की तलाश कर रही थी, लिहाजा इस लेख के बाद मेरे पास एक बहुत बड़े - वाकई बहुत बड़े - मंत्री के ऑफिस से फोन आया. मुझसे वहां आकर इंडिया सॉवरेन फंड के बारे में एक प्रेजेंटेशन देने को कहा गया. मैंने एक घंटे से ज्यादा वक्त तक प्रेजेंटेशन दिया, जिसे सबने पूरे गौर से देखा-सुना. जब मैं तमाम आंकड़े पेश कर चुका, तो कमरे में मौजूद सबसे प्रमुख व्यक्ति ने कहा: "मुझे 50 बिलकुल आसान शब्दों में बताइए कि ये आइडिया राजनेताओं को कैसे समझाया जाए, वो भी उलझाने वाले आंकड़ों का इस्तेमाल किए बिना."
मैने जवाब दिया :
“इसके बड़े आर्थिक फायदे कुछ इस तरह हैं (और नुकसान कोई नहीं) : विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ने से रुपया मजबूत होगा; महंगाई दर घटेगी; ब्याज दरें कम होंगी और प्राइवेट इनवेस्टमेंट बढ़ेगा; फिस्कल और करेंट अकाउंट डेफिसिट भी कम होगा; और स्वास्थ्य, शिक्षा और ग्रामीण इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए बड़े पैमाने पर अतिरिक्त फंड मुहैया कराया जा सकेगा.”
वहां मौजूद सबसे प्रमुख व्यक्ति की आंखें उत्साह से चमकने लगीं. उन्होंने कहा, "चलिए ये करके देखते हैं." और जब मैं वहां से चलते समय अपने प्रेजेंटेशन की बुकलेट्स उठाने लगा, तो उन्होंने मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा, "एक कॉपी मेरे लिए छोड़ जाइए. मैं इसे खुद पढ़ूंगा."
मैं वहां से निकला तो काफी हल्का और जोश से भरा हुआ महसूस कर रहा था. मुझे लग रहा था कि मैंने भारत माता के आर्थिक भाग्य को चमकाने में अपनी तरफ से एक महान योगदान किया है. लेकिन कुछ हफ्ते बाद जब वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर इनवेस्टमेंट फंड (NIIF) में 4 अरब डॉलर का निवेश करने का ऐलान किया, तो मुझे गहरा सदमा लगा. ये स्कीम तो बिलकुल अलग ही थी. इंडिया सॉवरेन फंड का कहीं कोई जिक्र नहीं किया गया!
लेकिन मैंने तब भी हार नहीं मानी. मैंने एक और टिप्पणी लिखी, जिसमें ये साबित किया कि मेरा आइडिया किस तरह NIIF के प्रभाव को 50 गुना बढ़ा सकता है :
इस बार मुझे कोई जवाब नहीं मिला. कुछ और दफा कोशिश करने पर भी जब कोई नतीजा नहीं निकला तो मैंने अपना ध्यान उधर से हटा लिया..... जब तक कि पाकिस्तान के नए बनने जा रहे प्रधानमंत्री इमरान खान ने उन निराशाजनक यादों को फिर से जगा नहीं दिया. मैंने सिर्फ एकैडमिक संतोष के लिए ताजा आंकड़ों पर नजर डाली. 2014 के मुकाबले तमाम आंकड़े अब काफी मजबूत दिख रहे थे. 50 लिस्टेड सरकारी कंपनियों का कुल मार्केट कैपिटलाइजेशन 250 अरब डॉलर पर पहुंच चुका है; उनके कैश फ्लो और डिविडेंड भी काफी बढ़ चुके हैं. काश, उन बड़े मंत्री - मैं फिर जोर देकर कह रहा हूं, वाकई बड़े मंत्री - ने इंडिया सॉवरेन फंड के आइडिया को लागू करने की हिम्मत दिखाई होती, तो ट्रिलियन डॉलर का वो निवेश, बंद आंखों का सपना नहीं होता, अब तक हकीकत में बदल चुका होता.
नहीं....! भारत को फिर से नेशनलाइज न करें...प्लीज...!
दुर्भाग्य से, आज जो हो रहा है वो और भी बुरा है. मोदी राज में हम जिस तरह का री-नेशनलाइजेशन देख रहे हैं, उससे तो पहले वाला हाल बना रहना ही बेहतर था. पब्लिक सेक्टर के चार शेयरहोल्डर्स ने यूटीआई पर फिर से नियंत्रण करने की जो कोशिशें की हैं, वो ऐसे सनक भरे नीतिगत फैसलों की सिर्फ एक ताजा मिसाल है. याद कीजिए कि ओएनजीसी की बैलेंस शीट पर किस तरह जीएसपीसी और एचपीसीएल का बोझ डाला गया? आईडीबीआई और आईएलएफएस को संकट से निकालने के लिए एलआईसी को कैसे दुधारू गाय की तरह दूहा जा रहा है? और अब तो चर्चा ये है कि जीवन बीमा कंपनी का इस्तेमाल एयर इंडिया के मामले में भी किया जा सकता है......नहीं, प्लीज,...नहीं......!!
प्रधानमंत्री मोदी और उनके प्रशंसक इस बात से काफी चिढ़ेंगे, लेकिन सच तो यही है कि जिस तरह क्रिकेट टीम के कप्तान के तौर पर इमरान खान 1980 के दशक में हमारे खिलाड़ियों की गिल्ली उड़ा देते थे, वैसे ही वो एक बार फिर से पब्लिक सेक्टर पॉलिसी के मामले में हमें 25 साल बाद नॉक आउट करने को तैयार दिख रहे हैं. ओह, नहीं!
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