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‘गरीबी की चमक’ पर मोदी का दांव, ‘झुककर मैदान मारने’ को राहुल तैयार

क्या हमारे वक्त के सबसे ताकतवर राजनेता से भी शायद आसमान में उठते धुएं के बादलों को पहचानने में चूक हो रही है?  

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राजनेता अपनी हार की भविष्यवाणी करने में बेहद कमजोर होते हैं. नेता जितना बड़ा होता है, उसका ईको-चैम्बर, यानी हां में हां मिलाने वालों का जमावड़ा, उतना ही बड़ा होता है और दूसरों की आवाजें उस तक उतनी ही कम पहुंचती हैं. लिहाजा उसे सच का पता न चल पाने का खतरा उतना ही बढ़ जाता है.

1977 की इंदिरा गांधी याद हैं? उन्होंने इमरजेंसी खत्म करके चुनाव कराने का ऐलान किया था, क्योंकि उन्हें ऐसे इंटेलिजेंस इनपुट मिले थे कि "ट्रेनों के समय से चलने और चारों तरफ अनुशासन का माहौल होने" की वजह से लोग काफी खुश हैं. उन्हें TINA - There Is No Alternative (मेरा कोई विकल्प नहीं है) फैक्टर पर भी काफी भरोसा था. वो इस बात का अंदाजा लगाने में पूरी तरह चूक गईं कि नसबंदी और झुग्गी-झोपड़ियों को तबाह करने जैसे सरकार के जोर-जबरदस्ती भरे कदमों के खिलाफ देश के ग्रामीण इलाकों में कितना गुस्सा उबल रहा है. नतीजा ये हुआ कि चुनाव में उनका पूरी तरह सफाया हो गया. यहां तक कि वो खुद अपनी सीट पर भी राज नारायण जैसे मसखरे किस्म के नेता से हार गईं और उनके बेटे संजय को अमेठी जैसे पारिवारिक गढ़ में भी हार का सामना करना पड़ा. जनता का वो फैसला बड़ा कठोर था.

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अब बात करते हैं 2004 के अटल बिहारी वाजपेयी की. एक बार फिर से TINA फैक्टर की वजह से वो अपराजेय नजर आ रहे थे लेकिन तभी उन्होंने शहरी जीवन की छोटी-मोटी खुशियों (मसलन मोबाइल फोन की सुविधा) का जश्न मनाने वाले "इंडिया शाइनिंग" यानी "भारत उदय" कैंपेन को लॉन्च करने की गलती कर डाली. जिस पर कम आमदनी और जड़ता भरे जीवन में फंसे भारत के गरीबों ने एक बार फिर रौद्र रूप दिखाया. वाजपेयी को "अनुभवहीन" सोनिया गांधी की अगुवाई वाली "चेहरा विहीन" कांग्रेस के हाथों करारी हार का सामना करना पड़ा. अचानक ही TINA फैक्टर TIAA - There Is An Alternative (एक विकल्प मौजूद है) में तब्दील हो गया !

आज भी चौंकाने की हद तक वैसा ही कुछ हो रहा है और लगता है, हमारे वक्त के सबसे ताकतवर राजनेता से भी शायद आसमान में उठते धुएं के बादलों को पहचानने में चूक हो रही है. हां, एक बात इंदिरा और अटल के जमाने से अलग है, और वो ये कि इस बार तीनों फैक्टर एक साथ मौजूद हैं - TINA में गफलत भरा यकीन, वक्त से पहले जश्न और जबरदस्ती करने वाली सरकार.

क्या भारत के गरीबों का उदय हो रहा है ?

क्या आपने प्रधानमंत्री मोदी का "साफ नीयत, सही विकास" वाला कैंपेन देखा है? इसमें गांव के दमकते चेहरों पर खूबसूरत मुस्कान तैरती नजर आती है, जो घर, बेहतरीन शिक्षा, बिजली, बैंक खाते और धुआं रहित रसोई गैस सिलेंडर मुहैया कराने के लिए मोदी को धन्यवाद दे रहे हैं. सच कहें, तो ये कैंपेन वाजपेयी के "इंडिया शाइनिंग" वाले वीडियो से भी ज्यादा नुकसानदेह साबित हो सकता है. यहां भारत के गरीब चमक उठे हैं ! क्या हुआ अगर खेतों से आमदनी नहीं हो रही, नौकरियां नहीं हैं, अपराध बढ़ते जा रहे हैं, नस्लीय हिंसा हो रही है, सामाजिक दरारें बढ़ रही हैं, बच्चे कुपोषण के शिकार हो रहे हैं, आबादी में महिलाओं का अनुपात घटता जा रहा है...इन सब बातों पर ध्यान मत दीजिए, सिर्फ एक दूसरे का हाथ पकड़कर घेरा बनाइए और एक हरे-भरे खूबसूरत गांव में रिंगा-रिंगा-रोजेज गाइए. क्या कहा?

आपको ईको चैंबर याद आ रहा है?

ये बात बिलकुल साफ है कि देश का राजनीतिक संतुलन बदल रहा है, हालांकि भूकंप का रिक्टर स्केल पर दर्ज होना अभी बाकी है लेकिन प्रधानमंत्री मोदी के 48 महीनों के कार्यकाल को अगर तीन बिलकुल अलग-अलग दौर में बांटकर देखें, तो उथल-पुथल साफ नजर आएगी:

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पहला दौर : मई 2014 से 2017 तक, करीब 36 महीनों का वक्त ऐसा था, जब हैरान करने वाली ऊर्जा से भरे, बातूनी और हर जगह नजर आने वाले नेता के प्रति लोगों का लगाव लगातार बढ़ रहा था. इसकी चरम परिणति पहले नोटबंदी और फिर उत्तर प्रदेश की जबरदस्त जीत में देखने को मिली.

दूसरा दौर : जून से दिसंबर 2017 तक करीब 6 महीने का वो दौर, जब लोकप्रियता का ऊपर की ओर चढ़ते ग्राफ में ठहराव आ गया और शंकाओं के बादल घिरने लगे.

तीसरा दौर : दिसंबर 2017 से मई 2018 के वो 6 महीने, जब शासकों की लोकप्रियता का थमा हुआ ग्राफ, धीरे-धीरे तेज होती रफ्तार से नीचे गिरने लगा, और राहुल गांधी की कांग्रेस और कुछ क्षेत्रीय नेताओं के ग्राफ साफ-साफ ऊपर की ओर बढ़ते नजर आने लगे.

आइए अब इनमें से हरेक दौर को थोड़ा और गहराई से देखते हैं...

पहला दौर : 36 महीने का बिंदास हनीमून

प्रधानमंत्री मोदी से कोई गलती हो ही नहीं सकती थी. वो हर जगह मौजूद थे, राजपथ पर बराक ओबामा को गले लगाते, मैडिसन स्क्वायर गार्डन्स में एनआरआई भारतीयों को जोश से भरते, योग करते, सड़कों पर सफाई करते, साबरमती के किनारे शी जिनपिंग को अपने व्यक्तित्व से सम्मोहित करते, पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक करते और चुनाव के मैदान में लगातार जीत का अश्वमेध रथ दौड़ाते. हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड, असम, जम्मू....वो हर जगह जीतते चले जा रहे थे. दिल्ली और बिहार में उन्हें हार का सामना जरूर करना पड़ा, लेकिन उसे चौतरफा जीत के जयकारों के बीच इक्का-दुक्का स्थानीय अपवाद मानकर दरकिनार कर दिया गया.

और फिर मोदी ने अपना सबसे दुस्साहसिक राजनीतिक कार्ड खेला - नोटबंदी ! लोगों के पास मौजूद 86% कैश बेकार हो गया, आम लोगों को भारी चोट पहुंची और तभी मोदी ने दिखाया कि वो किस राजनीतिक धातु के बने हैं. उन्होंने लोगों की तकलीफों को सफाई के महायज्ञ में तब्दील कर दिया. ईश्वर से डरने वाली भारतीय जनता ने बिना कोई सवाल किए ये मान लिया कि दुनिया से बुराई को खत्म करने के लिए उन्हें तकलीफ उठाकर त्याग तो करना ही होगा. यहां "बुराई" का मतलब था "वो अमीर आदमी, जिसके पास पाप से कमाया हुआ काला धन है."

गरीबों ने अपने दर्द को भुलाकर मोदी के साहस के लिए उनकी तारीफ की. कुछ समय के लिए तो उनकी अमीर-विरोधी छवि उसी तरह दमदार नजर आने लगी, जिस तरह 1960 के दशक के अंतिम दौर में बैंकों के राष्ट्रीयकरण और रजवाड़ों के विशेषाधिकारों का खात्मा करने के बाद इंदिरा गांधी की गरीब-समर्थक इमेज चमकने लगी थी. उसके बाद जैसे 1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी की आंधी चली थी, वैसे ही मोदी ने नोटबंदी के 4 करीब महीने बाद हुए उत्तर प्रदेश के चुनाव में अपने राजनीतिक विरोधियों का सफाया कर डाला.

ये प्रधानमंत्री मोदी की चुनावी राजनीति का चरम उत्कर्ष था, जब वो हर लिहाज से राजनीति के शिखर पर दिखाई दे रहे थे.

दूसरा दौर : जून-दिसंबर 2017, आशंकाओं के बादल

नोटबंदी के इर्द-गिर्द लिपटा दैवीय आवरण जल्द ही उतरना शुरू हो गया. लोगों ने देखा कि अमीर तो उस माल के साथ साफ बच निकले, जिसे पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने "बड़े पैमाने की लूट" कहा. दलाल, बैंक मैनेजर, काला धन सफेद करने वाले एजेंट, ज्वैलर्स, बेशर्म शोरूम मालिक  - जिसे देखो वही बेकार हो चुके नोटों को बदलने के लिए 30 से 50% तक कमीशन खाने में लगा था. जल्द ही सिस्टम में फिर से कैश की भरमार हो गई. 2000 के नोटों की गड्डियों ने काला धन सफेद करना अब और भी आसान कर दिया था. बाकी सबके लिए तो सबकुछ पहले जैसा हो गया था, लेकिन अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले गरीब बर्बाद हो चुके थे. स्वाभाविक है कि अब उनमें गुस्सा भरने लगा था.

और तभी चाबुक की एक और मार पड़ी - जल्दबाजी में लागू किया गया GST यानी गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स. एक बार फिर से अनौपचारिक अर्थव्यवस्था पर गाज गिरी, जो नए सिस्टम की जटिलताओं से निपटने और बड़े खरीदारों को इनपुट क्रेडिट दे पाने की स्थिति में नहीं थी. नौकरियां खत्म हो गईं, काम-धंधे में लगने वाली पूंजी टैक्स में फंस गई, जिसका वाजिब रिफंड तक नहीं मिल रहा था. सिस्टम की खामियों ने लघु उद्योग क्षेत्र को ठप कर दिया. दोहरा टैक्स खत्म होने से बड़ी कंपनियों की चांदी हो गयी लेकिन कम आमदनी वाले लोग ठगा हुआ महसूस करने लगे, फिर चाहे वो कामगार हों या छोटे ट्रेडर. उनका गुस्सा अब कई गुना बढ़ चुका था.

लोगों की इस तकलीफ को और बढ़ाने का काम किया, उस बेहद मूर्खतापूर्ण कानून ने जो मवेशियों को काटने पर रोक लगाने के लिए बनाया गया. छोटे किसानों, दलितों, मुसलमानों, चमड़े की प्रोसेसिंग करने वालों, बूचड़खानों - यानी भारत के गांवों की अर्थव्यस्था के ज्यादातर हिस्सों की आमदनी और तेजी से गिरने लगी. बेकार हो चुके मवेशी छुट्टा छोड़ दिए गए, जो फसलों को नुकसान पहुंचाने लगे, सड़कें जाम करने लगे. इससे भी बुरा ये हुआ कि ऊंची जातियों के आक्रामक गिरोहों ने इन असहाय लोगों पर हिंसक हमले शुरू कर दिए. इन गिरोहों को सरकार द्वारा प्रायोजित नहीं, तो उसकी मौन सहमति प्राप्त तो जरूर कहा जा सकता है.

गांवों पर टूट पड़ा तकलीफों का ये पहाड़ किसी बारूद के ढेर की तरह फट पड़ने और राजनीतिक बदला लेने का इंतजार कर रहा था.

तीसरा दौर : गुजरात चुनाव के बाद मोदी के ग्राफ में गिरावट, राहुल की कांग्रेस और क्षेत्रीय नेताओं का उभार

गंगा नदी के बहाव (अरे...रे..सॉरी, मोदी के चुनावी ग्राफ) में मोड़ गुजरात के विधानसभा चुनाव से आना शुरू हुआ. दिलचस्प बात ये है कि ये चुनाव दिसंबर 2017 में राहुल गांधी को पूरी तरह से कांग्रेस अध्यक्ष (कार्यकारी नहीं) बनाए जाने के साथ ही साथ हुआ.

मैं जानता हूं कि राहुल गांधी की धज्जियां उड़ाना, बुद्धिजीवियों का फैशन बन चुका है, लेकिन मैं ये बात खुलकर कहना चाहता हूं - उन्होंने पिछले 6 महीनों में कई जोखिम भरे फैसले लिए हैं और मोदी के ग्राफ में आई गिरावट का श्रेय काफी हद तक उन्हें दिया जाना चाहिए.

यहां मैं प्रधानमंत्री की ट्रेडमार्क स्टाइल में अनुप्रास अलंकार के इस्तेमाल की छूट लेना चाहूंगा. तो ये रहे राहुल के 5S :

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1. Spunk (दिलेरी) - उन्होंने खुद सामने आकर गुजरात चुनाव अभियान का पूरी ताकत से नेतृत्व करने का साहस किया और शेर को उसकी मांद में घुसकर न सिर्फ ललकारा, बल्कि उसे करीब-करीब निपटा ही डाला. उन्होंने चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया पर महाभियोग चलाने के मामले में याचिका दाखिल करने जैसे असाधारण फैसले को हरी झंडी भी दिखाई.

2. Savvy (सूझबूझ) - राहुल ने डिजिटल वर्ल्ड में देर से कदम रखा, लेकिन अब वो मोदी को हर कदम पर मात दे रहे हैं और राजनीतिक तौर पर, “जीतने लायक 300 लोकसभा सीटों” पर खास जोर लगाने का उनका फैसला एक असरदार और व्यावहारिक रणनीति है. वो इस पुरानी और घिसी-पिटी लकीर को पीटने में नहीं फंसे कि “हमारी कांग्रेस पार्टी 130 साल पुरानी है, हम एक राष्ट्रीय दल हैं, इसलिए हम सभी 543 सीटों पर लड़ेंगे.” “2019 के सेमीफाइनल में” 50% स्ट्राइक रेट के साथ 300 सीटों पर जोर लगाना ज्यादा बेहतर रणनीति है, बजाय इसके कि अपनी ताकत को उन तमाम सीटों पर बिखेर दिया जाए, जहां अब कांग्रेस का कोई असर नहीं रह गया है.

3. Secure (निडर और आत्मविश्वास से भरे) - वो अपनी भूमिका में काफी निडर और आत्मविश्वास से भरे नजर आते हैं. तभी उन्होंने अमरिंदर, सिद्धू, सिद्धारमैया, शिवकुमार, कमलनाथ, गहलोत, आजाद, चांडी और दूसरे कई बड़े नेताओं को महत्वपूर्ण भूमिका निभाने और बड़े फैसले लेने का पूरा अधिकार दे रखा है.

4. Scions/stars (नेतापुत्र/सितारे) - अखिलेश, तेजस्वी, जयंत चौधरी जैसे अन्य राजनीतिक उत्तराधिकारियों और हार्दिक, जिग्नेश जैसे तमाम उभरते सितारों के साथ राहुल का तालमेल काफी बढ़िया है. अपने बुजुर्गों से विरासत में मिले राजनीतिक संबंधों की पारंपरिक कटुता और संदेह से उलट, इन युवा नेताओं के आपसी संबंध काफी सकारात्मक ऊर्जा से भरे दिखते हैं.

5. Stoop (लचीलापन) - कर्नाटक में राहुल ने खुद पीछे रहकर सरकार बनाने का महत्वपूर्ण फैसला जिस तेजी के साथ लिया, उसके बाद से वो “झुककर मैदान जीतने” की असाधारण इच्छा दिखा रहे हैं. उनका ये रुख “हम इंडियन नेशनल कांग्रेस हैं और इसलिए शासन करना हमारी नियति है” वाले सख्त और अड़ियल रवैये से काफी अलग है. यहां एक बार फिर से वो जीतने की इच्छाशक्ति दिखा रहे हैं, भले ही इसके लिए उन्हें  फिलहाल कुछ कदम पीछे हटना पड़ रहा हो.

तो 2019 का लोकसभा संग्राम देखने के लिए तैयार हो जाइए. अब ये मुकाबला एकतरफा नहीं रहा !

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