हम, भारतवर्ष के हिंदू शपथ लेते हैं कि हम देश को बहुसंख्यक गणतंत्र बनाएंगे और सभी नागरिकों की रक्षा करेंगे
न्याय, हिंदू तो आतंकवादी हो ही नहीं सकते, इसलिए उनके खिलाफ कभी आतंकवाद का मुकदमा नहीं चलेगा
स्वतंत्रता, मुस्लिम बहुल क्षेत्रों से हिंदुओं को चुनाव लड़ने की इजाजत नहीं होगी
भाईचारा, कुछ ऐसा होगा कि हिंदू जागृत होंगे और मुस्लिमों का दमन करेंगे
31 मार्च 2019 को वर्धा की इस संविधान सभा में हम इस संविधान को स्वीकार और लागू करने की सहमति देते हैं
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वर्धा में इस नई प्रस्तावना की वकालत करते वक्त उन जवाहर लाल नेहरू (हैरान न हों) को जोरशोर से खारिज किया, जिन्होंने 13 दिसंबर 1946 की संविधान सभा के लिए प्रस्तावना तैयार की थी और उसे पेश किया था. उनसे प्रेरित होकर ही भीमराव आंबेडकर ने प्रस्तावना को ‘जीने का तरीका कहा था, जिसमें स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारे को जीवन के सिद्धांत बताया गया था और जो एक दूसरे से अलग नहीं हो सकते थे.’
खैर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 31 मार्च 2019 को अलग ही मूड में थे. उन्होंने ‘बहुसंख्यकों के दबदबे वाली लोकसभा सीट से भागकर’ राहुल गांधी की ‘ऐसे क्षेत्र में पनाह' लेने के लिए आलोचना की, जहां 'बहुसंख्यक, अल्पसंख्यक हैं.’ वह राहुल के केरल के वायनाड से चुनाव लड़ने की तरफ इशारा कर रहे थे.
मोदी इशारा कर रहे थे कि गांधी ने ऐसा करके खुद को नीचे गिराया है और अल्पसंख्यकों के हितों से जुड़कर ईशनिंदा की है. शायद वह कह रहे थे कि अगर आप मुस्लिमों के समर्थन से चुनाव जीतते हैं तो आप ‘अच्छे हिंदू नेता’ नहीं हैं. मैं मोदी का यह बयान सुनकर सन्न रह गया. क्या हम 1909 में जी रहे हैं? क्योंकि इस बयान से मोदी ने अलग निर्वाचन क्षेत्र का जिन्न बोतल से बाहर निकाला था. उनके कहने का मतलब यह था कि हिंदुओं को सिर्फ हिंदू नेताओं को जिताना चाहिए और मुस्लिमों को सिर्फ मुस्लिम नेताओं को चुनना चाहिए. क्या वह भूल गए थे कि इसी वजह से देश को 1947 में खूनी बंटवारे का दर्द सहना पड़ा था.
इंडियन काउंसिल एक्ट, 1909
महात्मा गांधी का दौर शुरू होने से पहले 1909 में आजादी का आंदोलन शुरुआती शक्ल ले रहा था. तब शहजादा आगा खान ने एक खतरनाक आइडिया पेश किया था, जिसके पीछे अंग्रेज आकाओं की ‘बांटो और राज करो’ वाली सोच थी. नवाब मोहसिन-उल-मलिक के साथ मिलकर उन्होंने शिमला में लॉर्ड मिंटो को आवेदन दिया कि मुसलमानों को सरकार में हर स्तर पर अलग और विशेष प्रतिनिधित्व दिया जाए. इन्हीं दोनों महानुभावों की वजह से मुस्लिम लीग का जन्म हुआ और 1909 में इंडियन काउंसिल एक्ट पास हुआ. इसमें सांप्रदायिक आधार पर चुनाव का सिद्धांत स्वीकार किया गया था कि मुस्लिम सिर्फ मुसलमान जनप्रतिनिधियों को चुनने के लिए वोट डालेंगे और उनके लिए खास सीटें तय की जाएंगी.
गांधी और जिन्ना के बीच ऐसी दरार पड़ी, जो कभी पाटी न जा सकी
कुछ दशक बाद ‘अलग निर्वाचन क्षेत्र’ गांधी और जिन्ना के बीच ऐसी दरार बन गए, जो कभी पाटी न जा सकी और इसी से आगे चलकर पाकिस्तान का जन्म हुआ. जिन्ना के मशहूर ‘1929 के 14 बिंदुओं’ में जो बातें कहीं गई थीं, उनमें नीचे दी गई बातें भी शामिल थीं:
- केंद्रीय सभा में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व एक तिहाई से कम नहीं होगा.
- देश भर में अलग-अलग विधायिकाओं और संस्थाओं में, जिनके प्रतिनिधियों का फैसला चुनाव से होता है, उनका बंटवारा हिंदू और मुसलमान निर्वाचन क्षेत्रों के रूप में होना चाहिए. इसके साथ हम सरकार से अपील करते हैं कि 1909 में मुसलमानों को अलग निर्वाचन क्षेत्रों का जो अधिकार दिया गया था, वह उसे तब तक न छेड़े, जब तक कि मुसलमान उसे खुद खत्म करने का फैसला न कर लें. मुसलमान संयुक्त निर्वाचन क्षेत्र के लिए राजी नहीं होंगे.
कांग्रेस जिन्ना की मांगों से सहमत नहीं थी, जिसका पता 1928 की नेहरू की रिपोर्ट से चलता हैः
अधिकतर लोग आज मानते हैं कि अलग निर्वाचन क्षेत्र का विचार बुरा है और इसे खत्म कर देना चाहिए. हमें पता है कि मुसलमान इसे विशेष अधिकार मानते हैं, लेकिन उनमें से बड़ा वर्ग दूसरी सुविधाओं के लिए इसे छोड़ने को तैयार है. सबको पता है कि अलग निर्वाचन क्षेत्र राष्ट्रीय भावना में बाधक हैं, लेकिन इस बात को बहुत कम लोग समझते हैं कि यह अल्पसंख्यक समुदाय के लिए भी उतना ही बुरा है. इससे बहुसंख्यक समुदाय पूरी तरह से अल्पसंख्यक समुदाय से कट गया है और अक्सर उसका वोट अल्पसंख्यकों के खिलाफ होता है. अलग निर्वाचन क्षेत्र बने रहे तो अल्पसंख्यकों को हमेशा नाराज बहुसंख्यक वर्ग का सामना करना पड़ेगा, जो सिर्फ संख्या बल से अल्पसंख्यकों की ख्वाहिशों का दमन कर देगा. अगर हम जनप्रतिनिधित्व के लिए बेहतर व्यवस्था बनाना चाहते हैं तो अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों की व्यवस्था को खारिज करना होगा. देश में सिर्फ साझा या मिले-जुले निर्वाचन क्षेत्र ही होने चाहिए.
मौलाना अबुल कलाम आजाद से भी सीख सकते हैं पीएम मोदी
मैं यहां इतिहास का ऐसा अंश पेश कर रहा हूं, जो प्रधानमंत्री मोदी के लिए दोधारी तलवार जैसा सबक है. मोदी इसे कांग्रेस के मुसलमानों के तुष्टीकरण की एक और मिसाल बता सकते हैं, लेकिन इससे वर्धा/वायनाड पर उन्हें अपनी गलती का अहसास भी होगा.
1952 में जब आजाद भारत में पहले आम चुनाव हो रहे थे, तब प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने दिग्गज नेता और शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद से उत्तर प्रदेश के रामपुर से चुनाव लड़ने को कहा. मौलाना ने पूछा कि रामपुर क्यों? नेहरू ने बिना लाग-लपेट के कहा कि रामपुर मुस्लिम बहुल क्षेत्र है, इसलिए वहां से वह आसानी से जीत जाएंगे. इस पर मौलाना ने नेहरू की बात काटते हुए कहा, ‘मैं भारत का नेता हूं, मुसलमानों का नहीं.’ काश ऐसा होता कि मोदी की कैबिनेट का कोई सहयोगी उनसे यह कहने की हिम्मत करता, ‘वायनाड वाले मुद्दे को जाने दीजिए. आखिर वहां से एक भारतीय सांसद ही चुना जाएगा, कोई हिंदू या मुस्लिम या सिख या ईसाई नहीं.’
अगर कुछ न समझ आए तो शिकागो से सीखिए
चलिए, मैं अपनी गलती मान लेता हूं कि कांग्रेस के इतिहास से नरेंद्र मोदी को प्रभावित करना मुश्किल है. यह फिजूल की मेहनत है. लेकिन शिकागो का क्या? यह उस देश का किस्सा है, जो मोदी को रॉकस्टार का दर्जा देता है. हमारे प्रधानमंत्री को भी अमेरिकियों को गले लगाना पसंद है.
मोदी की भाषा में कहें तो शिकागो बहुसंख्यकों का निर्वाचन क्षेत्र है.
यहां की 40 फीसदी आबादी श्वेत है, लेकिन पिछले हफ्ते हुए मेयर के चुनाव में यहां शानदार इतिहास रचा गया. मेयर के लिए शिकागो में मुकाबला दो अश्वेत महिलाओं के बीच था. चुनाव में कोई श्वेत पुरुष या महिला उम्मीदवार तक नहीं थे. मुकाबला टोनी प्रीचविंकल और लोरी लाइटफुट के बीच था. वह अल्संख्यकों में अल्पसंख्यक और उसमें भी अल्पसंख्यक हैं. वह गे ब्लैक वुमन हैं. क्या आप अंदाजा लगा सकते हैं कि शिकागो का मेयर किसे चुना गया? जी हां, लोरी लाइटवुड ने दो तिहाई वोट पाकर कभी न भूलने वाला इतिहास बनाया.
अगर किसी लोकतंत्र में अल्पसंख्यकों के सशक्तिकरण की कोई मिसाल हो सकती है तो शिकागो ने पिछले हफ्ते उसे साबित कर दिया.
मैं चाहता हूं कि हमारे प्रधानमंत्री भी शिकागो से सबक सीखते हुए बिहार के किशनगंज से सांसद चुने जाएं, जहां देश में मुस्लिम वोटरों की सबसे ज्यादा संख्या है. भारत की असल प्रस्तावना के लिए इससे अनोखा जश्न कुछ नहीं हो सकता.
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