रणदीप हुड्डा (Randeep Hooda) कॉमेडियन नहीं. उनकी बात को कौन गंभीरता से लेता है. लेकिन कहने को वो कह गए, जो उन्हें कहना था. मायावती पर सेक्सिस्ट जोक मार दिया. मायावती, उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रही हैं, उनकी जाति आप जानते ही हैं. इसके बावजूद रणदीप मजाक कर गए. लोग हंस भी दिए. जोक्स का क्या है... करके भुला दिए जाते हैं. अक्सर लोग कहते हैं, जोक्स को जोक्स की तरह लेना चाहिए. लेकिन ऐतराज जोक पर नहीं, उसके कंटेंट पर है. रणदीप के जोक का कंटेंट कास्ट है, और कास्ट को लेकर जोक्स और कमेंट्स की भरमार है.
वैसे मायावती पर जोक करना कोई नई बात नहीं. इससे पहले अतुल खत्री और अबीश मैथ्यू जैसे कॉमेडियन उनका मजाक उड़ाते हुए ट्वीट कर चुके हैं. ऐसा मजाक किसी अपरकास्ट नेता के साथ नहीं किया जा सकता. लोग हंसेंगे ही नहीं. निवेल शाह जैसे स्टैंडअप कॉमेडियन आरक्षण और कोटा को अपना कंटेंट बना चुके हैं. युवराज सिंह, सलमान खान, मूनमून दत्ता, युविका चौधरी जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल कर चुके हैं. यह फेहरिस्त लंबी है, और हो सकता है कि इसमें किसी का नाम आने से छूट गया हो. लेकिन यह आम है.
जाति हमारे भीतर इतना गहरी पैठी है कि हम परवाह भी नहीं करते. अक्सर इरादतन उनसे जुड़ी टिप्पणियां करते हैं, क्योंकि यह हमारी साइकी का हिस्सा है.
मजाक हमारी साइकी का हिस्सा होता है
मजाक सिर्फ मजाक नहीं होता. बेशक, यह हमारी साइकी का हिस्सा होता है. किसी खास कद काठी वाले व्यक्ति, किसी औरत, किसी जाति के खिलाफ हमारी टिप्पणियां, हमारी अवधारणा को लेजिटिमाइज करने का तरीका होती हैं. आप औरतों की खराब ड्राइविंग पर लतीफा बनाते आ रहे हैं. अब हालत यह है कि देश में 22 लाख टैक्सी ड्राइवरों की कमी होने के बावजूद औरतें इस पेशे से दूर ही रहती हैं. खुद मानकर चलती हैं कि ड्राइविंग उनके बस की बात नहीं. स्टेटस क्यू बना रहता है. मुटियाए लोग पतले होने की दवाइयां खाते रहते हैं. सांवले लोग गोरेपन की क्रीम लगाते रहते हैं. किसी खास जाति के लोगों को लगता है कि उनका उत्पीड़न इतना भी बुरा नहीं. इस बीच हम चोर दरवाजों से अपनी सोच पर अमल करते रहते हैं.
इटैलियन थ्योरिस्ट और राजनीतिज्ञ अंतोनियो ग्राम्शी ने जिस ‘हेजेमनी’ की बात कही थी, यह उससे अधिक कुछ नहीं. जब हम किसी व्यक्ति को शारीरिक रूप से बलपूर्वक कुछ करने को विवश नहीं करते. वह अपने आप ही हमारे इशारों पर नाचता रहता है.
बेशक, ‘हेजेमनी’ जैसे शब्द का अर्थ सत्ताधारी वर्ग और जनता पर उसके नियंत्रण के कॉन्सेप्ट पर आधारित था. लेकिन यहां भी हम उसी हेजेमनी को काम करते देखते हैं. कास्ट पर जोक्स के बाद दर्शक को लगता है कि उनकी तरफ से किया जाने वाल उत्पीड़न इतना भी बुरा नहीं. ह्यूमर उसे सही ठहराता रहता है. दरअसल ह्यूमर यहां उस हेजेमनी का ईजी टूल बन जाता है.
कॉमेडी करने वाले कौन हैं, अपर कास्ट के ही
स्टैंडअप कॉमेडी और कास्ट पर बहुत काम हुआ है. मैसाच्युसेट्स रिव्यू में पीटर फार्ब जैसे स्कॉलर ने 1981 में एक पेपर लिखा था- स्पीकिंग सीरियसली अबाउट ह्यूमर... उसमें उन्होंने कहा था कि ह्यूमर एक सोशल एक्ट होता है. वह सामाजिक संरचना के भीतर, उसे मजबूत करते हुए तनाव से मुक्ति दिलाता है. लोगों को एक इन-ग्रुप भावना से भरता है. एक ग्रुप में कॉमेडियन होता है, दूसरे में दर्शक. बाकी के लोग इन ग्रुप्स से बाहर होते हैं.
जब अपर कास्ट कॉमेडियन स्टेज पर कास्ट की बात करता है, तो उस पर वही हंस सकता है जो उसी ग्रुप का हिस्सा हो. यानी, आपकी कास्ट का ही हो. वही किसी कास्ट पर किए जाने वाले मजाक पर ठहाके लगा सकता है. जो उन सभी सामाजिक और सांस्कृतिक प्रतीकों से वाकिफ है, वही उस जोक पर हंस सकता है. राजनीतिक व्यंग्यकार हैं और स्टैंड-अप कॉमेडियन संजय राजौरा ने सोशल मीडिया पर आयोजित एक इवेंट में कहा था, आपका महंगा टिकट लेकर आने वाला कौन है, आप जानते हैं. ये लोग उसी जोक पर हंसेंगे जो उनकी जैसी सोच को पुख्ता करेगा.यानी कॉमेडियन और दर्शक, दोनों की कास्ट एक ही है, और वह है अपर कास्ट.
जिसे पंचिंग अप, या पंचिंग डाउन कहा जाता है. यानी लतीफे की सांस्कृतिक ताकत का पलड़ा किस तरफ झुका हुआ है. ताकतवर कमजोर का मजाक उड़ा रहा है, या कमजोर ताकतवर की सत्ता को चुनौती दे रहा है. मजाक या ह्यूमर रुचिकर हो सकता है, जब किसी कमजोर को आधार न बनाए. वह मजेदार तब होता है, जब पंच नीचे से ऊपर की तरफ हो, ऊपर से नीचे की ओर नहीं. यह परिहास की सबसे परिपक्व स्थिति होती है जिसे हम सटायर यानी प्रहसन करते हैं.
जाति सभी को जानती है
जातिगत टिप्पणियां इतनी आसानी से क्यों की जाती हैं, क्योंकि जातिगत पूर्वाग्रह हमारे भीतर इंटरनलाइज हैं. फिर एक्सिडेंटल कास्टिज्म यानी अकस्मात जातिवादी टिप्पणी करना भी जातिवाद को ही पोषित करता है. फिर कॉमेडी/जोक या फिर अनायास की गई टिप्णपियां जातिगत श्रेष्ठता और उसके अंहकार का ही नतीजा हैं.
मजाक भले एक व्यक्ति (यहां आप मायावती या किसी भी दूसरे शख्स को रख सकते हैं) का उड़ाया गया हो, लेकिन उस जोक के केंद्र में रहने वाले व्यक्ति की पहचान, जाति आधारित हो या जेंडर आधारित, ही उसके साथ होने वाले मजाक का कारण बनती है. तभी उसका निशाना सिर्फ वह व्यक्ति नहीं होता, उसका पूरा समाज, उसका अस्तित्व होता है. चूंकि पूर्वाग्रह इतने गहरे हैं कि स्वतः उभरकर आने लगते हैं.
इसकी एक बानगी पिछले दिनों देखने को मिली, जब पश्चिम बंगाल के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग ने कोविड-19 पॉजिटिव मृत मरीजों की अंतिम क्रिया के लिए खास ‘डोम’ जाति के लोगों को नौकरी देने के आदेश दिए. इस काम के लिए उनके लिए मॉर्चरी के पास अलग से कमरे बनाने का आदेश भी दिया गया और उन कमरों को नाम दिया गया- ‘डोम रूम्स.’ इसके अलावा बेंगलुरु से यह खबर मिली है कि शहर के हर शमशान में काम करने वाले लगभग सभी लोग दलित हैं. पेशे से जाति को जोड़ने की इस परंपरा का क्या जाति भेद से कोई रिश्ता नहीं है?
यूं रणदीप और दूसरे लोगों के जोक्स का विरोध करने वाले बहुत से हैं.लेकिन दिक्कत यह है कि सुअर के साथ कीचड़ में जीतना बहुत मुश्किल है- चूंकि उसे कीचड़ में भी मजा आने लगता है. यह मार्क ट्वेन समझा गए हैं. कॉमेडी का मार्केट भी तो कीचड़ में आनंद तलाशने में माहिर है.
(माशा लगभग 22 साल तक प्रिंट मीडिया से जुड़ी रही हैं. सात साल से वह स्वतंत्र लेखन कर रही हैं. इस लेख में दिए गए विचार उनके अपने हैं, क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)