अपने देश में आरक्षण को लेकर किसी न किसी क्षेत्र में आग सुलगती रहती है. कभी कोई जाति अपने को पिछड़ा बताकर आरक्षण की मांग करती है, तो कभी कोई और. अलग-अलग राजनीतिक दल वोटों के चक्कर में इसका समर्थन करते हैं. अब आरक्षण कमजोरों के लिए नहीं रहा, बल्कि जो जातियां दबंग हैं और संख्या बल की वजह से सरकार को झुका सकती हैं, उनकी मांगों को सरकार मानती है या उन पर विचार करती है.
आर्थिक आधार पर आरक्षण संभव नहीं
महाराष्ट्र में एक बार फिर मराठा आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन तेज हो गया है. हालांकि मराठा क्रांति मोर्चा ने आंदोलन के हिंसक होने के बाद आंदोलन वापस ले लिया है और इससे हुए नुकसान के लिए लोगों से माफी भी मांगी है. लेकिन इससे यह आग बुझने वाली नहीं है. कुछ अन्य दबंग जातियां- हरियाणा में जाट, राजस्थान में गुर्जर और गुजरात में पटेल, आरक्षण के लिए समय-समय पर आंदोलन करते रहे हैं.
इसके अलावा ऊंची जातियों की ओर से भी आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग लगातार होती रही है और कई दलित और पिछड़े नेता भी इसका समर्थन करते हैं. मगर ऐसा कभी संभव नहीं होगा, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से नीचे रखी है और फिलहाल 49.5 प्रतिशत आरक्षण लागू है. दलितों-आदिवासियों या पिछड़ों के कोटे से एक हिस्सा काटकर कोई सरकार आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का साहस नहीं करेगी.
सरकारी नौकरियां पाने की चाहत में अपने को पिछड़ा साबित करने की होड़ तेज हो गई है. भारत में हर जाति स्वयं को पिछड़ी और समुदाय अल्पसंख्यक बताने की कोशिश कर रहा है. वंचित वर्ग को समाज की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए संविधान में प्रावधान किया गया कि सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को आगे बढ़ाने के लिए राज्य उनके लिए विशेष प्रावधान कर सकता हैं.
आरक्षण का यह प्रावधान अपवाद है, क्योंकि सिद्धांत समानता का है. संविधान का अनुच्छेद 14 सब को बराबरी और कानून के समान संरक्षण का अधिकार देता हैं. आरक्षण का औचित्य यह है कि समानता का सिद्धांत समानों के बीच लागू होता है, गैर-बराबरी वालों के बीच बराबरी का सिद्धांत लागू नहीं होता.
मंडल आयोग की सिफारिशें अहम थीं
संविधान निर्माताओं ने इसे ध्यान में रखते हुए अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की. साथ ही यह प्रावधान किया गया कि सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए राज्य आरक्षण लागू कर सकता हैं. इसी के तहत पिछड़े वर्गों को भी आरक्षण का लाभ दिया गया.
राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार इसे लागू किया 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जब मंडल आयोग की सिफारिशों को मानते हुए पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकारियों में 27 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गयी. यहां पिछड़े वर्ग का मतलब पिछड़ी जातियां थीं. इस सूची में नयी जातियों को शमिल करने की मांग लगातार उठती रहती है.
जाट आरक्षण पर विवाद
पिछले लोकसभा चुनाव के ठीक पहले केन्द्र सरकार ने जाटों को पिछड़ी जातियों की केंद्रीय सूची में शामिल कर उन्हें आरक्षण का लाभ दे दिया. तब ऐसा आरोप लगाा कि राजनीतिक लाभ के लिए केन्द्र ने यह कदम उठाया, क्योंकि इससे करीब 9 करोड़ जाटों को आरक्षण का लाभ मिलता. राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने जाटों को शामिल करने की मांग को खारिज कर दिया था.
वैसे पहले से ही जाटों को उत्तर प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, मध्य प्रदेश, बिहार, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान और उत्तराखंड में पिछड़ी जातियों के आरक्षण का लाभ मिल रहा है, लेकिन केन्द्रीय सूची में उन्हें शामिल नहीं किया गया था.
2014 में 10 से 13 फरवरी तक राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने इस मुद्ये पर जन सुनवाई की. दो दिनों तक उनको अपना पक्ष रखने को कहा गया, जो जाटों के आरक्षण के समर्थन में थे और 2 दिन इसके विरोधियों को दिया गया. सुनवाई पूरी होने के बाद आयोग ने जाटों को पिछड़ी जातियों की केन्द्रीय सूची में शामिल करने की मांग को ठुकराते हुए कहा:
‘’नृजातीय रूप से जाट ऊंचे स्तर पर हैं; वे हिंद-आर्य वंश के हैं, उनका शैक्षणिक स्तर ऊंचा है और उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा सामान्य शूद्रों के मुकाबले बहुत ऊंची है.’’
आयोग एक मत से इस नतीजे पर पहुंचा कि जाट सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े नहीं हैं. साथ ही, वे तीसरी शर्त भी पूरी नहीं करते कि सेवाओं में उनका प्रतिनिधित्व कम है.
इसके पहले 1997 में भी आयोग ने हरियाणा, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के जाटों को पिछड़े वर्गों की सूची में शामिल करने से इनकार कर दिया था. उस समय केवल राजस्थान के जाटों को पिछड़ा माना गया था, किंतु वहां भी भरतपुर और धौलपुर के जाटों को शामिल नहीं किया गया था. 2001 में दिल्ली के जाटों को इस सूची शामिल करने की मांग नहीं मानी गयी.
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पिछड़ेपन की पहचान कैसे हो?
सवाल यह है कि पिछड़ेपन की पहचान कैसे की जाए. मंडल आयोग मामले (इंदिरा साहनी) में सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने बहुमत से जाति को पिछड़ेपन का आधार माना. हालांकि अल्पमत ने इसे असंवैधानिक माना. लेकिन जाति को आधार मानने के बावजूद कोर्ट ने कहा कि व्यवसाय के आधार पर पिछड़ेपन का निर्धारण किया जा सकता हैं.
उदाहरण के लिए रिक्शा चलाने वाले, झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले और तरकारी बेचने वाले पिछड़े माने जा सकते हैं. सरकार ने इस दिशा में कोई काम नहीं किया.
जाति के आधार पर आरक्षण देने से समाज बंट रहा है. जाटों को आरक्षण देने का विरोध अन्य पिछड़ी जातियां ही कर रही थीं. उनका मानना है कि ऐसी विकसित, दबंग जाति को आरक्षण के दायरे में लाने से अन्य कमजोर जातियों को नुकसान होगा. आज मराठों को भी आरक्षण दिये जाने के खिलाफ कई पिछड़ी जातियां हैं.
संविधान का एक प्रमुख उद्येश्य राष्ट्रीय एकता और अखंडता को बनाए रखना भी है. इस पर विचार करने की जरूरत है कि जातीय आधार पर आरक्षण देने का कोई विकल्प है या नहीं.
क्या राजनीतिक फायदे के लिए आरक्षण का इस्तेमाल हो रहा है?
यह निर्विवाद है कि वर्ण व्यवस्था के कारण दलितों को शोषण का शिकार होना पड़ा और इसकी कटुतम शब्दों में आलोचना की जानी चाहिए. लेकिन स्थितियां बदली हैं. अगर 64 वर्षों में आरक्षण से कोई जाति विकास कर ही नहीं पायी तो फिर इसका औचित्य क्या है?
दलितों-पिछड़ों की सूची की कोई समीक्षा नहीं की जाती कि किस जाति का कितना विकास हुआ. 1960 के दशक में इसके लिए 'लोकुर समिति' की स्थापना की गयी, जिसने चमड़े के पेशे से जुड़े समुदाय को आरक्षण के दायरे से बाहर करने की सिफारिश की.
इस पर संसद में इतना हंगामा हुआ कि रिपोर्ट को आलमारी में बंद कर दिया गया. दलितों-पिछड़ों का आगे बढ़ाना समाज का कर्तव्य है, लेकिन क्या अभी भी आरक्षण का वही मतलब रह गया है या केवल राजनीतिक फायदे के लिए इसका इस्तेमाल किया जा रहा है?
ब्रिटिश राज ने सरकारी नौकरियों को लुभावना बनाया
सवाल यह है कि सरकारी नौकरियां इतनी आकर्षक कैसे हो गयीं? लगभग 250 साल पहले जब विधिवत रूप से ब्रिटेन का शासन भारत पर शुरू हुआ, तब भी 27 प्रतिशत विश्व व्यापार पर भारत का नियंत्रण था. लेकिन ब्रिटिश शासन के शुरू होते ही भारतीय संसाधनों की लूट का नया अध्याय प्रारंभ हुआ, जिसकी विस्तार से व्याख्या दादाभाई नौरोजी ने अपनी चर्चित किताब ‘पोवर्टी एंड अन-ब्रिटिश रूल इन इंडिया’ में किया है.
नौरोजी ने 6 कारणों का जिक्र किया है जिनके चलते भारतीय सम्पदा को लूट कर ब्रिटेन ले जाया गया. इनमें एक कारण था कि व्यवस्था और नौकरशाही पर खर्च बहुत ज्यादा था. दरअसल, ब्रिटिश अधिकारियों के वेतन इतने ज्यादा थे, जिसकी कल्पना करना मुश्किल है.
1773 का रेग्युलेटिंग एक्ट भारत में संविधान-निमार्ण की दिशा में पहला कदम था. इसी अधिनियम के तहत बंगाल में सुप्रीम काउंसिल का गठन किया गया, जिसमें गवर्नर-जनरल और चार काउंसलर होते थे. उनके जो वेतन निश्चित किये गये वह अकल्पनीय है. गर्वनर-जनरल की तनख्वाह 25,000 पाउंड सालाना थी, जबकि काउंसिलर की 10,000 पाउंड सालाना. यह अनुमान लगाया जा सकता है कि 1773 में इस राशि की क्या कीमत रही होगी.
सन 1861 एक महत्वपूर्ण पड़ाव है, जब इंडियन सिविल सर्विस अधिनियम पारित हुआ. इनमें से कई ने अकूत धन-सम्पदा इकट्ठा की. वायसराय काॅर्नवालिस ने भ्रष्टाचार कम करने के लिए गंभीर प्रयास किये और इसके लिए ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारियों को काफी अच्छे वेतन दिये गये. लेकिन उन्होंने एक निंदनीय परंपरा की नींव भी रखी कि किसी ऊंचे ओहदे पर किसी भारतीय की नियुक्ति नहीं होगी. कठिन संघर्ष के बाद यह प्रतिबंध खत्म हुआ और आईसीएस में भारतीयों को प्रवेश की मंजूरी मिली.
ज्योतिबा फुले और छत्रपति शाहूजी महाराज का योगदान
कोई आश्चर्य नहीं कि 1882 में ज्योतिबा फुले ने हंटर आयोग को ज्ञापन दिया कि सरकारी नौकरियों में कमजोर वर्गों को उनकी संख्या के अनुपात में आरक्षण मिले. 1902 में कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति शाहूजी महाराज ने पिछड़े वर्गों को नौकरी में 50 फीसदी आरक्षण दिया, ताकि उनकी गरीबी खत्म हो और राज्य के प्रशासन में उनकी भागीदारी हो. यह भारत में आरक्षण दिये जाने का पहला सरकारी आदेश था.
(लेखक वरिष्ठ टीवी पत्रकार, स्तंभकार और लेखक हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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