महिला सशक्तीकरण के मुद्दे पर जोर-शोर से बात करने वाली बीजेपी सरकार बहुमत में होने के बावजूद महिला आरक्षण विधेयक पास नहीं करा पाई है. ये बिल लोकसभा में 2010 से लटका हुआ है. क्योंकि 2019 के लोकसभा चुनाव में अब कुछ ही महीने बचे हैं, ऐसे में मोदी सरकार के पास संसद में चल रहे मॉनसून सत्र में महिला आरक्षण विधेयक पास कराने का आखिरी मौका है.
वहीं, देशभर के महिला संगठनों ने भी इस विधेयक को पास कराने की मुहिम तेज कर दी है और वह संसद में बराबर के दर्जा चाहते हुए सरकार से 33 फीसदी नहीं, बल्कि 50 फीसदी आरक्षण की मांग कर रहे हैं.
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के शासन काल में साल 2010 में यह विधेयक राज्यसभा में पास करा लिया गया था, लेकिन समाजवादी पार्टी, बहुजन समाजवादी पार्टी (बीएसपी) और राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) जैसी पार्टियों के विरोध की वजह से यह लोकसभा में पास नहीं हो सका था. बीजेपी सरकार ने भी पिछले चार सालों में इस विधेयक को पारित कराने की इच्छाशक्ति नहीं दिखाई है.
महिला आरक्षण विधेयक कितना जरूरी?
सेंटर फॉर सोशल रिसर्च की निदेशक डॉ. रंजना कुमारी ने बताया, "देश में महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए पहले बुनियादी स्तर पर काम करना होगा और यह महिलाओं को बराबरी का स्थान मिलने के बाद ही संभव है. हमारे प्रधानमंत्री ने 50 से अधिक देशों में घूम-घूम कर देश की छवि चमकाने की कोशिश की लेकिन महिलाओं की स्थिति के मामले में देश की छवि बदतर ही हुई है."
अगर भारत में महिलाओं को संसद में पुरुषों के बराबरी का स्थान मिल जाता है तो खुद ब खुद विश्व में भारत की छवि अच्छी हो जाएगी, इसलिए हम इस बिल को पारित कराने की मांग कर रहे हैं और अब हम 33 फीसदी नहीं, बल्कि 50 फीसदी आरक्षण की मांग करते हैं और इसे हासिल करने तक हम हमारा आंदोलन जारी रखेंगे.डॉ. रंजना कुमारी, निदेशक, सेंटर फॉर सोशल रिसर्च
वह कहती हैं, "सरकार ने भी सत्ता में आने के बाद सबका साथ सबका विकास का नारा देकर 33 फीसदी की जगह 50 फीसदी आरक्षण की बात कही थी. लेकिन अब अगर देखा जाए, तो महिलाएं पीछे छूट चुकी हैं."
क्या महिलाओं की सुरक्षा के लिए बिल जरूरी?
संयुक्त महिला कार्यक्रम (जेडब्ल्यूपी) की निदेशक और सचिव ज्योत्सना चटर्जी कहती हैं, "हाल ही एक वैश्विक रिपोर्ट में भारत को महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित जगह बताया गया था. हमारे समाज में महिलाओं की स्थिति अभी भी बहुत दयनीय है, जिसके लिए ठोस कदम उठाने की जरूरत है. संसद में अगर महिलाओं की मजबूत पैठ होगी तो उन से जुड़े मुद्दों पर भी उतनी ही मजबूती से चर्चा होगी और समाधान निकलकर आएगा."
संसद में महिलाओं की स्थिति हमारे पड़ोसी मुल्कों में ज्यादा बेहतर है. नेपाल में 29.5 फीसदी महिलाएं संसद में प्रतिनिधित्व करती हैं तो वहीं, अफगानिस्तान में यह आंकड़ा 27.7 फीसदी और पाकिस्तान में 20.6 प्रतिशत है. यह शर्मनाक बात है कि भारत में महिला सदस्यों का औसत मात्र 12 फीसदी है.सचिव ज्योत्सना चटर्जी, निदेशक, जेडब्ल्यूपी
वह आगे कहती हैं, "यह बात समझ से परे है कि इस बिल को क्यों पारित नहीं किया जा रहा है. महिला आरक्षण बिल महिला अधिकारों का मुद्दा है. आधी आबादी मांगे पूरी आजादी, यही हमारा नारा है."
‘बोलकर नहीं, कुछ करके दिखाइए, नेती जी...’
बीजेपी शासित कई राज्यों ने 12 साल से कम उम्र की बच्चियों संग दुष्कर्म करने वालों को फांसी देने का प्रावधान किया है, जिसपर रंजना कहती हैं, "इस समय दुष्कर्म के 97 हजार मामले चल रहे हैं. इन मामलों के अगर 20वें हिस्से की भी सुनवाई पूरी होती है तो आपको पांच हजार लोगों को फांसी देनी होगी. यह कहना तो बहुत आसान है कि सबको फांसी दे दो..फांसी दे दो..लेकिन इसका कार्यान्वयन बहुत मुश्किल है. इसलिए बोलकर नहीं, कुछ करके दिखाइए."
विधेयक पर उम्मीद जताते हुए निर्भया ट्रस्ट की संस्थापक आशा देवी कहती हैं, "हमें उम्मीद है कि बिल पास होने के बाद स्थिति कुछ बेहतर होगी और तब संसद में महिलाओं की आवाज बनने के लिए पहले से बड़ी महिला बहुमत होगी. आज नहीं तो कल यह बिल पास होगा. हमें इसके लिए लड़ना होगा. अगर यह पास होता है तो बहुत अच्छी बात है और अगर नहीं होता है तो हम पूरे जोश के साथ अपनी लड़ाई जारी रखेंगे."
22 साल पहले पेश किया था ये बिल
महिला आरक्षण विधेयक पहली बार 12 सितंबर, 1996 में संसद में पेश किया गया था. उस वक्त केंद्र में एच.डी देवगौड़ा की सरकार थी. इस विधेयक में संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने का प्रस्ताव है. अगर यह कानून बनता है तो संसद और विधानसभा की एक-तिहाई सीटों पर महिलाएं होंगी. इसके साथ ही इसी 33 फीसदी में एक-तिहाई सीटें अनुसूचित जाति व जनजाति की महिलाओं के लिए होंगी.
इस विधेयक के फायदों पर गौर करें, तो इससे भारत की महिलाएं ज्यादा सशक्त होंगी. लिंग के आधार पर होने वाला भेदभाव कम होगा. जमीनी स्तर पर लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होंगी. संसद मात्र पुरुष सत्ता का केंद्र भर सीमित नहीं होगा और राष्ट्रीय स्तर पर कानून बनाने में महिलाओं की भागीदारी में भी इजाफा होगा. साथ ही दुनिया में भारतीय महिलाओं का सम्मान बढ़ेगा.
(इनपुट: IANS)
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