सूचना के अधिकार बिल (आरटीआई एक्ट) में बदलाव के लिए सरकार की ओर से उठाए जा रहे कदम बेहद दुर्भाग्यपूर्ण हैं. ऐसा लगता है कि ये उसे दी गई गलत सलाह का नतीजा है. ये ऐसा कदम है कि जिससे संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) में मौजूद मौलिक अधिकारों का हनन होगा. नागरिकों को दस कैटेगरी को छोड़ कर सरकार के पास रखी हर सूचना को हासिल करने का अधिकार है. अगर पब्लिक अथॉरिटी सूचना देने से इनकार करती है तो कानून में इसका प्रावधान है कि सूचना आयोग के पास अपील की जा सके.
आरटीआई एक्ट में केंद्रीय सूचना आयुक्तों और राज्य सूचना आयुक्तों की सेवा शर्तें केंद्रीय चुनाव आयुक्तों की सेवा शर्तों जैसी ही रखी हैं. ये उनके फैसलों और अधिकार का सम्मान सुनिश्चित करने के लिए किया गया है. अब जो संशोधन सुझाया जा रहा है उसमें इसे बदलने की मंशा है. इसमें सरकार को सूचना आयुक्तों का कार्यकाल, सैलरी और सेवा शर्तें तय करने का अधिकार देने की मंशा है.
साफ है कि सरकार उनका दर्जा कम करना चाहती है और उन्हें काबू में लाना चाहती है. जब आयुक्तों (चाहे वो मानवाधिकार का मामला हो या फिर महिलाओं, बच्चों और अल्पसंख्यक आयोग के आयुक्तों को नियुक्त करने का मामला) को गैर पारदर्शी या सही तरीके से नहीं नियुक्त किया जाता है तो उनमें सरकार की मंशा पूरी करने की प्रवृति पैदा होने लगती है.
देश में कुछ सूचना आयुक्तों ने अपनी आजादी बरकरार रखते हुए ऐसे फैसले दिए हैं जो सत्ता में बैठे लोगों को रास नहीं आए हैं. अब इस कदम से लगता है कि उनकी अहमियत को कम करने की कोशिश की गई है, जिससे उन्हें पिंजरे में बंद तोता बनाया जा सके. नागरिकों तक पारदर्शिता पहुंचाने में कमिश्नरों की स्वायत्तता और स्वतंत्रता बहुत जरूरी है.
कानून में बदलाव का कोई ढंग का कारण नहीं बताया गया. आपत्ति और कारणों के स्टेटमेंट में तथाकथित कारण बताया गया है कि चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है जबकि सूचना आयोग एक वैधानिक संस्था है. इसलिए उन्हें बराबर नहीं माना जा सकता! संवैधानिक पद वो होते हैं जो देश के संविधान में तय किए गए होते हैं, वहीं वैधानिक पद की व्यवस्था संसद में कानून बनाकर की जाती है.
ये तर्क मजाकिया है. NHRC, NGT और कितने ही ट्रिब्यूनल संविधान में दर्ज नहीं है, लेकिन उनके प्रमुखों को केंद्रीय सूचना आयुक्त के बराबर का दर्जा मिला है.
कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग के केंद्रीय राज्य मंत्री ने संसद में कहा था, "केंद्रीय सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त का दर्जा सुप्रीम कोर्ट के जजों के बराबर होता है. हालांकि, अगर किसी को उनके फैसले को चुनौती देनी है तो हाईकोर्ट जाना होगा. ऐसा दुनिया में कहीं होता है क्या? कांग्रेस ने बहुत ही बेढंगा कानून बनाया था और हम उसे सुधारने की कोशिश कर रहे हैं."
RTI एक्ट दुनिया के सबसे अच्छे कानूनों में से एक है. ये नागरिकों को सशक्त करने में कामयाब हो रहा है और सरकारों को लोगों के प्रति जवाबदेह बना रहा है. जहां तक सूचना आयोगों के फैसलों को चुनौती देने का मामला है, ये न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र में आता है. राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपालों और केंद्रीय चुनाव आयुक्तों के आदेशों को भी हाईकोर्ट में चुनौती दी जाती है.
ये कदम सूचना आयोगों पर नियंत्रण पाने और उन्हें सरकार के लिए बनाए रखने के लिए उठाया गया लगता है. सरकार अपनी इच्छा के मुताबिक, कार्यकाल को छोटा भी कर सकती है. ये सूचना आयोगों की आजादी को खत्म ही कर देना का तरीका होगा.
एक देश को बेहतर प्रशासन और लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए स्वतंत्र संस्थाओं की जरूरत होती है. प्रधानमंत्री ने भारत को एक बेहतर लोकतंत्र देने का वादा किया है और ये भी कहा है कि सरकार लोगों की बात सुनेगी. हम कामना करते हैं कि सरकार आरटीआई कानून में संशोधन वापस लेकर इसका संकेत दे. अगर वो इस संशोधन को वापस लेते हैं तो इससे एक बड़ा संकेत जाएगा. सरकार को संशोधन करने की बजाय सूचना आयुक्त को नियुक्त करने का एक पारदर्शी तरीका तैयार करना चाहिए.
अगर सरकार के पास इस कदम का कुछ ऐसा कारण हैं, जिसका उसने खुलासा नहीं किया है, तो पहले सरकार को इसे सार्वजनिक कर देना चाहिए. फिर, संशोधन विधेयक के लिए जल्दबाजी दिखानी चाहिए.
अगर सरकार ऐसा नहीं करती है तो लोगों को इस कदम का विरोध करने के लिए एकजुट होना चाहिए. इस बड़े सरकारी कदम का विरोध करने के लिए और मौलिक अधिकारों को बचाए रखने के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल हमें करना चाहिए. देशभर में बैठकें और विरोध प्रदर्शन शुरू कर देना चाहिए. हमें अपने मौलिक अधिकार की रक्षा करने की जरूररत है. आरटीआई अधिनियम एक लंबे संघर्ष के बाद हासिल किया गया था और हम किसी को भी इसे कमजोर करने नहीं देगे.
((शैलेष गांधी पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है))
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