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पुतिन का परमाणु अलर्ट सिर्फ एक पॉलिटिकल मैसेज या रूस सचमुच तबाही मचाने को तैयार?

Russia-Ukraine War जब तक पुतिन के अधिकांश उद्देश्य पूरे नहीं हो जाते तब तक उनके पीछे हटने की संभावना नहीं दिख रही है

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रूस द्वारा यूक्रेन (Russia-Ukraine War) पर लगातार हमले किए जा रहे हैं. कुछ दिनों पहले अमेरिका और उसके सहयोगियों द्वारा जब रूस पर आर्थिक प्रतिबंधों लगाए गए तब रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन (Russian President Vladimir Putin) ने अपने डिफेंस अधिकारियों को हाई लेवल अलर्ट पर रहने के निर्देश दिए. उन्होंने न्यूक्लियर डेटरेंट फोर्स को कॉम्बैट ड्यूटी मोड में रहने का आदेश दिया. इसके साथ ही रशियन आर्मी को भी स्पेशल कॉम्बैट ड्यूटी मोड में रखने का निर्देश दिया.

यह स्पष्ट नहीं है कि रूस के परमाणु बलों की पहले से ही अलर्ट स्थिति को उनका यह फरमान कैसे प्रभावित करेगा, क्योंकि अमेरिका की तरह रूस भी अपनी कई लैंड बेस्ड इंटरकॉन्टिनेंटल बैलिस्टिक मिसाइलों और सबमरीन बेस्ड न्यूक्लियर मिसाइलों को उच्च स्तर की तैयारी पर रखता है.

पुतिन के इस बयान के बाद तुरंत ही खलबली मच गई, क्योंकि इसमें कहीं न कहीं जल्द ही वैश्विक परमाणु युद्ध यानी ग्लोबल न्यूक्लियर वार के संकेत छिपे हुए थे. वहीं बाद में रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने कहा कि अगर तीसरा विश्व युद्ध होता है, तो इसमें परमाणु हथियार शामिल होंगे और यह विनाशकारी होगा.

तो क्या पुतिन इस तरह के बयान से कोई राजनीतिक संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं? या सचमुच में वे परमाणु युद्ध की तैयारी कर रहे हैं? यदि हां, तो किस पर?

रूस की अनिश्चितता और उसकी परमाणु नीति में इसका जवाब छिपा हुआ है.

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युद्ध के प्रमुख रणनीतिक क्षेत्र

रूस का भूभाग काफी बड़ा है लेकिन आबादी महज 14 करोड़ से अधिक है. यह देश पूर्व की ओर से सुरक्षित है क्योंकि पूर्व में साइबेरिया का मौसम, वहां की स्थलाकृति, खालीपन और विशालता हमले को बहुत मुश्किल बना देती है. लेकिन यह दक्षिण से (रूस और मध्य एशिया के बीच वाले क्षेत्र से) और पश्चिम (उत्तरी यूरोपीय मैदान के पार) से सुरक्षा का मामला अनिश्चित है. इसकी ठोस वजह रूस के इतिहास से पता चलती है, इन दोनों दिशाओं से ही रूस पर सबसे ज्यादा हमले हुए हैं.

दुश्मनों को रोकने के लिए यहां किसी प्राकृतिक रक्षात्मक बेड़े की मौजूदगी नहीं है. इसी बात ने ईवान तृतीय (Ivan III) के शासन काल के दौरान 15वीं शताब्दी के अंत से रूस को दुश्मनों को इन क्षेत्रों से आने के लिए राेकने और उनके आक्रमण को धीमा करने के लिए यहां अपने रणनीतिक प्रतिनिधियों को खुद से जोड़ने की शुरुआत के लिए प्रेरित किया.किया.

सोवियत संघ (USSR) ऐसा ही एक विस्तार था.हालांकि ऐसे आबादी वाले क्षेत्र जहां अलग-अलग जातीय व समूहों के लोग रहते थे, वहां सामरिक क्षेत्रों पर नियंत्रण करना आसान नहीं होता था. इसमें कई तरह की समस्याएं आती हैं, क्योंकि इसके लिए बड़े पैमाने पर खुफिया-आंतरिक सुरक्षा-सैन्य सेटअप की आवश्यकता होती है. इस तरह के नियंत्रण की कीमत अंततः विस्तारित साम्राज्य के पतन का कारण बनती है, क्योंकि राष्ट्र अपनी नागरिक अर्थव्यवस्था और सर्वोत्तम जनशक्ति से सुरक्षा बलों के लिए संसाधनों को हटा देता है - यही कारण है कि रूसी इतिहास साम्राज्य विस्तार और संकुचन के उदाहरणों से भरा हुआहुआ है.

अफगानिस्तान से सोवियत सेना का पीछे हटना, बर्लिन की दीवार का गिरना, इराक पर अमेरिका के नेतृत्व में आक्रमण (ऑपरेशन डेजर्ट स्टॉर्म) और सोवियत संघ का विघटन जैसी कई महत्वपूर्ण घटनाएं 1989-1991 के वर्षों में देखी गईं.

अराजकता के बावजूद रूसी नेताओं ने यह माना कि ऑपरेशन डेजर्ट स्टॉर्म में सोवियत द्वारा प्रशिक्षित और उनके ही हथियारों से सुसज्जित इराकी सेनाओं को कितनी तेजी से खदेड़ा गया था. यहां रूसी सेना में पूर्ववर्ती सोवियत की एक धुंधली छाया देखने को मिली थी. यही वजह रही कि इसने "सैन्य सिद्धांत के मुख्य प्रावधान" (नवंबर 1993) को रेखांकित किया, जिसमें परमाणु हथियारों के उपयोग की कल्पना केवल विश्वव्यापी संघर्ष के दौरान ही की गई.

अलगाव के बाद, पूरे रूस और उसके पूर्व गणराज्यों में युद्ध छिड़ गया. उत्तर ओसेशिया, इंगुशेतिया, तातारस्तान और चेचन्या सभी ने रूस के भीतर रूसी संप्रभुता को स्वीकार करने से इनकार कर दिया. पहला चेचन युद्ध (1994-1996) रूस के लिए अच्छा नहीं रहा. यह केवल दूसरे चेचन युद्ध में ही चेचन्या (1999-2009) को समाप्त करने में सक्षम रहा.

इस बीच, यूगोस्लाविया (1997-1999) में नाटो के ऑपरेशन को मास्को ने ध्यान से देखा. चूंकि कोसोवो संघर्ष में मूल मुद्दे चेचन्या के मुद्दों की तरह ही थे, इसलिए रूसी लीडरशिप को लगा कि अमेरिका चेचन्या में हस्तक्षेप कर सकता है.

'एस्केलेट टू डी-एस्केलेट' रणनीति

इसके परिणाम स्वरूप रूस की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के तत्कालीन सचिव व्लादिमीर पुतिन ने एक नया सैन्य सिद्धांत विकसित किया. जिस पर अप्रैल 2000 में पुतिन द्वारा राष्ट्रपति के तौर पर हस्ताक्षर किए गए. इस सिद्धांत में कहा गया है कि यदि रूस को बड़े पैमाने पर ऐसे कंवेंशनल अटैक का सामना करना पड़ता है जो रक्षा के लिए उसकी कंवेंशनल सैन्य ताकतों की क्षमता से अधिक होगागा, तब रूस सीमित परमाणु हमले का जवाब दे सकता है जिसका उद्देश्य विरोधी के संघर्ष को 'डी-एस्केलेट' करने के लिए 'प्रेरित' करना होगा. यदि रूस को "सिलोवो डेवलेनी" का सामना करना पड़ता है तो यह सिद्धांत परमाणु हथियारों के उपयोग को उचित ठहराएगा.

शीत युद्ध के दौरान पारस्परिक रूप से सुनिश्चित विनाश का परमाणु खतरा मंडराता रहा. पर उसे रूस की 'एस्केलेट टू डीस्केलेट' रणनीति ने केवल सीमित क्षति के तौर पर देखा और इसकी बजाय टेलर्ड डैमेज को भड़काने पर ध्यान दिया. रूस की इस रणनीति ने वास्तविकता से ध्यान भटकाने का काम किया. रूस की 'एस्केलेट टू डीस्केलेट' रणनीति का असल में नुकसान तो सीमित है, लेकिन यह एक हमलावर के लिए अस्वीकार्य चीज होगी, क्योंकि इससे होने वाले नुकसान उसे रूस के साथ युद्ध में मिलने वाले लाभों से अधिक हो सकते हैं।

इस पर तर्क यह था कि चेचन विद्रोहियों की ओर से हस्तक्षेप करने के लिए अमेरिका के पास कई कारण थे, लेकिन केवल इस मुद्दे के कारण वह रूस के साथ परमाणु हथियारों की दौड़ का जोखिम नहीं उठा सकता था, क्योंकि चेचन मुद्दा अमेरिका के लिए "महत्वपूर्ण रणनीतिक लाभ" का नहीं था.

ध्यान देने वाली बात यह है कि रूस के 'डी-एस्केलेशन' परमाणु सिद्धांत का वैचारिक आधार थॉमस शेलिंग के ग्रंथ, 'द स्ट्रैटेजी ऑफ कॉन्फ्लिक्ट एंड आर्म्स एंड इन्फ्लुएंस' से आया है, जबकि ऑपरेशनल लेवल 1960 के दशक में अमेरिकी नीति से लिया गया था, जिसमें यूरोप में सोवियत आक्रमण का मुकाबला करने के लिए परमाणु हथियार के "सीमित उपयोग" की परिकल्पना की गई थी. ( इसका उदाहरण हम 1963 के अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के डॉक्यूमेंट को मान सकते हैं जिसमें "सोवियत संघ के साथ युद्ध का प्रबंधन और समाप्ति" पर काफी कुछ लिखा गया है.)

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रूसी न्यूक्लियर फोर्स के दो मिशन

अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज एचडब्ल्यू बुश और बिल क्लिंटन ने रूस से वादा किया था कि नाटो पहले के यूएसएसआर में विस्तार नहीं करेगा. हालांकि पोलैंड, हंगरी और चेक गणराज्य 1998 में नाटो में शामिल हो गए. वहीं तीन बाल्टिक गणराज्यों कोको 2004 में नाटो ने खुद में शामिल कर लिया.

नवंबर 2003 की 'रोज़ रेवोल्यूशन' के बाद जॉर्जिया के नए नेतृत्व ने पश्चिमी-समर्थक विदेश नीतियों को अपनाना शुरू किया. वहीं 2004 में रूस समर्थक राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच को यूक्रेन की ऑरेंज क्रांति ने बाहर का रास्ता दिखा दिया.

"शीत युद्ध के दौरान, सेंट पीटर्सबर्ग नाटो देश से लगभग 2,000 किमी दूर था, लेकिन अब, यह 100 किमी (एस्टोनिया) दूर है" मॉस्को और पुतिन ने इन्हें सीआईए द्वारा वित्त पोषित हस्तक्षेप के रूप में देखाा. वे कहते हैंहैं कि नाटो ने रूस को घेर लिया और इसकी वजह से रूस की सुरक्षा के लिए खतरा पैदा हो गया है.

इस कारण से राष्ट्रपति पुतिन ने अक्टूबर 2004 में "रूसी संघ के सशस्त्र बलों के विकास के तत्काल कार्य" का खुलासा किया. सैन्य सिद्धांत के अलावा इसने रूसी परमाणु बलों के लिए दो मिशन दिए. पहला रूस के खिलाफ बड़े पैमाने पर हमले की रोकथाम और दूसरा, अगर रोकथाम विफल रहती है तो एक सीमित संघर्ष का 'डी-एस्केलेशन'.

यूरोप में नाटो बलों के कमांडर जनरल कर्टिस स्कापरोट्टी ने मार्च 2019 में अमेरिकी सीनेट की सशस्त्र सेवा समिति से कहा कि अमेरिका को यूक्रेन को अपनी रक्षा सुदृढ़ करने में मदद करनी चाहिए.

इसके बाद रूस ने जून 2020 में "परमाणु निवारण पर रूसी संघ की राज्य नीति के मूल सिद्धांत" “Basic Principles of the State Policy of the Russian Federation on Nuclear Deterrence” नाम से एक नया दस्तावेज जारी किया. परमाणु निवारण नीति के कार्यान्वयन को स्पष्ट करने के उद्देश्य से इसने "रूसी संघ की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण स्थितियों" में पारंपरिक हमलों के जवाब में परमाणु उपयोग की सिफारिश की. यहां भी 'एस्केलेट टू डीस्केलेट' की अवधारणा का एक स्पष्ट संदर्भ देखने को मिला.

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पुतिन के कुछ उद्देश्य

हालांकि,अमेरिका और उसके सहयोगियों ने रूस-यूक्रेन संघर्ष में सीधे तौर पर हस्तक्षेप नहीं किया है. तो फिर पुतिन अपने परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की धमकी क्यों दे रहे हैं?

ऐसा प्रतीत होता है कि पुतिन के तीन राजनीतिक-सैन्य उद्देश्य हैं :

पहला : यूक्रेन को सजा दें और उसे नाटो में शामिल होने से रोकें. इसके लिए जॉर्जिया एक बेहतरीन उदाहरण है. 2006 में जॉर्जियाई संसद ने जॉर्जिया के नाटो में शामिल होने के लिए सर्वसम्मति से मतदान किया. जनवरी 2008 में नाटो की सदस्यता को लेकर जनमत संग्रह हुआ जिसमें 77 फीसदी मत शामिल होने के पक्ष में गए. अप्रैल 2008 में नाटो के बुखारेस्ट शिखर सम्मेलन ने जॉर्जिया को सदस्य बनने का समर्थन किया गया. अगस्त 2008 में रूस ने जॉर्जिया पर हमला कर दिया. उसने अबकाजिया और दक्षिण ओसेशिया के जॉर्जियाई क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया और उन्हें स्वतंत्र राज्यों के रूप में मान्यता दे दी. नाटो का एक प्रमुख सहयोगी होने के बावजूद जॉर्जिया अभी तक इस गठबंधन में शामिल नहीं हुआ है.

दूसरा : अमेरिका और उसके सहयोगियों को यूक्रेन को अतिरिक्त सैन्य और राजनीतिक सहायता प्रदान करने से रोकना, यदि रूस ऐसा करता है तो इसके जरिए उसे अपना पहला उद्देश्य हासिल करने में मदद मिलेगी. यूनाइटेड किंगडम द्वारा आयोजित 25 फरवरी की बैठक में 25 से अधिक देशों ने यूक्रेन को बड़े पैमाने पर सैन्य सहायता देने का वादा किया था. परमाणु चेतावनी अमेरिका और उसके सहयोगियों को हस्तक्षेप करने या ऐसा करने से बचने की चेतावनी है, जिसके विफल होने पर रूस "डी-एस्केलेशन" विकल्प चुन सकता है. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने यूक्रेन में रूसी सैनिकों के साथ अमेरिकी सैन्य भागीदारी को खारिज कर दिया, अगर पश्चिमी सैन्य सहायता बनी रहती है और लड़ाई में गतिरोध बना रहता है, तो यूक्रेन के खिलाफ एक परमाणु हमले की संभावना हो सकती है.

तीसरा : पूर्वी यूक्रेन में डोनेट्स्क और लुहान्स्क के रूसी समर्थक क्षेत्रों को एक मामूली बफर बनाने के लिए "स्वाधीन" करें. 21 फरवरी को, पुतिन ने इन दो रूसी समर्थक अलगाववादी क्षेत्रों की स्वतंत्रता को आधिकारिक तौर पर मान्यता देने के लिए एक आदेश पर हस्ताक्षर किए. इन्होंने 2014 में यूक्रेन से स्वतंत्र होने की घोषणा की थी.

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बुद्धिमानीपूर्वक अपने दोस्तों का चयन करें

अमेरिकी रक्षा सचिव लॉयड ऑस्टिन ने अक्टूबर 2021 में कहा था कि यूक्रेन और जॉर्जिया अभी भी नाटो में शामिल हो सकते हैं. इसके बाद पुतिन ने तैयारी शुरू कर दी और आखिरकार 24 फरवरी को यूक्रेन पर हमला कर दिया और 27 फरवरी को परमाणु बलों को युद्ध के अलर्ट पर रहने का आदेश दिया. हर रणनीति की अपनी सीमाएं होती हैं, जिसे कार्ल वॉन क्लॉज़विट्ज़ ने अच्छी तरह से देखा था. उनके शब्दों में कहें तो 'जीत का एक अंतिम बिंदु होता है ... उस बिंदु से परे, पैमाना बदल जाता है और प्रतिक्रिया एक बल के साथ होती है जो आमतौर पर मूल हमले की तुलना में बहुत अधिक ताकतवर होती है.'

प्रत्यक्ष तौर पर देखें तो नाटो को आगे बढ़ाने वाली अमेरिकी रणनीति की वजह से नाटो रूस के दरवाजे तक पहुंच गया. इसके साथ ही अमेरिकी रणनीति की सीमा अपने चरम बिंदु तक पहुंच गई जिससे पैमाना बदल गया. अब जब तक पुतिन के अधिकांश उद्देश्य पूरे नहीं हो जाते, तब तक उनके पीछे हटने की संभावना नहीं है.

रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे इस संघर्ष से एक अहम सबक यह मिलता है कि "अपने दोस्तों को बुद्धिमानी से चुनना चाहिए, क्योंकि कुछ दोस्त आपको तबाही की ओर ले जा सकते हैं."

(कुलदीप सिंह, भारतीय सेना के सेवानिवृत्त ब्रिगेडियर हैं. यह लेख एक विचार है, जिसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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