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यूक्रेन संकट को समझना है तो जानिए सोवियत रूस कैसे बना और टूटा

USSR की ताबूत पर आखिरी कील था बेलावेझा समझौता, क्रिसमस को हुआ सोवियत संघ का विघटन

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यूक्रेन पर रूस के हमले से पहले राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने कई देशों को अपने नियंत्रण में लेने और कब्जा जमाने का काम किया है. कई रिपोर्ट्स में यह जिक्र तक किया गया कि पुतिन फिर से सोवियत संघ की राह पर हैं. वही सोवियत संघ USSR जिसका विघटन 1991 में क्रिसमस के दिन यानी 25 दिसंबर को हुआ था. आइए जानते हैं अंतरिक्ष विज्ञान, खेल, सिनेमा, साहित्य और कला के क्षेत्र में भी सबसे आगे रहने वाले सोवियत संघ साम्राज्य का विघटन कैसे हुआ...

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सोवियत संघ कब बना और कैसे हुआ उसका पतन? 

सोवियत संघ 1917 में बना था. जब बोल्शेविक क्रांति हुई थी और जार निकोलस द्वितीय को सत्ता से बेदखल कर के रूसी साम्राज्य को समाप्त कर दिया गया था.

1922 में लेनिन के नेतृत्व में दूर दराज के राज्यों को रूस में मिलाया गया और आधिकारिक रूप से USSR की स्थापना हुई. यूएसएसआर के प्रमुख व्लादीमिर लेनिन थे. 15 राज्यों को मिलाकर सोवियत संघ बना था.

जार की तानाशाही को समाप्त करके सोवियत संघ ने लोकतंत्र बनने का प्रयास किया था. लेकिन आखिरकार तानाशाही की स्थापना हुई, जिसमें सबसे प्रमुख तानाशाह स्टालिन हुए.

समय बीता और संसद बनी, जिसे सुप्रीम सोवियत के नाम से जाना जाता है. भले ही संसद बनाई गई, लेकिन सारे फैसले कम्युनिस्ट पार्टी करती थी. देश का प्रमुख चुनने से लेकर हर फैसला पार्टी की एक छोटी सी समिति करती थी, जिसे पोलित ब्यूरो कहा जाता था.

धीरे-धीरे राजीनीति, अर्थव्यवस्था और आम जीवन पर पार्टी का नियंत्रण होता चला गया. जो विरोध करता उसे गुलग (यातना देने की जगह) भेज दिया जाता. लाखों लोगों की मौत गुलग में हुई है. यह सब स्टालिन के दौर से ही शुरु हो गया था.

सोवियत संघ में नौकरशाही हावी थी. इनका समाज के हर हिस्से में नियंत्रण बढ़ता जा रहा था. ऑक्सफोर्ड के प्रोफेसर आर्ची ब्राउन ने इस बारे में कहा था कि इस नौकरशाही ने सोवियत संघ को एक कठिन देश बना दिया था.

सुधार करने वाले राष्ट्रपति के खिलाफ तख्तापलट की कार्रवाई

1917 में समाजवादी क्रांति के बाद अस्तित्व में आए सोवियत संघ का द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूर्वी यूरोप के देशों में प्रभुत्व रहा. सोवियत सेना ने पूर्वी यूरोप के देशों को फासीवादी ताकतों से मुक्त कराया था और समाजवादी प्रणाली से यहां की राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था में अपना प्रभाव डाला था. इसी वजह से इन्हें समाजवादी खेमे के देश या "दूसरी दुनिया" के देश कहा जाता था. दूसरे विश्व युद्ध के बाद सोवियत संघ महाशक्ति के रूप में उभरा.

सोवियत संघ ऐसा साम्राज्य था जिसने हिटलर को परास्त किया, जिसने अमरीका के साथ शीत युद्ध किया और परमाणु होड़ में हिस्सा लिया. साथ ही वियतनाम और क्यूबा की क्रांतियों में अहम भूमिका निभाई थी. लेकिन हावी तानाशाही, नौकरशाही और कमजोर होती अर्थव्यवस्था की वजह से पढ़े-लिखे जागरुक लोग और पूर्वी यूरोप के देश सोवियत संघ की व्यवस्था का विरोध करने लगे.
पूर्व सोवियत संघ के साम्यवादी शासकों के कारनामों को दुनिया के सामने लाने वाली पुस्तक ’वन डे इन द लाइफ ऑफ इवान डेनिसोविच’ का प्रकाशन नवंबर 1962 में हुआ था और किताब के छपते ही तत्कालीन सोवियत संघ में हडकंप मच गया था. यही वो पुस्तक थी जिसने जोसफ़ स्तालिन का असली चेहरा पूरे विश्व के सामने लाया और साम्यवादी शासन के क्रूर कारणामों को जगजाहिर किया.

1979 के दौर में सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में हस्तक्षेप किया, जिससे इसकी व्यवस्था और कमजोर हो गई थी. यह उत्पादन में पश्चिमी देशों से पिछड़ रहा था. खाद्यान्न का आयात साल-दर-साल बढ़ता जा रहा था. 1970 के दौरान यहां की व्यवस्था पूरी तरह से लड़खड़ा सी गई थी. समाजवादी प्रणाली सत्तावादी हो रही थी. लोगों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं थी तब लोग कार्टून और चुटकुलों के जरिए अपनी असहमति व्यक्त करने लगे.

उन दिनों सोवियत संघ के तत्कालीन राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचोफ इस व्यवस्था को सुधारना चाहते थे. उन्होंने एक सुधार कार्यक्रम शुरू किया था, क्योंकि उन्हें एक खराब अर्थव्यवस्था और एक अक्षम राजनीतिक ढांचा सौंपा गया था.

सोवियत संघ के विघटन के कारण तो कई थे, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण कारण राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचोफ खुद थे. उनका सत्ता में आना ही अपने आप में बड़ी बात थी. वो सत्ता में आए थे सोवियत व्यवस्था को बदलने के लिए जिसका मलतब था वे अपनी ही कब्र खोदने का काम करने वाले थे.
आर्ची ब्राउन, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर और सोवियत नीतियों के जानकार बीबीसी को दिए एक इंटव्यू के अनुसार

मिखाइल गोर्बाचोफ ने पेरेस्त्रोइका (सरकार का नियंत्रण कम करना) और ग्लासनोस्त नाम की दो नीतियां शुरू कीं. ग्लासनोस्त के तहत खुलेपन और पारदर्शिता को अपनाने की कोशिश हुई.
गोर्बाचोफ को लगा था कि इससे निजी सेक्टर को फायदा होगा. इनोवेशन बढ़ेंगे और आगे चलकर विदेशी निवेश भी सोवियत संघ में होगा. उन्होंने मजदूरों को हड़ताल करने का अधिकार दिया ताकि वो बेहतर वेतन और काम के हालात की मांग करें.

मिखाइल गोर्बाचोफ की सुधार नीतियों का कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं ने विरोध करना शुरू कर दिया था.
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19 अगस्त 1991 के दिन केजीबी प्रमुख समेत आठ कम्युनिस्ट अधिकारियों ने सोवियत नेता मिखाइल गोर्बोचेफ को सत्ता से बेदखल कर दिया और एक आपात समिति का गठन किया. इस मुहिम के बाद गोर्बोचेफ को हिरासत में ले लिया गया था और मॉस्को की गलियों में टैंक प्रवेश कर गए.

मिखाइल गोर्बाचोफ को उनके क्रीमिया वाले घर में नजरबंद कर दिया गया. जिस घर में वे अपनी छुट्टियां मनाया करते थे.

तख्तापलट की ये कोशिश मॉस्को में बोरिस येल्तसिन की अगुवाई में आम नागरिकों के प्रदर्शन के बाद नाकाम हो गई थी, लेकिन इसका नतीजा ये हुआ कि मिखाइल गोर्बाचोफ का असर खत्म हो गया और रूसियों के बीच बोरिस येल्तसिन अधिक स्वीकार्य नेता बनकर उभरे.

बीबीसी के अनुसार 'अ फेल्ड एम्पायर: द सोवियत संघ इन द कोल्ड वार फ्रॉम स्टालिन टू गोर्बाचोफ' पुस्तक के लेखक प्रोफेसर व्लादिस्लाव जुबोक ने कहा था कि "तख्तापलट की कोशिश हैरान कर देने वाली घटना थी, क्योंकि उस वक्त हर कोई छुट्टियां मना रहा था. लोगों को उम्मीद तो थी कि ऐसा कुछ हो सकता है, लेकिन ये अगस्त में ही हो जाएगा, ये किसी ने सोचा नहीं था."

तख्तापलट इसलिए किया गया था क्योंकि गोर्बाचोफ की योजना न्यू यूनियन ट्रीटी पर 20 अगस्त को दस्तखत करने की थी.

अमेरिकी राष्ट्रपति रोनल्ड रीगन के साथ मिखाइल गोर्बाचोफ के गर्मजोशी भरे रिश्तों की वजह से ही शीत युद्ध खत्म हुआ था. तख्तापलट की कोशिश के बाद बहुत से लोगों को ये लगा कि सोवियत संघ का अंत करीब आ गया है, लेकिन गोर्बाचोफ समेत कुछ लोग ये मानते थे कि संप्रभु राष्ट्रों के एक नए तरह के संघ के जरिए सोवियत संघ को बचाया जा सकता था.

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बेलावेझा समझौता और अल्मा-अता प्रोटोकॉल

8 दिसंबर, 1991 को रूस के तत्कालीन राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन ने सोवियत संघ के 15 घटक देशों में से तीन नेताओं के साथ मुलाकात की. येल्तसिन से मिलने वालों में यूक्रेन के तत्कालीन राष्ट्रपति लियोनिड एम क्रावचुक, बेलारूस के नेता स्तानिस्लाव शुश्केविच शामिल थे. उन्होंने जो साझा बयान जारी किया था उसे बेलावेझा समझौता कहते हैं. इस घटना को सोवियत संघ की ताबूत पर आखिरी कील माना जाता है.

बेलावेझा समझौता के अनुसार सोवियत संघ का विघटन होना था और इसकी जगह पर स्वतंत्र देशों के एक राष्ट्रमंडल का गठन किया जाना था जिसमें पूर्व सोवियत संघ के घटक देश शामिल होने वाले थे.

21 दिसंबर को बचे हुए 12 सोवियत देशों में 8 देश अल्मा-अता प्रोटोकॉल पर दस्तखत करके इस राष्ट्रमंडल में शामिल हो गए. इसके बाद सोवियत संघ के बचने की रही सही संभावना भी खत्म हो गई. इसके बाद गोर्बाचोफ को ये एहसास हो गया कि उनका दौर खत्म हो गया था और 25 दिसंबर को एक भाषण में अपने इस्तीफे के एलान का फैसला कर लिया. 85 वर्ष की आयु में अपने इस्तीफे को लेकर गोर्बाचोफ ने बीबीसी को बताया था कि-

मेरी पीठ पीछे धोखा हुआ. वे लोग सिगरेट जलाने के लिए पूरा घर जला रहे थे. बस सत्ता पाने के लिए....वे लोकतांत्रिक तरीके से ऐसा नहीं कर सकते थे. इसलिए उन्होंने अपराध किया. वह सब कुछ एक विद्रोह था. हम गृह युद्ध की तरफ बढ़ रहे थे और मैं इसे बचाना चाहता था. लोग बंटे हुए थे, देश में संघर्ष की स्थिति थी, हथियारों की बाढ़ आ गई थी. इनमें परमाणु हथियार भी थे. बहुत से लोगों की जान जा सकती थी. बड़ी बर्बादी होती. मैं सत्ता से चिपके रहने के लिए ये सबकुछ होते हुए नहीं देख सकता था, इस्तीफा देना मेरी जीत थी.
मिखाइल गोर्बाचोफ

25 दिसंबर, 1991 को सोवियत संघ के तत्कालीन राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचोफ ने क्रेमलिन से देश को संबोधित करते हुए कहा, "सोवियत संघ के राष्ट्रपति के तौर पर मैं अपना काम बंद कर रहा हूं." इसके साथ ही सोवियत संघ का विघटन हो गया.

उसी (25 दिसंबर 1991) शाम 7:32 मिनट पर सोवियत संघ के रेड फ्लैग की जगह रूस के पहले राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन की अगुवाई में रूसी संघ का झंडा लहरा दिया था और दुनिया के सबसे बड़े कम्युनिस्ट देश के विघटन के साथ ही 15 स्वतंत्र गणराज्यों- आर्मीनिया, अजरबैजान, बेलारूस, इस्टोनिया, जॉर्जिया, कजाखस्तान, कीर्गिस्तान, लातिवा, लिथुआनिया, मालदोवा, रूस, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, यूक्रेन और उज्बेकिस्तान का उदय हुआ.

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USSR का विघटन की टाइम लाइन

  • मार्च 1985 : मिखाइल गोर्बाचोफ सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव चुने गए. बोरिस येल्तसिन को रूस को कम्युनिस्ट पार्टी का प्रमुख बनाया. इन्होंने सोवियत संघ में सुधारों की श्रृंखला शुरू की.

  • 1988 : लिथुआनिया में आजादी के लिए आंदोलन शुरू हुआ. यह एस्टोनिया और लताविया में भी फैला.

  • अक्टूबर 1989 : सोवियत संघ ने घोषणा कि 'वारसा समझौते' के सदस्य अपना भविष्य तय करने के लिए स्वतंत्र हैं.

  • नवंबर 1989 : बर्लिन की दीवार गिरी.

  • फरवरी 1990 : गोर्बाचेव ने सोवियत संसद ड्यूमा के चुनाव के लिए बहुदलीय राजनीति की शुरुआत की. सोवियत सत्ता पर कम्युनिस्ट पार्टी का 72 वर्ष पुराना एकाधिकार समाप्त.

  • जून 1990 : रूसी संसद ने सोवियत संघ से अपनी स्वतंत्रता घोषित की.

  • मार्च 1990 : लिधुआनिया स्वतंत्रता की घोषणा करने वाला पहला सोवियत गणराज्य बना.

  • जून 1991 : येल्तसिन का कम्युनिस्ट पार्टी से इस्तीफा रूस के राष्ट्रपति बने.

  • अगस्त 1991 : राष्ट्रपति मिखाइल के खिलाफ असफल तख्तापलट.

  • सितंबर 1991 : एस्टोनिया, लातविया और लिथुआनिया तीनों बाल्टिक गणराज्य संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य बने. (मार्च 2004 में उत्तर अटलांटिक संधि संगठन में शामिल हुए.)

  • दिसंबर 1991 : रूस, बेलारूस और यूक्रेन ने 1922 की सोवियत संघ के निर्माण से संबद्ध संधि की समाप्त करने का फैसला किया और स्वतंत्र राष्ट्रों का राष्ट्रमंडल बनाया. आर्मेनिया अजरबैजान, माल्दोवा, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उज्बेकिस्तान भी राष्ट्रमंडल देशों में शामिल.

  • 25 दिसंबर 1991 : मिखाइल गोर्बाचोफ ने इस्तीफा दिया और इसके साथ ही सोवियत संघ का अंत हो गया.

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