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न्यायपालिका ‘कैटफाइट’ से बची नहीं है, आखिर कैसे सोचते हैं जज?

1971 में जजों ने अपना दायरा बढ़ाया और खुद को लोकतंत्र और संविधान के रक्षक के तौर पर देखने लगे.

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कॉलेज में मेरे साथ पढ़ने वाले कुछ कानून के छात्र बाद में जज बने. अब वे सभी रिटायर हो चुके हैं. उनमें से ज्यादातर को लगता है कि वे अपनी जिंदगी में कुछ खास हासिल नहीं कर पाए. मेरा ख्याल है कि ज्यादातर जजों को ऐसा ही लगता होगा और उसकी वजह भी है.

दरअसल, ये किसी और नौकरी की तरह ही है, जिसका अपना रूटीन होता है. हालांकि, कभी-कभार कुछ नाटकीय होता है, जब सरकार या ताकतवर धार्मिक संस्थाओं से उनका टकराव होता है.

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1970 के दशक तक सुप्रीम कोर्ट के जज खुद को कानून का रखवाला मानते थे. 1971 में केशवानंद भारती केस में उन्होंने अपना दायरा बढ़ाया और खुद को लोकतंत्र और संविधान के रक्षक के तौर पर देखने लगे. सुप्रीम कोर्ट के जज कानून की व्याख्या भी करने लगे.

लोकतंत्र और संविधान के रक्षक की उनकी भूमिका ठीक थी, लेकिन कई लोगों को संविधान और कानून की व्याख्या करना कुछ ज्यादा लगा. ये इंसाफ का मामला नहीं है. इसमें जज ये नहीं देखते कि कानून क्या कहता है बल्कि वे ये बताते हैं कि कानून कैसा होना चाहिए. इस वजह से कानून की व्याख्या और एक्टिविस्ट वाली उनकी भूमिका को प्रमुखता भी मिलने लगी.

इससे मेरे मन में सवाल उठा कि जज आखिर कैसे सोचते हैं? वकीलों ने मुझे इसके लिए बड़े अदालती फैसलों को पढ़ने की सलाह दी. इससे मदद मिली, लेकिन मैंने जजों की आत्मकथाएं भी पढ़ीं. ऐसी सिर्फ 50 के करीब किताबें हैं. उनमें से अधिकतर अब प्रकाशित नहीं होतीं. देश की आजादी के बाद आईं ऐसी 15 आत्मकथाएं मैंने पढ़ी हैं.

जज किस तरह से सोचते हैं?

जजों के बारे में मैंने जो पहली किताब पढ़ी थी, वो अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट के बारे में थी. इसे प्रोफेसर मैक्स लर्नर ने लिखा था. इस किताब का नाम था- ‘नाइन स्कॉर्पियन्स इन अ बॉटल.’ इस टर्म का पहली बार ऑलिवर वेंडेल होम्स ने इस्तेमाल किया था, जो खुद अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के जाने-माने जज थे. उन्होंने जजों के बीच होने वाली ‘कैटफाइट’ के लिए इस टर्म का इस्तेमाल किया था. भारतीय न्यायपालिका भी इस ‘कैटफाइट’ से बची नहीं है.

1971 में  जजों ने अपना दायरा बढ़ाया और खुद को लोकतंत्र और संविधान के रक्षक के तौर पर देखने लगे.

भारतीय जजों के बारे में जो अच्छी किताबें हैं, उनमें से आपको चीफ जस्टिस एम हिदायतुल्लाह की आत्मकथा जरूर पढ़नी चाहिए. उन्होंने चीजों को बारीक ढंग से समझाया है. उनका अंदाज ए बयां भी कमाल का है. पूर्व मुख्य न्यायाधीश पीएन भगवती जजों के इस नए स्कूल के भले संस्थापक ना रहे हों, लेकिन वो इसके महत्वपूर्ण सैनिक जरूर रहे हैं. उनकी आत्मकथा में ज्यूडिशियल एक्टिविज्म को सही ठहराया गया है.

एमसी चागला की क्लासिक ‘रोजेज इन दिसंबर’ भी दिलचस्प है. इससे ना सिर्फ आपको जजों के सोचने के तरीके बारे में पता चलेगा बल्कि ये जानकारी भी मिलेगी कि सरकारें कैसे काम करती हैं.

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उसकी वजह ये है कि चागला कुछ साल तक शिक्षा मंत्री भी रहे थे. वीआर कृष्ण अय्यर की किताब पढ़ने पर आप ये समझ पाएंगे कि जिस इंसान ने इतना अधिक नुकसान पहुंचाया, उसकी सोच क्या थी. अय्यर ही वो जज थे, जिनकी वजह से देश में इमरजेंसी लगाना संभव हुआ. इंदिरा गांधी के चुनाव को इलाहाबाद हाईकोर्ट के रद्द करने के बाद अय्यर ने उन्हें आंशिक वैधता दिलाई.

एमसी सीतलवाड़ कभी जज नहीं रहे, लेकिन वो महत्वपूर्ण विरासत छोड़कर गए हैं. अटॉर्नी जनरल के तौर पर 1954 में उन्होंने ये ‘खोज’ की कि राष्ट्रपति के लिए कैबिनेट की सलाह मानना जरूरी है. ये पहलू संविधान का हिस्सा नहीं था. हालांकि, दो दशक के बाद संविधान में संशोधन करके इसे शामिल किया गया. इनके अलावा कई और किताबें हैं, जिन्हें पढ़ा जाना चाहिए. हालांकि, यहां शब्दों की सीमा होने की वजह से मैं उन सबका जिक्र नहीं कर पा रहा हूं.

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1971 में  जजों ने अपना दायरा बढ़ाया और खुद को लोकतंत्र और संविधान के रक्षक के तौर पर देखने लगे.

जज और विवाद

सदियों से जज अच्छे, बुरे, सही या गलत वजहों से सुर्खियों में रहे हैं. ऐसे पहले जज ब्रिटेन के एडवर्ड कोक थे. 17वीं सदी की शुरुआत में उन्होंने इंग्लैंड के राजा से कहा था कि संसद और उन्हें तार्किक और जनहित की परीक्षा पर खरा उतरना होगा. एक और ब्रिटिश जज फ्रांसिस बेकन का मानना था कि राजशाही में जज शेर की तरह होते हैं. जजों को सत्ता के खिलाफ हुंकार भरनी चाहिए, लेकिन उसे काटना नहीं चाहिए. सत्ता और न्यायपालिका के बीच तब से संघर्ष चलता आ रहा है.

भारतीय सुप्रीम कोर्ट सत्ता के अंदर शेर की तरह काम करने वाला तब बना, जब जवाहर लाल नेहरू ने 1955 में संविधान में चौथा संशोधन किया. प्रॉपर्टी राइट्स के मामलों में नेहरू ने देश की सबसे बड़ी अदालत को उसकी जगह बताई. 
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जरा सोचिए कि अगर बीजेपी ऐसा कुछ करने की कोशिश करे, तब क्या हो. 1971 में सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा गांधी से कहा कि वो ‘अच्छी लड़की’ की तरह व्यवहार करें और भारतीय लोकतंत्र के लिए परेशानी ना खड़ी करें. उन्होंने ना सिर्फ इससे इनकार कर दिया बल्कि वफादार जजों की नियुक्ति के जरिये उन्होंने जवाबी हमला भी किया. उस समय ‘प्रतिबद्ध न्यायपालिका’ की भी चर्चा होती थी. अगर बीजेपी ऐसा करती तो क्या होता. 1992 में कोर्ट ने दमखम दिखाया और सरकार से कहा कि वो कथित कॉलेजियम सिस्टम के तहत नियुक्तियां करेगा. कुछ साल पहले सरकार ने संसद के जरिये नियुक्तियों का नियंत्रण अपने हाथों में लेने की कोशिश की, लेकिन जजों ने इस कानून को निरस्त कर दिया. इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि वे कितने ताकतवर हैं.

भारतीय सुप्रीम कोर्ट और सरकार के बीच शुरुआती टकराव का ब्योरा हाल ही में पब्लिश हुआ है. क्या आप मानेंगे कि अमेरिकी स्कॉलर जॉर्ज एच जूनियर की पीएचडी थीसिस के रूप में ये चीज हमारे सामने आई है. उन्होंने 1970 में ये थीसिस लिखी थी और तब से ये अप्रकाशित थी. जॉर्ज का पिछले साल निधन हो गया. अगर किसी की भारतीय न्यायपालिका और सुप्रीम कोर्ट में दिलचस्पी है तो उसे ये किताब जरूर पढ़नी चाहिए. इससे पता चलता है कि सुप्रीम कोर्ट को कंट्रोल करने के लिए नेहरू किस हद तक जाने को तैयार थे.

दरअसल, ज्यूडिशियल रिव्यू के मामले में सुप्रीम कोर्ट सरकार को उसकी सीमाएं बता रहा था. जजों ने न्यायपालिका के सर्वोच्च होने की दलील दी. सरकार इससे सहमत नहीं थी. इसलिए दोनों के बीच विवाद हुआ. जॉर्ज ने इस मामले की पड़ताल की है और उन्होंने 1962 में लिखा, ‘जहां फेडरल कोर्ट (सुप्रीम कोर्ट से पहले की सर्वोच्च अदालत) के फैसलों से ब्रिटेन को शर्मसार होना पड़ा था और उसका राष्ट्रवादी नेताओं ने स्वागत किया था, वहीं सुप्रीम कोर्ट के सरकार को रोकने की कोशिशों का उलटा असर हुआ है. जितनी आसानी से संविधान में संशोधन किया जा सकता है, उससे पता चलता है कि अदालत की सीमाएं तो व्यापक हैं, लेकिन अधिकार सीमित.’

कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच ये संघर्ष बहुत लंबे समय से चल रहा है और ये शायद ही कभी खत्म हो. इसमें कभी पलड़ा सत्ता तो कभी अदालतों की तरफ झुकता रहेगा.

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(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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