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धारा 377 पर फैसला: न्याय पिंजरे से आजाद, समलैंगिकों का सम्मान बहाल

देश आजाद होने के सात दशक बाद समलैंगिकों को मिली खुलकर जीने की आजादी

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दुनिया के सबसे उदार संविधान में से एक अपनाने के करीब 70 साल बाद आखिरकार मौका आया है जब भारत अपने क्रिमिनल पैनल कोड से अंग्रेजों के वक्त बने काले कानून धारा 377 को हटाने की खुशियां मना रहा है.

यह धारा ऐसे लोगों को अपराधी घोषित करती थी ‘जो अपनी मर्जी से किसी पुरुष या महिला, के साथ अप्राकृतिक सेक्स करते हैं.’ लेकिन मुख्यतौर पर इस धारा 377 का निशाना समलैंगिक लोग ही हुए हैं.

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धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट का 6 सितंबर का फैसला सेक्स से ज्यादा स्वतंत्रता के बारे में है. सरकारी दखलंदाजी के बगैर मनमर्जी से अपनी प्राइवेट लाइफ में इज्जत के साथ अपने हक का इस्तेमाल करने की आजादी अब जाकर मिली है. 

इतिहास बन गया

धारा 377 ने पुरुष और महिला के बीच लिंग-योनि सेक्स के अलावा ऐसे हर तरह के सेक्स को अवैध करार दिया था जिसे पुलिस अफसर और सरकार अप्राकृतिक मानते हों.

सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया है कि वयस्कों की प्राइवेट सेक्स लाइफ उनके नेचर से मिला अधिकार है और सहमति के साथ वो जैसा चाहे करें.

जाहिर है LGBT समुदाय के लिए यह बड़ी खबर है, क्योंकि उनका यौन झुकाव जिसकी तरफ है वही उनके लिए ‘प्राकृतिक’ है. पर सिर्फ समलैंगिक ही नहीं धारा 377 की वजह से ऐसे विवाहित महिला-पुरुष भी अपराधी हो जाते थे जो ओरल सेक्स करते हैं. क्योंकि इसमें पति-पत्नी के बीच ओरल सेक्स भी अवैध है. अगर आप शादी शुदा नहीं हैं तो समझिए हालत और खराब. 
अगर बिल क्लिंटन हिंदुस्तानी होते तो मोनिका लेविंस्की कांड के बाद भले वो महाभियोग से बच जाते, मगर धारा 377 के तहत वो भी जेल में होते. हालांकि ये सच है कि धारा 377 का ज्यादा इस्तेमाल नहीं हो रहा था. इसके तहत साल में गिरफ्तारियों तो भले ही 1000 से कम रही हों पर ये समलैंगिकों को परेशान करने और ब्लैकमेल करने का सबसे बड़ा हथियार था.

लाखों समलैंगिक पुरुष और महिलाएं इसकी वजह से डर के साए में जी रहे थे. इसकी वजह से उन्हें मानसिक प्रताड़ना झेलनी पड़ीं, एचआईवी के खतरे रहे और कई मामलों में ये धारा आत्महत्याओं का कारण भी बनी.

सिर्फ यही नहीं आर्थिक तौर पर भी इसकी वजह से भारत को नुकसान झेलना पड़ता रहा है. वर्ल्ड बैंक की 2014 की एक रिपोर्ट के अनुसार होमोफोबिया के कारण भारत की जीडीपी ग्रोथ पर 0.1 से 1.7 परसेंट तक असर पड़ता है.

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धारा 377 से हमारा सामना

सुप्रीम कोर्ट के फैसले में साफ कहा गया है कि आपसी रजामंदी से बेडरूम में होने वाले एक्शन को कंट्रोल करने का अधिकार लेकर सरकार संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 में मिले अधिकारों का हनन करती है.

इस फैसले का मतलब ये है कि लिंग और सेक्स में भेदभाव के बगैर वयस्कों के बीच रजमंदी से किया गया हर तरह के यौन संबंध अब वैध हैं. इसका ये मतलब बिलकुल नहीं है कि इस फैसले से जोर जबरदस्ती से किया गया सेक्स या गैर एडल्ट के बीच किया गया सेक्स भी जायज होगा. 

सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 को खारिज करने के दिल्ली हाईकोर्ट के 2009 के फैसले को 2013 में पलट दिया था. हाईकोर्ट के फैसले के बाद न तो कोई अव्यवस्था फैली थी और न ही भारतीय समाज की बुनियाद हिली थी. फिर भी कट्टरपंथियों ने उसे पटलने के लिए याचिका लगा दी. वो 2013 में इसमें सफल भी हुए.

अनेक भारतीयों की तरह मुझे भी सुप्रीम कोर्ट का 2013 का फैसला बहुसंख्यकवाद और लोकतंत्र के प्रति भारत के कमिटमेंट के खिलाफ लगा. दिसंबर 2015 में मैंने एक बिल लाने की कोशिश की थी जिसमें धारा 377 में संशोधन की वकालत की गई थी. उस बिल में मैंने लिंग के भेदभाव के बगैर एडल्ट के बीच हर तरह के यौन रिश्तों के अपराध से बाहर करने का प्रस्ताव भी दिया था. लेकिन सत्तारूढ़ दल के समलैंगिकता विरोधी एक ग्रुप ने बिल पेश ही नहीं होने दिया.

मार्च 2016 में फिर ऐसा ही हुआ. मैंने नए सिरे से कोशिश की लेकिन बिल में मेरी कथित निजी रुचि बताते हुए अपमानजनक बातें कही गईं. जिसके जवाब में मैंने कहा था कि जानवरों के अधिकारों की आवाज उठाने के लिए किसी को गाय बनने की जरूरत नहीं होती है.
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सरकार में साहस की कमी, न्यायपालिका में नहीं

बीजेपी का विरोध समझ से बाहर था क्योंकि वो ऐसे कानून को नहीं छोड़ना चाहती थी जिसे बनाने वाले ब्रिटिश भी अपने देश में उसे छोड़ चुके हैं.

यौन मामलों में ऐतिहासिक रूप से भारतीय संस्कृति उदार रही है. हमारे ग्नंथों में कहानियों या कहावतों में यौन झुकाव को लेकर सजा की बात सामने नजर नहीं आई. वास्तव में, हिंदू महाकाव्य महाभारत के शिखंडी जैसे पात्रों से भरे पड़े हैं, जो स्त्री पैदा होकर पुरुष बना था.

बहुत से हिंदू अर्द्धनारीश्वर रूप की पूजा करते हैं. देश भर में कई जगह पुराने जमाने की मूर्तियों में समलैंगिक यौन क्रियाओं का सजीव दर्शन है. फिर भी हिंदू की पहचान का नारा देने वाली पार्टी बीजेपी इस हिंदू परंपरा को नजरअंदाज करती है.

सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 बहाल करने के अपने 2013 के फैसले में कहा था कि इस धारा को लेकर फैसला संसद को करना होगा. लेकिन संसद ने इस बारे में कुछ नहीं किया. सत्तारूढ़ पार्टी में कट्टरता, होमोफोबिया और विपक्ष की उदासीनता और पूर्वाग्रह ने इस मुद्दे पर संसद को कदम नहीं उठाने दिए. दरअसल, बीजेपी के सत्ता में रहते धारा 377 का अन्याय दूर करने के लिए कानून बनाना मुश्किल था.

जब कानून बनाकर धारा 377 को खत्म करने या उसमें बदलाव की मेरी कोशिश विफल रही तो तब मैंने उम्मीद जाहिर की थी कि न्यायपालिका पर सही सोच हावी होगी और अदालतें इस प्रावधान को खत्म कर देंगी.

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सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय गौरव को बहाल किया

सुप्रीम कोर्ट से आई अच्छी खबर इस बात की पुष्टि करती है कि भारत की सबसे बड़ी अदालत का कानूनों की ऐसी व्याख्या करने का उम्दा रिकॉर्ड है जिससे जिससे देश में मानवाधिकारों का दायरा बढ़ता है. उम्मीदें हैं कि सुप्रीम कोर्ट लगातार इस तरह के विचारों पर कायम रहेगा. जिससे हर नागरिक के अधिकार सुरक्षित रहें.

धारा 377 के खिलाफ याचिकाओं की सुनवाई करने वाली पीठ के जजों में से एक जस्टिस रोहिंटन फली नरीमन के शब्द खासकर दिल को छूने वाले थे

असल में मौलिक अधिकारों का मकसद ही ऐसे कानूनों को खत्म करना है जिन्हें बहुसंख्यक वोटों पर निर्भर सरकार खत्म नहीं करेगी. हम कानून खारिज करने के लिए बहुसंख्यक सरकारों के फैसलों का इंतजार नहीं करते. यदि कोई कानून असंवैधानिक है तो उसे खत्म करना अदालत की ड्यूटी है.

इसका फैसले का विकल्प-भारतीय कानून को लोहे के पिंजरे के रूप में काम करने देना होता. जिसमें पहचान और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कमजोर पड़ती जो हमारे लोकतंत्र की बुनियाद है. यही नहीं ये सोच भारत को अंतरराष्ट्रीय समुदाय में अधिकतर देशों से दूर कर देती. सुप्रीम कोर्ट का धन्यवाद कि आज सारे भारतीय लोकतंत्रवादी – मात्र LGBT समुदाय ही नहीं – अपना सिर गर्व से ऊंचा कर सकते हैं और गरिमा और आजादी के साथ चल सकते हैं.

(संयुक्त राष्ट्र के पूर्व अवर महासचिव शशि थरूर कांग्रेस के सांसद और लेखक हैं. उनसे @ShashiTharoor पर संपर्क किया जा सकता है. यहां व्यक्त विचार लेखक के स्वयं के हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना ज़रूरी नहीं है.)

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