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3 तरह के संकट से बचने के लिए अयोध्या में रामलला के द्वार पर उद्धव 

उद्धव ठाकरे के पास क्रमश: तीन मंत्र हैं: हिंदुत्ववाद, विकास और मराठा मानुष. 

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महाराष्ट्र में शिवसेना मुश्किल दौर से गुजर रही है. बाला साहेब ने जिस पार्टी को खड़ा किया उसके सामने आज बड़ी चुनौतियां हैं. पार्टी ने नए साथी तो ढूंढ लिए, लेकिन सच तो ये है कि शिवसेना महाराष्ट्र में एक बार फिर अपनी जमीन तलाश रही है. मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे पर पार्टी को तीन बड़े ‘संकट’ से उबारने की जिम्मेदारी है. वो ‘संकट’ हैं- कभी सत्ता में उनकी सहयोगी रही बीजेपी, उन्हें कुर्सी दिलाने वाली कांग्रेस और मौके की तलाश में तैयार बैठी MNS. इन तीनों का सामना करने के लिए उद्धव के पास 3 मंत्र हैं- हिंदुत्ववाद, विकास और मराठा मानुष.

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हिंदुत्ववाद से बीजेपी का सामना करेंगे उद्धव

कांग्रेस और एनसीपी से हाथ मिलाकर शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री तो बन गए लेकिन बहुत बड़ी असमंजस में फंस गए. इस फैसले से शिवसेना का हिंदुत्ववाद खतरे में पड़ गया. क्योंकि एक तरफ वो अपने पुराने हिंदुत्ववादी मित्र से किनारा कर रहे थे, तो दूसरी तरफ उस पार्टी को गले लगा रहे थे जिसे हिंदुत्ववाद से परेशानी है. यही वजह है महाराष्ट्र के चुनाव परिणाम आने के बाद भी सत्ता के समीकरण पर लंबी खींचतान चलती रही. अगर बीजेपी ने झटका देकर 80 घंटे के लिए मुख्यमंत्री पद ना ‘छीना’ होता, तो ना जाने महाराष्ट्र के मौजूदा सियासत की तस्वीर क्या होती.

उद्धव ठाकरे के पास क्रमश: तीन मंत्र हैं: हिंदुत्ववाद, विकास और मराठा मानुष. 
आज भी शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस का यह गठबंधन इसलिए जारी है क्योंकि तीनों पार्टियां एक एजेंडा पर पूरी तरह सहमत हैं. और वो एजेंडा है ‘हर हाल में बीजेपी को सत्ता से दूर रखना
(फोटो: PTI)

आज भी शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस का यह गठबंधन इसलिए जारी है क्योंकि तीनों पार्टियां एक एजेंडा पर पूरी तरह सहमत हैं. और वो एजेंडा है ‘हर हाल में बीजेपी को सत्ता से दूर रखना.’

हिंदुत्व की तिलांजली का मतलब शिवसेना को खतरा

लेकिन शिवसेना को वर्तमान के साथ अपने भविष्य की भी चिंता है. और हिंदुत्व के मुद्दे की तिलांजली का मतलब है शिवसेना के जनाधार को खतरा. यही वजह है सीएम बनने के बाद उद्धव ठाकरे बार-बार हिंदुत्व पर बयान दे रहे हैं. 7 मार्च को अयोध्या में भी ऐसा ही हुआ. अपनी सरकार के 100 दिन पूरा होने के मौके पर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पूरे तामझाम के साथ मुंबई से राम की नगरी आए और रामलला के दर्शन के बाद ऐलान कर दिया कि ‘मैं बीजेपी से अलग हुआ, हिंदुत्व से नहीं.’ साथ ही हिंदुत्व पर बीजेपी के अधिकार पर भी उद्धव ने सवाल उठाया. कहा, ‘बीजेपी हिंदुत्व नहीं है, हिंदुत्व अलग है और मैं हिंदुत्व से अलग नहीं हुआ.’

उद्धव राजनीति का वो बाण चला रहे थे जिससे एक बार में दो लक्ष्य भेदा जाता है. एक तरफ वो बीजेपी को हिंदुत्व से अलग कर रहे थे, दूसरी तरफ वो खुद हिंदुत्व पर अपना दावा ठोक रहे थे.

हिंदुत्व में उनकी आस्था पर किसी को शक ना रह जाए इसलिए अयोध्या दौरे में उद्धव ठाकरे ने राम मंदिर के निर्माण के लिए 1 करोड़ रुपये के सहयोग का भी ऐलान कर दिया. शिवसेना अध्यक्ष ने लोगों को याद दिलाया कि वो पिछले डेढ़ साल में तीन बार अयोध्या आए हैं और बार-बार आएंगे. यह भी याद दिला गए कि उनके पिताजी बाला साहेब ठाकरे भी कभी यहां आए थे और राम मंदिर आंदोलन से समय महाराष्ट्र के गांव-गांव से यहां पत्थर भेजे गए. उद्धव का इशारा साफ था ‘लोग ये ना भूलें कि राम मंदिर आंदोलन में शिवसेना ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था और अयोध्या में अब बनने वाले मंदिर का श्रेय सिर्फ बीजेपी को नहीं जाता.’

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बीजेपी से मुकाबला

हिंदुत्व के बगैर शिवसेना का कोई भविष्य नहीं है. ‘मराठा मानुष’ के मुद्दे पर वजूद में आई इस पार्टी में खुद शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे ने हिंदुत्व की नींव डाली थी. जिसके बाद महाराष्ट्र में पार्टी का विस्तार मुमकिन हुआ. और बाल ठाकरे ‘हिंदू हृदय सम्राट’ कहे जाने लगे. लेकिन विडंबना यह है कि कभी महाराष्ट्र में बीजेपी के बड़े भाई के किरदार में रही पार्टी की हैसियत अब छोटे भाई की हो गई है. आंकड़ों पर गौर करें तो 1990 के विधानसभा चुनाव में जब पहली बार दमखम के साथ दोनों पार्टी चुनाव जीत कर आई (हालांकि सरकार कांग्रेस की बनी) तो जहां बीजेपी को 42 सीटें हासिल हुई थी, शिवसेना ने 52 विधानसभा सीटें जीत ली थी.

अगली बार 1995 में बीजेपी-शिवसेना के पास सरकार बनाने के नंबर आए तो सीएम शिवसेना के मनोहर जोशी बने क्योंकि शिवसेना (73) के पास बीजेपी (65) से 8 ज्यादा विधायक थे. फिर अगले तीन विधानसभा चुनावों में कांग्रेस-एनसीपी की सरकार बनती रही. 2009 के चुनाव में बीजेपी, शिवसेना से एक सीट से आगे निकल गई.

गौर करने की बात ये है कि 2003 में शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे के बीमार रहने की वजह से उद्धव ठाकरे ने बतौर कार्यकारी अध्यक्ष पार्टी की कमान संभाली थी. और एक साल बाद, 2004 में, जब महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव हुए तब भी आंकड़ा 62-54 से शिवसेना के हक में था.

बाला साहेब ठाकरे के बाद शिवसेना का पतन

लेकिन 2012 में बाल ठाकरे के देहांत के बाद बाजी पूरी तरह बीजेपी के पक्ष में पलट गई. 2014 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने 122 सीटों पर जीत हासिल की तो शिवसेना के झोली में इससे लगभग आधी सीटें (63) आईं. क्योंकि मोदी लहर में हिंदुत्व पर बीजेपी का कब्जा हो चुका था. इस बार सीएम भी बीजेपी के देवेन्द्र फडणवीस बने. और पांच साल बाद 2019 के विधानसभा चुनाव में भी शिवसेना की हालत में कोई खास सुधार नहीं हुआ. एनडीए गठबंधन की सीटें कम हुई, लेकिन बीजेपी और शिवसेना का अनुपात एक बार फिर दोगुना (105:56) का रहा.

साफ है उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में शिवसेना कमजोर हुई. इसलिए अब पार्टी को सिर्फ हिंदुत्व का सहारा है. लेकिन कांग्रेस-एनसीपी के समर्थन से बनी सरकार में उद्धव ठाकरे हिंदुत्व की बात दबी जुबान में करने को मजबूर हैं. कांग्रेस आलाकमान शिवसेना से नजदीकियां बढ़ाने से बचते हैं. जब उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री की शपथ ली तो गांधी परिवार से कोई भी उस समारोह में शामिल नहीं हुआ.

कांग्रेस को डर है कि शिवसेना से गहरी साठगांठ से उसकी छवि खराब हो सकती है. वोट बैंक बिगड़ सकता है. शिवसेना भी फूंक-फूंक कर कदम रख रही है, ताकि कांग्रेस से तालमेल बना रहे और महाआघाड़ी की सरकार चलती रहे. मुखपत्र ‘सामना’ के जरिए शिवसेना लगातार मोदी सरकार पर हमलावर है. CAA-NRC-NPR जैसे बीजेपी के अहम मुद्दों पर उद्धव ठाकरे खुलकर सरकार की खिंचाई करते हैं, लेकिन इतनी गुंजाइश भी रखते हैं कि हिंदू वोटर नाराज ना हो जाए.

2019 के विधानसभा चुनाव परिणाम को अगर गौर से देखें तो ठाणे-कोंकण और मुंबई के इलाकों को छोड़कर शिवसेना पूरे महाराष्ट्र में अपना जनाधार खो चुकी है. विदर्भ और पश्चिम महाराष्ट्र के हिस्सों में तो हालत ये रही कि शिवसेना चौथे नंबर की पार्टी हो गई, वहीं उत्तरी महाराष्ट्र में बीजेपी और एनसीपी के बाद तीसरे नंबर की पार्टी बन गई. गौर करने वाली बात ये है कि महाराष्ट्र के इन इलाकों में किसानों की समस्या सबसे बड़ा मुद्दा है. यहां सिर्फ हिंदुत्व के बल पर पार्टी अपना वोट बैंक मजबूत नहीं कर सकती. यही वजह है कि महाराष्ट्र के बजट में उद्धव ठाकरे की सरकार ने किसानों के लिए पिटारा खोल दिया है.

किसानों ने जमीन अधिग्रहण को लेकर मोदी सरकार के बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट का विरोध किया तो उद्धव ठाकरे उनके समर्थन में आ गए. पीएम मोदी के ड्रीम प्रोजेक्ट की तुलना 'सफेद हाथी' से करते हुए सीएम साहब ने उस पर रोक लगा दी, उद्धव ने कहा, ‘बिना किसी कारण किसानों की जमीन लेना सही नहीं है’. उद्धव की नजर दलित वोटरों पर भी है. महाराष्ट्र के दलितों का दिल जीतने के लिए राज्य सरकार ने 2018 के भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में 348 केस वापस ले लिया.

उद्धव ठाकरे के पास क्रमश: तीन मंत्र हैं: हिंदुत्ववाद, विकास और मराठा मानुष. 
बतौर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे विकास पुरुष बनकर उभरना चाहते हैं
(फोटोः AP)

बतौर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे विकास पुरुष बनकर उभरना चाहते हैं. इसलिए महाआघाड़ी की सरकार में उन्हें जो भी मौका और मोहलत मिली है उसका भरपूर इस्तेमाल करते हुए वो अपनी पार्टी का जनाधार बढ़ाने की कोशिश में लगे हैं. उद्धव जानते हैं कि मौजूद हालात में अगर सियासत में बने रहना है तो सिर्फ हिंदुत्व का सहारा काफी नहीं है. इसलिए वो समाज के हर तबके तक पहुंच कर शिवसेना की जड़ें मजबूत करना चाहते हैं.

एमएनएस के मुकाबले के लिए मराठा मानुष का मुद्दा

महाराष्ट्र में शिवसेना की ताकत कम हुई तो अब तक शांत बैठे राज ठाकरे अचानक हरकत में आ गए. हिंदुत्व का नारा बुलंद करते हुए महाराष्ट्र नवनिर्माण पार्टी का नया झंडा लॉन्च किया. एमएनएस के केसरिया झंडे में शिवाजी महाराज के राजमुद्रा का लोगो भी बना है. यानि हिंदुत्व के साथ मराठा मानुष के मुद्दे पर राज ठाकरे लगातार शिवसेना के लिए एक चुनौती बने हैं. हिंदू वोटरों को लुभाने के लिए पिछले कुछ दिनों में एमएनएस ने बांग्लादेशी घुसपैठियों के खिलाफ महाराष्ट्र में अलग-अलग जगहों पर मोर्चा खोल दिया है.

उद्धव ठाकरे के पास क्रमश: तीन मंत्र हैं: हिंदुत्ववाद, विकास और मराठा मानुष. 
बेटे आदित्य के साथ शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे
(फोटोः @OfficeofUT)

यह चुनौती पारिवारिक स्तर पर भी लागू होता है. सीएम उद्धव ठाकरे ने अपने बेटे आदित्य को मंत्री बनाया तो उनके भाई राज ठाकरे ने अपने बेटे अमित ठाकरे को राजनीति में एंट्री दे दी. लेकिन उद्धव ठाकरे ने भी अपनी तैयारी पूरी कर रखी है. मराठा वोट बैंक कायम रखने के लिए उद्धव ने महाराष्ट्र के बजट में ना सिर्फ 5 लाख लोगों को नौकरी का भरोसा दिया बल्कि स्थानीय लोगों के लिए 80% आरक्षण भी तय कर दिया. इतना ही नहीं बजट से कुछ दिन पहले उद्धव सरकार ने मराठा आरक्षण आंदोलन के दौरान दर्ज 548 मामलों से 460 वापस ले लिए.

महाराष्ट्र में शिवसेना को फिर से खड़ा करने के लिए सबसे जरूरी है कि उद्धव ठाकरे सीएम पर बने रहें, इसके लिए कांग्रेस-एनसीपी का उनके साथ बने रहना बेहद जरूरी है. लेकिन जिस तरह वीर सावरकर और इंदिरा गांधी को लेकर कांग्रेस के साथ और भीमा कोरेगांव हिंसा की जांच को लेकर एनसीपी के साथ शिवसेना की अंदरूनी अनबन बढ़ी, शिवसेना और कांग्रेस-एनसीपी के बीच विचारधारा के फर्क को काबू में रखकर पांच साल सरकार चलाना कोई आसान काम नहीं है.

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