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संडे व्यू : जो होते टीएन शेषन, नेता मतदाताओं के हाथ में कटोरा थमा रहे

Sunday View में पढ़ें आज करन थापर, शशांक चतुर्वेदी, डेविड एन जेल्नर, संजय कुमार पांडे, पी चिदंबरम, तवलीन सिंह, रामचंद्र गुहा के विचारों का सार.

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अगर टीएन शेषन चुनाव आयोग होते 

हिन्दुस्तान टाइम्स में करन थापर ने टीएन शेषन को अलग तरीके से याद किया है. “मैं सख्त हूं और मैं सख्त हो सकता हूं लेकिन मैं हमेशा निष्पक्ष और पारदर्शी हूं. आप जो देखते हैं, वही आपको मिलता है. मेरा कोई पक्ष नहीं है.” वे आगे कहते थे, “जब भी मैं इस कुर्सी पर बैठूंगा तो मुझे एक काम करना होगा और मैं इसे अपनी सर्वोत्तम क्षमता से करूंगा. जंगली घोड़े मुझे नहीं रोक सकते.” निस्संदेह प्यार से उन्हें ‘बुलडॉग शेषन’ कहा जाता था. इस उपनाम का वे पूरा आनंद लेते थे.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बांसवाड़ा भाषण को एक महीना बीत चुका है. दो हफ्ते में मतदान समाप्त हो जाएगा लेकिन आयोग ने उन आरोपों के जवाब में बमुश्किल कार्रवाई की है. पीएम ने आदर्श आचार संहिता का खुलेआम उल्लंघन किया है. 

ठंडा इलेक्शन एकतरफा इलेक्शन 

शशांक चतुर्वेदी, डेविड एन जेल्नर और संजय कुमार पांडे ने हिन्दुस्तान टाइम्स में ‘ठंडा इलेक्शन’ का कारण समझने-समझाने की कोशिश की है. त्रिमूर्ति लेखकों ने इसका कारण सत्ता में राजनीतिक परिवर्तन के प्रति जनता की अनिच्छा से जोड़ा है.

अलग-अलग चुनाव चरणों में बीजेपी ने अलग-अलग संदेश देकर भी इसमें योगदान किया है. लेखक के ग्रुप ने लिखा है कि यूपी में 2024 के लोकसभा चुनाव के दो पहलू ध्यान देने योग्य हैं- एक, जिस तरह से बीजेपी ने अपनी अजेय स्थिति हासिल की है, उसे हम चुनावी प्रभुत्व का गुजरात मॉडल कह सकते हैं और दूसरा, राज्यभर में किसी अन्य व्यापक विषय के अभाव में ‘कानून और व्यवस्था’ की प्रमुखता और इसलिए योगी आदित्यनाथ की प्रशंसा की जा रही है.

बीजेपी पदाधिकारी के हवाले से लेखक समूह ने बताया है कि जनवरी में राम मंदिर निर्माण के समय उठी ‘मोदी लहर’ का शिखर बहुत जल्द समाप्त हो गया. वास्तविक मतदान आते-आते उदासीनता बढ़ गई.

लेखक समूह ने नोट किया कि पहले दो चरणों में मुस्लिम मतदाता चुप रहे. मुस्लिम मोहल्लों में छोटी बैठकें बहुत कम हुईं. एक पार्टी के लिए एक साथ वोट करने का उत्साह कम हो गया. बीएसपी की शिथिलता के बीच सपा-कांग्रेस गठबंधन के अपने वांछित परिणाम मिलने की संभावना नहीं है.

कम मतदान प्रतिशत या पीएम मोदी की घटती लोकप्रियता को लेकर चाहे जो भी अटकलें लगाई जा रही हों लेकिन जमीनी स्तर पर बीजेपी यूपी और अंतत: पूरे उत्तर भारत का गुजरातीकरण करने का प्रयास कर रही है. बूथ और जिला स्तर पर विपक्षी दलों के नेताओं को बीजेपी में शामिल कराया जाना इसका प्रमाण है. इससे विपक्ष के मनोबल पर बुरा असर पड़ा है. 

कांग्रेस 2022 के विधानसभा चुनावों में 6% वोट शेयर के साथ लोकसभा चुनाव में 17 सीटों पर लड़ रही है. यह अपने अस्तित्व और अस्मिता की लड़ाई लड़ रही है. यूपी में विपक्षी दलों के मतदाताओं और समर्थको में संभावित हार के कारण उदासीनता दिखी.

एक वोटर के हवाले से लेखक समूह ने 1990 के दशक में बिहार और यूपी में सवर्ण वोटरों में आई उदासीनता की याद दिलाई, जिन्होंने वोट देना कम कर दिया था. अब ये वोटर अपने घरों से बाहर निकल रहे हैं.

एक अन्य वोटर के हवाले से लेखक समूह ने लिखा है कि 400 पार के मोदी के नारे पर इंडिया गठबंधन के हमले का मुकाबला करने के लिए जानबूझकर हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष का मुद्दा उठाया गया.  

भैंसों पर विरासत कर 

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि बेरोजगारी, महंगाई, सांप्रदायिक विभाजन, असमानता, कानूनों का हथियार की तरह इस्तेमाल करना और जांच एजेंसियों का दुरुपयोग, महिलाओं के खिलाफ अपराध, भारतीय क्षेत्र पर चीनी सैनिकों का कब्जा, धन के हस्तांतरण में भेदभाव और मीडिया की अधीनता जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे विपक्ष ने उठाए हैं. मोदीजी ने इन मुद्दों को ध्यान भटकाने वाला कहकर खारिज कर दिया.

उन्होंने चतुराई से भैंसों पर विरासत कर के रूप में वास्तविक प्रेरक विचार के साथ अफसाना तैयार कर दिया. लेखक ने व्यंग्य किया है कि ‘एंटायर पॉलिटिकल साइंस’ में वर्षों शोध के बाद यह विचार पैदा हुआ होगा.  

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चिदंबरम सवाल उठाते हैं कि क्या केंद्र सरकार द्वारा इस तरह का कर लगाना संवैधानिक होगा?

वह लिखते हैं कि मवेशियों पर कर लगाने की शक्ति राज्य सरकारों के पास सुरक्षित है. वह यह भी लिखते हैं कि उत्तराधिकार से प्राप्त होकर भैंस संपत्ति बन जाती है. वह लिखते हैं कि ऐसा लगता है कि विरासत कर केवल दो या अधिक भैंसों पर लगाया जाएगा और कर की दर 50 फीसदी हो सकती है. दो भैंसों में एक नर और दूसरा मादा हो तो किसे और कैसे चुना जाएगा? अलग-अलग रंग के होने पर भी यही प्रश्न उठेंगे.

लेखक बताते हैं कि नरेंद्र मोदी सार्वजनिक वित्त, खासकर कराधान सिद्धांतों के गहन ज्ञान के लिए जाने जाते हैं. उन्होंने क्रांतिकारी कर का प्रस्ताव रखा है, जो भविष्य के कर-नवाचारों का मार्ग प्रशस्त करेगा. नकदी-भैंस का दूध निकालने के लिए केंद्र सरकार भैंस-पालन को बढ़ावा देने संबंधी नया कार्यक्रम शुरू कर सकती है. भैसें खेती के लिए मशीनीकृत हलों की जगह ले सकते हैं, जिससे डीजल की बचत होगी. भैसों की खाद हानिकारक रासायनिक उर्वरकों की जगह ले सकती है. भैंस का दूध भारत में पसंदीदा दूध बन सकता है.  

मतदाता के हाथ में कटोरा 

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि इस लोकसभा चुनाव का खतरनाक पहलू यह है कि राजनेता मतदाताओं का वोट मांगने के बदले उनके हाथ में भीख का कटोरा थमा रहे हैं. पांच किलो अनाज के बदले दस किलो अनाज के प्रस्ताव का मतलब यही है.

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कांग्रेस के सबसे आला नेता राहुल गांधी ने एक वीडियो जारी कर कहा है कि उनकी सरकार बनते ही हर गरीब परिवार की महिला के बैंक खाते में हर महीने साढ़े आठ हजार रुपये आने वाले हैं, खटाखट खटाखट खटाखट खटाखट. वे करोड़ों लखपति पैदा करने की भी बात करते हैं. बीजेपी के सबसे महत्वपूर्ण प्रचारक नरेंद्र मोदी भी ‘लखपति दीदियों’ की पूरी सेना तैयार करने का वादा कर रहे हैं. टीवी पर चुनाव प्रचार में भी गैस के चूल्हे, पीने का पानी, शौचालय के लिए पैसे, मुफ्त राशन जैसी बातें प्रमुखता से बताई जा रही हैं

तवलीन सिंह लिखती हैं कि जब चुनाव प्रचार शुरू हुआ तो प्रधानमंत्री वादा किया करते थे ‘विकसित भारत’ बनाने का. अपने लोगों में भीख मांगने की आदत डालकर कोई देश विकसित नहीं हुआ है. देश विकसित, तब होते हैं जब शासक जनता को रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराते हैं.

मुफ्त बिजली-पानी देने का काम करने के अलावा उनको रोजगार भी सरकार ही देगी. लेखक का मानना है कि 1990 के दशक में भारत विकास के रास्ते पर दौड़ने लगा है लेकिन अब ऐसा लगता है कि हमारे शासक हमें वापस उस रास्ते पर ले जाना चाहते हैं जिस रास्ते के अंत में सिर्फ गुरबत है.

"देश के सामने दो रास्ते हैं. एक रास्ता है, जिसमें अर्थव्यवस्था की रफ्तार बढ़ाकर रोजगार और धन पैदा करने को बढ़ावा दिया जाता है ताकि हम विकसित होने का सपना देख सकें. दूसरा है लोगों के हाथों में भीख के कटोरे थमा कर उनको मुफ्त में सबकुछ हासिल करने की आदत डालना. दूसरे रास्ते में न विकास है, न समृद्धि और न ही तरक्की की छोटी-सी किरण."
तवलीन सिंह
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नेहरू और पटेल 

रामचंद्र गुहा ने टेलीग्राफ में पंडित जवाहरलाल नेहरू और वल्लभ भाई पटेल के बीच गहरे रिश्ते और स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कंधे से कंधा मिलाकर काम करने का उल्लेख किया है. नेहरू-पटेल के बीच गहरे मतभेद की बातों के बीच लेखक ने बताया है कि उनमें असहमति थी लेकिन वैसे ही जैसे साथ काम करने वाले दो व्यक्तियों में होती है चाहे वह क्रिकेट टीम के साथी सदस्य हों, विवाह में पति-पत्नी हों या किसी कंपनी में निदेशक हों. संपूर्णता में देखें तो यह सशक्त रूप से साझेदारी थी.

दोनों में बहुत स्नेह था, जिसे नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी के सहयोगियों ने नकार दिया है जो नेहरू को बदनाम करने और उनकी कीमत पर पटेल को ऊपर उठाने का कोई मौका नहीं चूकते.  

रामचंद्र गुहा बताते हैं कि नेहरू-पटेल एक साथ जेल में रहे, स्वतंत्र भारत की पहली कैबिनेट में भी वे साथ रहे. नये राष्ट्र के रूप मे जन्म लेते समय भारत गृहयुद्ध, अभाव और अभाव की पृष्ठभूमि में जाति, वर्ग और लिंग की गहरी असमानताएं झेल रहा था. पांच सौ रियासतों के एकीकरण की समस्या, करोड़ों शरणार्थियों के पुनर्वास की समस्या. फिर भी 1947 से 1950 के बीच सबको लोकतांत्रिक ढांचे मे लाया गया. यह कई उल्लेखनीय देशभक्तों का काम था, जिनमें शायद नेहरू और पटेल सर्वोपरि थे.
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पटेल की चिट्ठी के हवाले से लेखक ने बताया है, “एक-दूसरे को इतने घनिष्ठ और गतिविधि के विविध क्षेत्रों में जानने के बाद हम स्वाभाविक रूप से एक-दूसरे के प्रति स्नेही हो गए हैं. जैसे-जैसे साल आगे बढ़े हैं, हमारा आपसी स्नेह बढ़ा है और लोगों के लिए यह कल्पना करना मुश्किल है कि जब हम अलग होते हैं और अपनी समस्याओं और कठिनाइयों को हल करने के लिए एक साथ सलाह लेने में असमर्थ होते हैं तो हम एक-दूसरे को कितना याद करते हैं.” 

रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद कांग्रेस के आकाओं ने सोच-समझकर उत्तराधिकारी के रूप में इंदिरा गांधी को चुना. 1974 में राष्ट्रीय पुलिस अकादमी का नाम सरदार के नाम पर इंदिरा गांधी ने रखा. हालांकि, उन्होंने अपने पिता की स्मृति को बढ़ावा देने पर अधिक जोर दिया. जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तो पटेल की कीमत पर नेहरू के महिमामंडन को और अधिक प्रोत्साहन मिला. इंदिरा और राजीव ने कांग्रेस के इतिहास को एक परिवार की कहानी बनाने का काम शुरू किया. 1998 में कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद सोनिया गांधी ने इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाया. इन सबके बीच मोदी और बीजेपी के पास जवाहरलाल नेहरू को नापसंद करने के अपने कारण हैं. नेहरू की धर्मनिरपेक्षता उनके बहुसंख्यकवाद पर भारी पड़ती है. 

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