(चेतावनी: रेप/यौन उत्पीड़न का विवरण, जैसा कि ज्यूडिशियल रिकॉर्ड में दिया गया है)
इस हफ्ते की शुरुआत में गोवा सेशन कोर्ट ने तहलका के पूर्व एडिटर-इन-चीफ तरुण तेजपाल को 2013 में अपनी एक कलीग के कथित बलात्कार से मामले में सभी मामलों से बरी कर दिया.
इस फैसले में त्रुटिपूर्ण तर्कों का इस्तेमाल किया गया है. यह इस बात की मिसाल है कि व्यवस्था यौन उत्पीड़न से उबरने वालों की हिफाजत नहीं कर सकती. खासकर, जब एक पक्ष ताकतवर हो, और दूसरा नहीं.
नवंबर 2013 में शिकायत करने वाली लड़की यानी मुद्दई और आरोपी, दोनों तहलका के थिंकफेस्ट के सिलसिले में गोवा के एक होटल में थे. वह लड़की तेजपाल, जोकि उस समय मैगजीन का एडिटर-इन-चीफ था, के सुपरविजन में काम करती थी.
तेजपाल पर आरोप था कि किसी मेहमान से मिलने के नाम पर वह उस लड़की को दो बार लिफ्ट में ले गया और दोनों बार लिफ्ट में उसे सेक्सुअली असॉल्ट किया. मुद्दई के अनुसार, 7 नवंबर 2013 को तेजपाल ने उसकी मर्जी के बिना उसे किस किया, उसके अंडरवियर को खींचकर उतारा और फिर उंगलियों और जीभ से पेनेट्रेटिंग करते हुए उसका रेप किया. 8 नवंबर 2013 को तेजपाल ने एक बार फिर जबरदस्ती उसे किस किया, उसकी ड्रेस को उठाया और उसके कूल्हों को छुआ.
तेजपाल पर दोषपूर्ण अवरोध और परिरोध (सेक्शन 341 और 342), यौन उत्पीड़न (सेक्शन 354ए), महिला को अपमानित करने के लिए उस पर हमला/आपराधिक बल का प्रयोग (सेक्शन 354), और विश्वास/अधिकार और महिला पर नियंत्रण/प्रभुत्व की स्थिति में होने के कारण गंभीर बलात्कार (सेक्शन 376 (2)(के) और 376 (2)(के), आईपीसी) के तहत मामले दर्ज किए गए.
तेजपाल ने इस बात से इनकार नहीं किया कि सेक्सुअल एन्काउंटर नहीं हुआ था. लेकिन यह तर्क दिया कि उसने एक ईमेल के जरिए लड़की से माफी मांगी थी. क्योंकि उसे इस बात का बिल्कुल भी इल्म नहीं था कि इस मामले में लड़की की “दूर दूर तक कोई सहमति नहीं थी.”
कपड़े को ‘ऊपर खींचना’ या ‘ऊपर उठाना’, क्या सच में इससे कोई फर्क पड़ता है
जैसा कि ज्यादातर यौन उत्पीड़न के मामलों में होता है, उस उत्पीड़न का कोई चश्मदीद गवाह या वीडियो फुटेज नहीं था.
मुद्दई की गवाही सबसे महत्वपूर्ण थी और फैसले में यह कहा गया है कि दोष सिद्ध करने के लिए यह काफी है, अगर गवाही ‘स्टेरलिंग क्वालिटी’ की हो, यानी एकदम सही हो.
लेकिन फैसले में इस गवाही को रद्द किया गया है और आरोपी को सभी आरोपों से बरी कर दिया गया है- उसमें सर्वाइवर के बयानों के बेमेल होने पर ध्यान दिया गया है जोकि कथित उत्पीड़न के लिए गैरजरूरी हैं.
जैसे पुलिस और मेजिस्ट्रेट को दिए गए शुरुआती बयान में लड़की ने कहा था कि उसने अपने अंडरवियर को ‘ऊपर खींचा’ जोकि उसके टखनों तक आ गया था और लिफ्ट से निकलने की कोशिश की. जबकि दफ्तर में अपने सीनियर को शिकायत करते हुए उसने बताया था कि उसने अपना अंडरवियर ‘ऊपर उठाया था’.
कुछ और चूक भी बताई गई. जैसे पहली घटना के तुरंत बाद उसने अपने कलीग्स को इस उत्पीड़न के बारे में बताया लेकिन उसने पेनेट्रेशन का जिक्र नहीं किया.
अगर इन विसंगतियों को ‘मैटीरियल’ के तौर पर माना भी जाए तो भी फैसला इस बात को सही नहीं ठहराता कि उसने तेजपाल को यौन उत्पीड़न से बरी क्यों कर दिया.
इसके अलावा, इन विसंगतियों पर चर्चा करके, फैसला न सिर्फ इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि तेजपाल के खिलाफ अपर्याप्त सबूत हैं, बल्कि यह नतीजा भी निकलता है कि लड़की जान-बूझकर झूठ बोल रही है.
ऐसा करके, लगता है कि फैसला उस लड़की को ही कटघरे में खड़ा करता है, जबकि आरोपी को मिले संदेह के लाभ पर चर्चा की कोई गुंजाइश नहीं बचती.
‘अगर वह उसे धक्का दे रही थी तो घबराई और डरी हुई कैसे थी’
इसके अलावा यह फैसला मर्दवादी सोच को ही पुख्ता करता है. इसमें इस बात का जिक्र है कि यौन उत्पीड़न से उबरने वाली किसी लड़की का ‘आदर्श’ बर्ताव कैसा होना चाहिए. अक्सर किसी हास्यास्पद नतीजे पर पहुंचने के लिए ऐसे ही तर्कों का इस्तेमाल किया जाता है.
जैसे कि लड़की ने आरोप लगाया था कि तेजपाल ने उसे लिफ्ट की दीवार की तरफ धक्का दिया और जबरदस्ती उसे किस करने लगा. इस आरोप पर फैसला सुनाते हुए सवाल किया गया कि अगर लड़की तेजपाल की तरफ मुंह करके नहीं खड़ी थी या उससे बात नहीं कर रही थी तो क्या यह मुमकिन था कि तेजपाल हमला करने से पहले उसका मुंह खोले और अपनी जीभ उसमें घुसाए.
फैसले में इस बात पर भी सवाल किए गए कि उसने अपना जबड़ा कसकर क्यों बंद नहीं किया.
फैसला कहता है कि यह बिल्कुल सोचा नहीं जा सकता कि ‘कानूनी रूप से जानकार, बुद्धिमान, सतर्क और शारीरिक रूप से तंदुरुस्त’ महिला ने तेजपाल को धक्का नहीं दिया, इससे पहले कि वह उसे किस करता. चूंकि लड़की ने यह दावा किया था कि उसके बाद उसने तेजपाल को धक्का दे दिया.
दूसरी बात, फैसले में लड़की के इस बयान पर भरोसा नहीं किया गया है कि वह ‘घबराई हुई थी’ और आरोपी से ‘डरी हुई थी’ क्योंकि उसने कहा था कि वह तेजपाल को दूर करने के लिए धक्का दे रही थी.
तेजपाल की ‘माफी’ पर फैसले में क्या कहा गया है
फैसले में कहा गया है कि माफी वाले ईमेल में तेजपाल लिफ्ट में हुई घटना का जिक्र नहीं कर रहा होगा. उसमें कहा गया है कि लड़की के धक्का देने पर तेजपाल को लगा होगा कि वह परेशान थी लेकिन ईमेल में तेजपाल ने लिखा था कि वह ‘नहीं जानता था कि वह परेशान थी’.
इसकी बजाय फैसले में कहा गया है कि तेजपाल की माफी में लिफ्ट के बाहर ‘नशे में किए गए किसी मजाक’ का जिक्र हो सकता है. फैसला कहता है कि मुद्दई ने ‘नशे में मजाक’ की बात मानी थी क्योंकि उसका दावा था कि तेजपाल अक्सर ‘सेक्सुअल कलर वाली टिप्पणियां’ किया करता था.
उसने तेजपाल के ईमेल पर जवाब देते हुए इस बात से इनकार किया कि वे लोग लिफ्ट में घुसने से पहले सेक्स या वासना की बातें कर रहे थे. उसने कहा कि दरअसल, तेजपाल खुद ही उससे उसके काम के बजाय सेक्स या वासना की बातें करना शुरू करता था.
यहां यह कहना जरूरी है कि किसी की गिरफ्तारी के लिए बड़े सबूतों की जरूरत होती है, और होनी भी चाहिए. इसके अलावा उचित प्रक्रिया का पालन भी किया जाना चाहिए. फैसले में सही कहा गया है कि अनुच्छेद 21 के तहत निष्पक्ष जांच का हक है और इस जांच में कई कमियां हैं, जैसे सभी फ्लोर्स के सीसीटीवी फुटेज नहीं जब्त किए गए.
हालांकि गवाहियों को अनदेखा करके, इन कमियों पर ज्यादा ही जोर दिया गया है.
आदर्श ‘पीड़ित’ कैसा होता है
फैसले में लड़की से क्रॉस-क्वेश्चन में किए गए कई सवालों को रद्द कर दिया गया है. इस आधार पर कि नए एविडेंस एक्ट संशोधनों के तहत उसका पूर्व चरित्र प्रासंगिक नहीं है.
इसके बावजूद यह स्पष्ट नहीं है कि लड़की का व्यवहार- कि वह अपने दोस्तों और जानने वालों से सेक्स के बारे में अक्सर बात किया करती थी- फैसले को कैसे प्रभावित करता है. चूंकि फैसले में कहा गया है कि वह उस रात आरोपी से इश्कमिजाजी (फ्लर्टियस) भरी बातें कर रही थी.
इसी तरह कांफ्रेंस के दौरान लड़की दूसरे लोगों के साथ सेक्सुअल बर्ताव कर रही थी, इस आधार पर यह फैसला सुनाया गया है कि वह ‘सर्वाइवर’ जैसा बर्ताव नहीं कर रही थी.
‘मॉडल विक्टिमहुड’ कैसा होना चाहिए, इसका विश्लेषण करने के लिए अदालत ने कुछ और परेशान करने वाली बातें कही हैं. जैसे शराब के साथ लड़की की तस्वीरें, पार्टी में उसकी मौजूदगी और सेक्स के बारे में बात करना- इसके आधार पर यह नतीजा निकाला गया है कि यहां विक्टिम ऐसी नहीं, जैसी आम तौर पर होनी चाहिए. और इस तरह घुमा-फिराकर लड़की के चरित्र पर सवाल खड़े किए हैं.
वकील होने के नाते, यह कहना होगा कि क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम से जुड़े कई पहलुओं में सुधार की कोई मांग नहीं की गई. ऐसा तंत्र जोकि यौन हिंसा के सर्वाइवर्स और पीड़ितों की क्षतिपूर्ति, स्वास्थ्य देखभाल और कल्याण से ज्यादा अपराधी की गिरफ्तारी पर केंद्रित है.
लेकिन यह फैसला न्याय की उस संकरी व्यवस्था को भी भूल जाता है. इसकी बजाय फरियादी को ही कटघरे में खड़ा करता है.
सर्वाइवर की पहचान का खुलासा क्यों
इस संबंध में यह बात खास तौर से परेशान करने वाली है कि सर्वाइवर की पहचान का खुलासा न करने की कोई कोशिश नहीं की गई.
सुप्रीम कोर्ट यह निर्देश दे चुका है कि यौन हिंसा के पीड़ितों का नाम, और उनकी पहचान का खुलासा करने वाले विवरण नहीं छापे जाएंगे, और अगर ऐसा होगा तो कानून पीड़ितों की हिफाजत करेगा. लेकिन सेशन कोर्ट के फैसले में लड़की का पूरा विवरण है.
इसमें लड़की के पति का नाम है, और दूसरी पहचान भी, जैसे उसके लिखे हुए आर्टिकल्स के टाइटिल्स. इसके अलावा उसे या उसके कॉन्टैक्ट को भेजे गए मैसेजेज में उसके नाम का संदर्भ दिया गया है.
हालांकि यह जानकारी मिली है कि गोवा में बॉम्बे हाई कोर्ट में इस संबंध में अपील दायर की गई है और सेशन जज को निर्देश दिए गए हैं कि पहचान का उचित तरीके से संपादित किया जाए.
महिला होने के नाते, हममें से कई ने फैसला पढ़ा है और अपने अनुभवों के आधार पर उसका आकलन किया है.
किसी फैसले पर आप कैसे प्रतिक्रिया देते हैं, वह कई बार किसी व्यक्ति की जाति और वर्ग पर निर्भर करता है. किसी घटना पर कोई कितनी जल्दी और दिलेरी से बोल सकता है- ऐसा करने के लिए उसके पास कितनी आर्थिक ताकत है, क्या उसकी पहुंच इतनी है कि वह लीगल सलाह ले सके, मुकदमे के दौरान उसके दोस्तों, परिवार वालों और कलीग्स का सहयोग.
तेजपाल मामले में सर्वाइवर के पास कई प्रिविलेज थे, जोकि हममें से ज्यादातर लोगों के पास नहीं होते.
लेकिन इन्हीं प्रिविलेजेज़ को उसके खिलाफ हथियार बनाया गया- वह कानून की जानकार थी, इसके आधार पर उसके बयानों की विसंगतियों की ज्यादा से ज्यादा जांच की गई, और चूंकि उसने अपने वकीलों से बातचीत की, इसलिए यह कहा गया कि उसका बयान मनगढ़ंत है.
अक्सर यौन हिंसा के सर्वाइवर्स को उचित प्रक्रिया यानी ‘ड्यू प्रोसेस’ का इस्तेमाल करने की सलाह दी जाती है- खास तौर से #MeToo पोस्ट्स के खिलाफ मानहानि के मुकदमों को देखते हुए. और यह देखते हुए कि काम करने वाली जगहों पर यौन उत्पीड़न के लिए शिकायत निवारण प्रणाली नहीं बनाई जाती.
ऐसे फैसले बताते हैं कि ‘ड्यू प्रोसेस’ की व्यवस्था कितनी अव्यवस्थित है. इसकी बजाय यौन उत्पीड़न के सर्वाइवर्स के लिए न्याय और मुआवजे की कोई दूसरी व्यवस्था करना कितना जरूरी है.
(नितिका खेतान और संजना श्रीकुमार दिल्ली में रहने वाली वकील हैं. यह एक ओपनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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