1996 में दिल्ली के पत्रकारों के लिए बड़ी खबरें पाने के तीन ही ठिकाने थे- सीपीएम मुख्यालय एके गोपालन भवन, आंध्रा भवन और तमिलनाडु के उस समय के बड़े नेता जीके मूपनार का वेस्टर्न कोर्ट वाला निवास.
एके गोपालन भवन के उस समय के बॉस हरकिशन सिंह सुरजीत के इशारे पर प्रधानमंत्री के फैसले पलटे जाते थे. आंध्रा भवन के उस समय के मुखिया नारा चंद्रबाबू नायडू की नेगोशिएटिंग स्किल्स की लोग दाद दिया करते थे और मूपनार की बात जो पत्रकार ठीक ढंग से समझ जाता था, उसको बड़ी खबर मिल जाती थी.
वो समय देश में राजनीतिक अजूबों का था और तीसरे मोर्चे का गोल्डन पीरियड था. तीसरा मोर्चा, यानी गैर कांग्रेस और गैर बीजेपी पार्टियों का गठबंधन.
जरा सोचिए, कितने अजूबे हुए थे. 1996 की लोकसभा में सबसे ज्यादा 161 सीटें जीतनी वाली बीजेपी की सरकार 13 दिन चली. 140 सीट पाकर दूसरी सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस ने सरकार बनाने की कोशिश नहीं की. प्रधानमंत्री उस पार्टी के नेता बने, जिसके पास लोकसभा में महज 46 सीट थी. और तो और, उस समय जनता दल के प्रधानमंत्री बने एचडी देवगौड़ा अपनी ही पार्टी के सबसे ताकतवर नेता नहीं थे. उनकी ही पार्टी के लालू प्रसाद और शरद यादव अपनी पार्टी में उनसे कहीं ज्यादा हैसियत रखते थे.
1996 में तीसरे मोर्चे की लॉटरी लगी थी
प्रधानमंत्री बने एचडी देवगौड़ा, जिनको अपने गृह राज्य कर्नाटक से बाहर बहुत कम लोग ही जानते थे. कैबिनेट के फैसले यूनाइटेड फ्रंट (तीसरे मोर्चे का उस समय यही नाम था) नेताओं की बैठक में पलट दिए जाते थे. पेट्रोल-डीजल की कीमत बढ़े या नहीं, इस पर महीनों बहस होती रही.
सरकार के मंत्री पीएमओ से निर्देश लेते हों, ऐसा लगता नहीं था. सरकार एक थी, लेकिन सुर अनेक और हर सुर दूसरे से बिल्कुल अलग. अजूबा सरकार और उसके अजूबे तरीके, लेकिन उस दौरान सबकुछ काफी लोकतांत्रिक दिखता था- कोई भी प्रधानमंत्री बन सकता था, किसी को भी कैबिनेट का बर्थ मिल सकता था, सरकारी जानकारी पाने के कई सोर्स थे, और बड़े फैसले लेने के भी कई फोरम थे.
तीसरे मोर्चे की जिद एक नशा है
1996 के बाद से तीसरा मोर्चा एक नशा-सा बन गया है. हर महत्वपूर्ण चुनाव से पहले इसकी बात होती है. कुछ नेताओं की तो हॉबी-सी बन गई है. शायद यह लॉजिक काम कर रहा होता है कि पता नहीं कब, किसकी लॉटरी लग जाए और वो बड़ी कुर्सी हासिल कर ले.
अब सालभर के बाद लोकसभा चुनाव होने वाले हैं और फिर से इस मोर्चे को जिंदा करने की बात तेज हो रही है. इस बार लीड में हैं तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव. उनको पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से काफी सहयोग भी मिल रहा है. सभी लाइक माइडेंड पार्टियों से संपर्क किया जा रहा है.
लाइक माइडेंड पार्टियों में कोई ऐसा नहीं है, जिसने कभी ना कभी कांग्रेस या बीजेपी से सहयोग न लिया हो. इस मोर्चे में शायद ही कोई ऐसी पार्टी हो, जो अपने दम पर लोकसभा की 10 परसेंट सीट भी जीत पाए. लेकिन तीसरे मोर्चे की जिद फिर भी है. क्या इन तीसरे मोर्चे के पैरोकारों को अपनी कमजोरियों का अहसास है?
तीसरे मोर्चे की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि इसमें किसी भी पार्टी की पकड़ एक से ज्यादा राज्य में नहीं है. कुछ साल पहले तक लेफ्ट पार्टियों का अस्तित्व एक से ज्यादा राज्यों में हुआ करता था, लेकिन लेफ्ट के वर्चस्व में लगातार हो रही भारी कमी से वो भी खत्म हो गया है.
गैर-कांग्रेस और गैर-बीजेपी पार्टियां 1996 के लोकसभा चुनाव से लगातार करीब 50 परसेंट वोट पा रही हैं. लेकिन इस अनुपात में इनकी सीटें काफी कम रही हैं. इनका स्ट्राइक रेट (हर 1 परसेंट वोट पर कितनी सीटें) 4 के आस-पास रहा है.
गौरतलब है कि 2014 के चुनाव में बीजेपी का स्ट्राइक रेट अब तक का सबसे ज्यादा 9.1 था. 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का स्ट्राइक रेट भी 7 से ज्यादा था. चूंकि कांग्रेस और बीजेपी के अलावा दूसरी पार्टियों का स्ट्राइक रेट काफी कम रहा है, ऐसे में अपने दम पर सत्ता पाने की इनकी हैसियत नहीं के बराबर है.
तीसरे मोर्चे की पार्टियों की तीसरी बड़ी कमजोरी है कि नेशनल सीन में बीजेपी और कांग्रेस की हैसियत में कमी नहीं हो रही है.
2014 के चुनाव में बीजेपी ने कई रिकॉर्ड बनाए. कांग्रेस लोकसभा की महज 44 सीट जीत सकी, लेकिन 224 सीटों पर वो नंबर दो पर रही. साथ ही कांग्रेस को मिला वोट उसके ठीक नीचे की 5 बड़ी पार्टियों (बीएसपी, एसपी, सीपीएम, टीएमसी और AIADMK) के कुल वोट से ज्यादा था. मतलब, कांग्रेस का प्रदर्शन काफी खराब रहा, लेकिन उसके जोरदार वापसी की संभावना खत्म नहीं हुई.
ऐसे में तीसरे मोर्चे के पैरोकारों को एक मुफ्त सलाह— लॉटरी लगने के भरोसे किसी विचार को सालों-साल नहीं खींचा जा सकता है. लॉटरी के आगे की राजनीतिक सच्चाइयों को पहचानिए और लोकसभा की तैयारी के लिए उसी हिसाब से कदम बढ़ाइए.
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