वैसे तो 25 साल सरकार में रहने के बाद हारने में कोई शर्म नहीं होनी चाहिये फिर भी लेफ्ट की त्रिपुरा हार को ऐसे देखा जा रहा है जैसे वामपंथ देश में खत्म हो गया. त्रिपुरा में सही मायने में लेफ्ट की हार से ज्यादा बीजेपी की जीत हैरतअंगेज है और ऐतिहासिक भी.
बीजेपी को पिछले चुनाव में महज डेढ़ फीसदी वोट मिला था और इस बार वो दो तिहाई बहुमत से सरकार बना रही है. इस चमत्कार की तारीफ होनी चाहिये. ये जहां बीजेपी की संगठन क्षमता का सबूत है वहीं इस बात का भी कि मोदी और अमित शाह की जोड़ी में जीत की जो भूख है उसका फिलहाल भारतीय राजनीति में कोई सानी नहीं है.
पर क्या ये करिश्मा 2019 में दोहराया जायेगा? आज लाख टके का सवाल ये है. पर मेरी नजर में इससे भी बडा सवाल है कि क्या एक विचार के तौर पर त्रिपुरा की हार भारतीय वामपंथ की मौत का ऐलान है ?
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में लंबे समय तक पढ़ाई करने के बाद जब मैं पत्रकारिता में आया तो मेरे संपादकों ने मान लिया कि मैं तो वामपंथी ही हूं और रिपोर्टर के नाते मुझे लेफ्ट फ्रंट कवर करने को दे दिया गया. हकीकत ये थी कि जेएनयू में मैं वामपंथ, खासतौर पर सीपीएम का धुर विरोधी था.
लेकिन बीट मिलने के बाद क्या करता, लेफ्ट कवर करने लगा. और ये कह सकता हूं कि वामपंथ को थोड़ा करीब से देखने का मौका मिला. कुछ घटनायें पिछले दिनों में ऐसी हुयी है जो इस बात का संकेत है कि जो पार्टी या संगठन या व्यक्ति समय के हिसाब से अपने को नहीं बदलता वो समय का शिकार हो जाता है.
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बीजेपी की सबसे बडी खासियत ये है कि विचारधारा की पार्टी होने के बाद भी समय के साथ बदलाव और एडजस्टमेंट करने की उसे महारत हासिल है. सीपीएम की सबसे बडी दिक्कत ये है कि वो समय के साथ कदमताल करना भूल गई है. वो आज भी पुराने इतिहास में सांस ले रही है. समाज के विश्लेषण का उसका तरीका आज भी वही घिसापिटा है.
जब वामपंथ का ‘स्वर्णिम सपना’ टूटा
एक समय था जब दुनिया दो खांचों में बंटी थी. एक हिस्सा सर्वहारा वर्ग या कहें वामपंथ का था और दूसरा हिस्सा था पूंजीवाद का. दोनों के बीच एक दूसरे को पछाड़ने और खत्म करने की होड़ थी. दोनों एक दूसरे के जानी दुश्मन थे. 1990 में दुनिया बदल गई. अचानक वामपंथी किले धराशायी हो गये.
वामपंथ का सबसे बडा नेता सोवियत संघ दुनिया के नक्शे से मिट गया और उसकी जगह दर्जन भर जो नये देश पैदा हुये उनका वामपंथ से कोई लेना देना नहीं था. दूसरे ताकतवर वामपंथी देश चीन ने माओ त्से तुंग की मौत के बाद ये तय कर लिया कि तरक्की के रास्ते पर चलना होगा, भले ही ये तरक्की पूंजीवाद के रास्ते पर चल कर मिले तो भी कोई चिंता नहीं.
यानी विचार के स्तर पर वामपंथ एक “स्वर्णिम सपना” नहीं रहा और जिस विचारधारा के सपने की मौत हो जाती है वो खुद भी धीरे धीरे मृत्यु के आगोश में चली जाती है. भारत में वामपंथ लकीर का फकीर बना रहा.
सीपीएम ने खुद को बदला तो, लेकिन...
ये सच है कि एक समय, भारतीय संदर्भ में, वामपंथ ने खुद में काफी बदलाव किये. वामपंथी क्रांति का रास्ता छोड़ लोकतंत्र को अपना लिया, उसने सर्वहारा वर्ग की तानाशाही को त्याग कर संसदीय परंपरा को स्वीकार किया.
लिहाजा, तीन राज्यों में वो मजबूत हो गये और विचार के स्तर पर पूरी भारतीय सोच को प्रभावित किया. आजादी के बाद वो सबसे मजबूत पार्टी बन के उभरे थे. बंगाल में 35 साल सरकार चलाई, त्रिपुरा में 25 साल वो सरकार में रहे और आज भी केरल में उनकी सरकार है. पर आज हालत ये है कि बंगाल में वो लगातार कमजोर होते जा रहे हैं. और पुनर्जीवन की उम्मीद खत्म होती जा रही है.
सीपीएम की मूर्खताएं
पिछले बीस साल मे सीपीएम ने दो महा-मूर्खताएं की है. एक, 1996 में जब संयुक्त मोर्चा बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाना चाहता था, खुद बसु प्रधानमंत्री बनना चाहते थे, उस वक्त पार्टी के महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत भी उन्हे प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहते थे, पर प्रकाश करात के नेत्रत्व में पार्टी ने ये प्रस्ताव ठुकरा दिया.
पहली बार प्रस्ताव ठुकराने के बाद संयुक्त मोर्चा ने दुबारा पुनर्विचार के लिये आग्रह किया, पार्टी ने फिर मना कर दिया. बाद में बसु ने एक इंटरव्यू में माना कि ये पार्टी की ऐतिहासिक भूल थी. उस वक्त सीपीआई सरकार में शामिल हुई थी.
इंद्रजीत गुप्ता, जो पार्टी के महासचिव थे वो ग्रहमंत्री भी बने थे और दूसरे बडे नेता चतुरानन मिश्र कृषि मंत्री. सीपीएम ने बाहर से समर्थन का फैसला किया.
2004 में बीजेपी की अप्रत्याशित हार के बाद जब कांग्रेस गठबंधन की सरकार बनी तब सीपीएम के 63 सांसद थे. उसने पूरी मजबूती से मनमोहन सिंह की सरकार को समर्थन दिया. सरकार पर लेफ्ट का अंकुश अच्छा चल रहा था कि अमेरिका से न्यूक्लियर डील का झमेला फंस गया. अच्छी खांसी चलती सरकार को सीपीएम ने अस्थिर कर दिया, समर्थन वापस लिया.
1996 में वो सरकार में शामिल नहीं हुयी पर सरकार के साथ पूरी शिद्दत के साथ खड़ी थी. 2008 में देश ने देखा कि एक फालतू के मुद्दे (न्यूक्लियर डील) पर सीपीएम ने सरकार को अस्थिर करने का काम किया. ये गलती सीपीएम के लिये जानलेवा साबित हुयी. इसका सबसे बडा असर बंगाल में हुआ जहां ममता बनर्जी ने उसे उखाड़ फेंका. ये दो घटनायें इस बात का प्रमाण है कि सीपीएम ने समय के हिसाब से खुद में बदलाव लाना बंद कर दिया.
ज्योति बसु, नंबूदरीपाद, हरकिशन सुरजीत की पीढ़ी में वो लचीलापन था, वो परिस्थिति के अनुरूप विचारधारा के साथ एडजेस्ट कर लेते थे. पर प्रकाश कारत और सीताराम येचुरी के पार्टी में प्रभावशाली होते ही पार्टी विचारधारा की बंधक बन गयी.
जड़ता की शिकार सीपीएम
बंगाल में बुद्धदेव भट्टाचार्य मुख्यमंत्री बनने के बाद पूंजीवादी प्रयोग करना चाहते थे, बाजार को और स्वतंत्रता देना चाहते थे, औद्योगिकीकरण के लिये बडे उद्योगपतियों को बुलाना चाहते थे पर पार्टी ने ऐसा करने नहीं दिया.
जड़ता इतनी ज्यादा आ गई थी कि न्यूक्लियर डील पर समर्थन वापसी के समय लोकसभा में स्पीकर के पद रहे वरिष्ठ नेता सोमनाथ चटर्जी को जबरन पद से हटाने की कोशिश की और जब कामयाब नहीं हुये तो उन्हे पार्टी से ही निकाल दिया. सोमनाथ चटर्जी का संसद में बहुत सम्मान था. वो अगर स्पीकर बने रहते तो पार्टी को कोई नुकसान नहीं होता. 2009 में देश ने सीपीएम को नकार दिया. कांग्रेस की सीटें बढ़ी.
आज भी सीपीएम उसी जड़ता का शिकार है. दो उदाहरण देता हूं.
एक, सीताराम येचुरी जबरदस्त स्पीकर हैं, संसद में उनकी मौजूदगी संसद की गरिमा बढ़ाती है, विपक्ष की धार को मजबूत करती है. सीपीएम का नियम है कि कोई भी नेता लगातार दो बार से ज्यादा राज्यसभा का सदस्य नहीं हो सकता इसलिये पार्टी ने उन्हे तीसरी बार उच्च सदन में भेजने मना कर दिया. जबकि आज संसद को सीताराम जैसे लोगों की सख्त जरूरत है.
दो, देश पर सांप्रदायिकता का दानव पैर पसार रहा है. फांसीवाद का खतरा मंडरा रहा है. ऐसे में आवश्यकता है कि सेकुलरवादी ताकते एक जुट हो पर सीपीएम ने कांग्रेस के साथ किसी भी तरह के समझौते से इंकार कर दिया. उसकी नजर में बीजेपी और कांग्रेस एक ही तरह की शक्तियां है.
यहां ये याद दिलाना जरूरी है कि 1989 में बोफोर्स के बाद जब देश में कांग्रेस के खिलाफ माहौल बना था तो इसी सीपीएम ने बीजेपी के साथ एक समझ बना ली थी. वीपी सिंह की सरकार को एक तरफ से बीजेपी का समर्थन था तो दूसरी तरफ से लेफ्ट का. 1989 मे सीपीएम को बीजेपी का साथ पसंद था जिसको वो सांप्रदायिक मानती है और 2018 में वो कांग्रेस के साथ नहीं जाना चाहती. अजब दिमाग का फेर है.
तलवार की धार पर वामपंथ
आज देश पर खतरा बड़ा है. खुद वामपंथी विचारों को देश से बेदखल करने की कोशिश में मोदी सरकार और आरएसएस कमर कसे हुये हैं. चाहे जेएनयू हो या फिर जादवपुर विश्वविद्यालय सब जगह उसे देशद्रोही साबित करने का प्रयास चल रहा है.
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आजादी के बाद भले ही लंबे समय तक केंद्र में कांग्रेस की सरकार रही हो पर एक ‘सोच’ के तौर पर वामपंथ ने आजादी के बाद देश पर शासन किया है. आरएसएस को लगता है वामपंथी ‘सोच’ को पूरी तरह से खत्म किये बगैर आरएसएस की हिंदुत्ववादी सोच पूरी तरह से देश की सोच पर हावी नहीं हो पायेगी.
इसलिये खतरा सिर्फ सेकुलरवाद पर ही नहीं है, खतरा वामपंथ पर भी है. राजनीतिक तौर पर भी और वैचारिक तौर पर भी. उसे ये समझना होगा कि ये लड़ाई आजादी के बाद की सबसे कठिन लड़ाई है.
वामपंथ और उदारवाद को हाथ मिलाना होगा
वामपंथ और उदारवादी सोच को अगर जिदा रहना है तो दोनों को साथ आना होगा. एक जुट होकर लड़ना होगा. शीत युद्ध की पुरानी सोच से बाहर आना होगा. पूंजीवाद बाजार की लड़ाई जीत चुका है. ये बात भारतीय वामपंथ को समझनी होगी. समाज के विश्लेषण के लिये बुर्जुआ और सर्वहारा जैसे शब्द आज अपने अर्थ खो चुके हैं. उनका सामना आज ऐसी शक्तियों से है जिनकी सांगठनिक क्षमता का मुकाबला कोई नहीं है.
उनके पास अथाह पैसा है. उनका नेतृत्व ऐसे लोगों के पास है जो रहम करना नहीं जानते और जीतने के लिये कुछ भी कर सकते हैं. पूजी, संगठन, सोच और नेतृत्व के इस मिश्रण ने एक ऐसे रसायन को जन्म दिया कि जिसने 29 में से 20 राज्यों में सरकार बना ली है. इसका मुकाबला असाधारण सोच और गजब की अनुकूलनक्षमता से ही दिया जा सकता है. अन्यथा लेफ्ट अपना मर्सिया पढ़ने के लिये तैयार रहे.
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