24 फरवरी को जैसे ही अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का एयर फोर्स वन भारतीय हवाई क्षेत्र में दाखिल हुआ, कश्मीर के कॉलेजों और स्कूलों के 15 लाख स्टूडेंट करीब सात महीने के लंबे अंतराल के बाद नई उम्मीदों के साथ अपनी पढ़ाई शुरू कर चुके थे.
‘ये महज एक संयोग है,’ गुलाम मोहम्मद गुलपोश ने कहा, जो कि श्रीनगर की एक सरकारी शैक्षणिक संस्थान में टीचर हैं. ‘स्कूलों और कॉलेजों के खुलने से अमेरिकी राष्ट्रपति के दौरे का कोई वास्ता नहीं था. आम तौर पर सर्दियों की सालाना छुट्टी के बाद स्कूल 1 मार्च को खुल जाते हैं. लेकिन सरकार ने इस बार दो वजहों से इसे एक हफ्ते पहले शुरू कर दिया: पहला, पिछले कई वर्षों के बाद इस बार कड़ाके की ठंड बिलकुल खत्म हो गई है. दूसरा ये कि कर्फ्यू और बंदी की वजह से पहले ही छात्रों का कीमती वक्त बर्बाद हो चुका है.’
‘असल में, हमारे शैक्षिक काम अक्टूबर (2019) में ही दोबारा से शुरू हो गए थे और उसके बाद सारी परीक्षाएं पूरी कर ली गई थीं. लेकिन उस दौरान स्कूल बसें ड्राइवरों की डर की वजह से नहीं चल पाईं थी और माता-पिता अपने बच्चों को स्कूल यूनिफॉर्म में बाहर भेजने से मना कर चुके थे. आज, स्कूल बसें धड़ल्ले से चल रही हैं और स्कूल ड्रेस में बच्चों की भरमार नजर आ रही है,’
अमेरिकी राष्ट्रपति के बयान और उनके दौरे पर क्या कहते हैं कश्मीरी?
कश्मीर का ताजा इतिहास भारत दौरे के वक्त अमेरिकी राष्ट्रपतियों के बयानों के असर से भरा पड़ा है. मिसाल के लिए, अप्रैल 1990 में एक महीने की रोक के बाद, ये अमेरिकी गृह मंत्रालय के बयान का ही असर था कि भारत सरकार ने राज्यपाल जगमोहन को स्थानीय अखबारों को दोबारा छापने की इजाजत देने की सलाह दी थी.
मार्च 2000 में राष्ट्रपति बिल क्लिंटन भारत आए तो उस दौरान अनंतनाग के छत्तीसिंहपुरा में 36 सिखों की हत्या कर दी गई थी.
सरकार और आतंकियों ने एक दूसरे पर ‘कश्मीर के मसले को उजागर’ करने की कोशिश और ‘अलगाववादी आंदोलन को बदनाम’ करने का आरोप लगाया. जिसके बाद पूरे हफ्ते अलगाववादियों और आतंकियों ने घाटी को बंद रखा.
2010 में बराक ओबामा के भारत दौरे से पहले चार महीने तक कश्मीर की सड़कों पर संग्राम जारी रहा, जिसमें करीब सौ स्थानीय प्रदर्शनकारियों, उपद्रवियों और पत्थरबाजों की पुलिस और सुरक्षाबलों की कार्रवाई में मौत हो गई.
इसके अलावा, अलगाववादियों ने लंबे समय तक कश्मीर में बंद रखा, लोगों को ये भरोसा दिया गया कि ऐसा करने पर ओबामा भारतीय संसद में अपने स्वागत भाषण के दौरान कश्मीर का जिक्र करेंगे और नई दिल्ली को कश्मीरी लोगों से बातचीत के लिए मजबूर करेंगे. हालांकि उन्हें निराशा हाथ लगी क्योंकि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. जिसके बाद लंबे समय से चला आ रहा संघर्ष और बंद भी खत्म हो गए, और 2010 के इस हंगामे से ठीक बाद 2011 में राज्य के अधिकारियों ने सबसे सफल पंचायत चुनाव भी आयोजित किए, जिसमें करीब 80-90 फीसदी लोगों ने हिस्सा लिया.
ट्रंप के दौरे पर ना के बराबर प्रतिक्रिया
ट्रंप के दौरे के दरम्यान अलगावदियों के कैंप में चुप्पी थी. हैरानी की बात ये है कि अलगवादियों के साथ-साथ मुख्यधारा के नेताओं की तरफ से भी बयान नहीं आए, जिन्होंने पिछले साल ट्रंप के उस बयान की जमकर तारीफ की थी जिसमें उन्होंने पत्रकारों के सवालों के जवाब में भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर के मसले पर ‘मध्यस्थता’ की पेशकश की थी. इस बार तो नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी जैसी पार्टियां भी बिलकुल खामोश रहीं.
पिछले छह महीनों में कश्मीर की सियासत पूरी तरह बदल गई है. अंतर्राष्ट्रीय मीडिया आज भी कश्मीर में ‘लॉकडाउन’ की बात करती है. लेकिन कश्मीर में करीब दर्जन भर बड़े राजनीतिक चेहरों की हिरासत के अलावा कुछ भी असमान्य नहीं लगता, जिनमें से 8 - तीन पूर्व सीएम के साथ - PSA के तहत बंद हैं, जबकि करीब 20 नेता अपने घरों में नजरबंद हैं. इसके अलावा आगजनी, पथराव और हिंसक प्रदर्शन के आरोपों में करीब 2000 कश्मीरी हिरासत में हैं.
सियासतदानों के हिरासत की आलोचना घाटी में सिर्फ दब जुबानों में ही हो रही है, क्योंकि ज्यादातर कश्मीरियों को लगता है कि अगर ये नेता आजाद होते तो अब तक सैंकड़ों कश्मीरियों की जान चली गई होती और लगातार हिंसा जारी रहती. गौर करने की बात ये है कि पिछले छह महीने में एक भी आम आदमी की पुलिस या सशस्त्र बलों की गोली से मौत नहीं हुई है.
अलगाववादियों को अब अमेरिका से कोई उम्मीद नहीं रही
‘आजादी के लिए लोगों को उकसाने के अलावा भारत-विरोधी प्रदर्शन और सुरक्षाबलों के साथ संघर्ष के लिए भीड़ जुटाने में, जिसमें नौजवान छात्र भी होते थे. हमारे कई सियासतदान अलगावादियों को भी पीछे छोड़ देते थे. जब ये 2000 लोग जेल में हैं, करीब 70 लाख कश्मीरी कहीं भी आने जाने के लिए आजाद हैं. थोड़ा अनिश्चितता का माहौल जरूर है, लेकिन कारोबार, पर्यटन और शिक्षा को लेकर बड़ी उम्मीदें दिख रही हैं,’ एक हाउसबोट वाले ने नाम ना जाहिर करने की शर्त पर बताया.
‘ये इंटरनेट पर रोक की वजह से शांति और समान्यता के सारे निशान धुल जा रहे हैं, सैलानियों में डर है कि कश्मीर में कुछ बुरा हो सकता है, इसलिए वो यहां आने से बच रहे हैं,’ एक हाउसबोट मालिक के बेटे इंतिसार ने कहा.
कश्मीर में ब्रॉडबैंड और 4G मोबाइल इंटरनेट सर्विसेज बहाल करने का ये बिलकुल सही वक्त है. ‘जो इसका दुरुपयोग करते हुए पकड़े जाएं उन पर FIR और कार्रवाई की जाए, लेकिन जब हमारी कोई गलती नहीं है तो सरकार हम सबको इससे वंचित क्यों रख रही है,’ 1990 के बाद पहली बार ऐसा हुआ कि किसी अमेरिकी राष्ट्रपति के भारत दौरे के समय यहां हड़ताल नहीं हुई.
इंतिसार ने याद दिलाया कि 1990 के बाद पहली बार ऐसा हुआ कि किसी अमेरिकी राष्ट्रपति के भारत दौरे के समय यहां हड़ताल नहीं हुई. ‘अगर ट्रंप कश्मीर का जिक्र करते या फिर से मध्यस्थता की पेशकश करते, हमें एक बार फिर कुछ हफ्तों के लिए यहां हंगामा झेलना पड़ता. लेकिन अच्छा हुआ उन्होंने कुछ नहीं कहा और अब अलगाववादियों ने भी ये उम्मीद छोड़ दी है कि अमेरिका कश्मीरियों को लेकर भारत पर कोई दबाव बनाएगा,’ श्रीनगर के पोलो व्यू के पास एक शॉल डीलर ने कहा-
अनुच्छेद 370 पर ट्रंप की चुप्पी काफी महत्वपूर्ण थी, क्योंकि हमारे ‘संविधान पर दिल्ली की सर्जिकल स्ट्राइक’ के बाद ये उनकी पहली भारत यात्रा थी. हमारे लिए अब ये एक बंद चैप्टर की तरह है. हमें नहीं पता कि हिरासत से छूटने के बाद ये सियासतदान फिर से सब कुछ तबाह करने की कोशिश करेंगे या नहीं.’
आतंकवाद पर ट्रंप की चिंता भारत नहीं अमेरिका को लेकर है
कश्मीर यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान पढ़ाने वाले एक प्रोफेसर ने दावा किया कि अहमदाबाद में आतंकवाद पर ट्रंप का भाषण एक तरह का ‘बैलेसिंग एक्ट’ था, क्योंकि उन्हें भरोसा है कि आतंकवाद के साथ अमेरिका की लड़ाई में पाकिस्तान उनके साथ है. ‘उन्होंने कट्टर इस्लामिक आतंकवाद की बात की, जिसमें साफ तौर पर वो ISIS, खलीफों की उसकी विचारधारा और अल-कायदा की बात कर रहे थे, जो कि पश्चिम में आतंकवाद को बढ़ावा दे रहे हैं. वो आतंकवाद पर भारत की चिंता का जिक्र नहीं कर रहे थे, जो कि भारत 1980 से झेल रहा है. ट्रंप इस पर गर्व कर रहे थे कि अमेरिका ने ISIS और अल-बगदादी को खत्म कर दिया. लेकिन वो साफ तौर पर उन आतंकवादी संगठनों की बात करने से बच गए जो कथित तौर पर पाकिस्तान में छिपकर भारत में आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा है,’
यूनिवर्सिटी प्रोफेसर ने कहा-
‘क्या उन्होंने लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, हिजबुल मुजाहिद्दीन, अल-उमर मुजाहिद्दीन, हाफिज सईद, मसूद अजहर, सलाहुद्दीन, मुश्ताक लतराम का जिक्र किया? नहीं किया. उन्हें इसके जिक्र की संवदेनशीलता के बारे में पता है. उन्हें मालूम है कि अगर वो ऐसा करते, तो अफगानिस्तान में तालिबान के साथ अगले हफ्ते होने वाली डील में उन्हें पाकिस्तानी सेना का साथ मिलना मुश्किल हो जाता.
कश्मीरी प्रोफेसर ने जोर देकर कहा कि पश्चिम देश, खासतौर पर अमेरिका, कश्मीर में अलगावादी आंदोलन और मिलिटेंसी को अपना नैतिक समर्थन देते रहे हैं, 9/11 के बाद भी इस रुख में कोई बदलाव नहीं आया. ‘उनका जीरो टॉलरेंस सिर्फ पश्चिम देशों को निशाना बनाने वाले आतंकवाद तक सीमित है. सिर्फ ISIS और अल-कायदा तक सीमित है. इस खेल में पाकिस्तान उनका पार्टनर है. हमें सिर्फ ये देखना है कि अफगानिस्तान में मदद के लिए अमेरिका पाकिस्तान को क्या कीमत चुकाता है.’
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