- ट्रंप ने शुरू किया विनाशकारी ट्रेड वॉर
- चीन ने भी जैसे को तैसा वाले अंदाज में टैरिफ बढ़ाकर किया पलटवार
- वैश्विक अर्थव्यवस्था में आए भूचाल ने इसे 1930 के दशक जैसी मंदी के मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया है
- ये ग्लोबलाइजेशन का अंत है !
आर्थिक समाचारों की इन शोर मचाती सुर्खियों से आम लोगों का सिर चकरा रहा है. आर्थिक महाविनाश का डर मंडराने लगा है. लेकिन वाकई, क्या हालात इतने बुरे हो गए हैं? क्या चीन वाकई लीक से हटकर चलने वाले एक राष्ट्रपति के हाथों ऐसी सजा पाने लायक है?
ट्रंप ने टैरिफ का जो डंडा चलाया है, क्या वो उतना ही नुकसान पहुंचाने वाला है, जितना 1930 के दशक में अमेरिकी सांसदों स्मूट और हॉली की पहल पर लागू वो संरक्षणवादी टैरिफ एक्ट था, जिसने पूरी दुनिया को द ग्रेट डिप्रेशन यानी भयावह आर्थिक मंदी में धकेल दिया था ? क्या ट्रंप अपने ट्रेड वॉर में कुछ ऐसे बदलाव कर सकते हैं, जिससे ये किसी स्कैटर बम की तरह पूरे फ्री वर्ल्ड को, और खुद उन्हें भी नुकसान पहुंचाने की बजाय एक सर्जिकल स्ट्राइक की तरह सिर्फ उस निशाने पर ही वार करे, जहां उसे करना चाहिए?
मैं इन सवालों के आसान जवाब देने की कोशिश करूंगा, ताकि गैर-विशेषज्ञ लोग भी इस जटिल मुद्दे की बारीकियों को समझ सकें. हमेशा की तरह, इसके लिए हमें सबसे पहले इतिहास के पन्नों को खंगालकर कुछ महत्वपूर्ण संकेत निकालने होंगे.
निक्सन-किसिंजर के जमाने में क्या हुआ था ?
अमेरिका के एक और लीक से हटकर चलने वाले राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने फरवरी 1972 में दुनिया की तस्वीर बदलकर रख दी थी. सैटेलाइट टेलीविजन की नई-नई शुरू हुई टेक्नोलॉजी के जरिए उनके ये शब्द सारी दुनिया में गूंज रहे थे, "अमेरिका इस बात को स्वीकार करता है कि ताइवान स्ट्रेट के दोनों ओर रहने वाली चीनी जनता चीन को एक देश और ताइवान को चीन का हिस्सा मानती है. अमेरिकी सरकार उनकी इस सोच के खिलाफ नहीं है."
निक्सन के इस ऐलान से पहले अमेरिका चीन को मान्यता तक नहीं देता था. अमेरिका की पूरी सहानुभूति और दोस्ती चीन के कट्टर दुश्मन ताइवान के साथ थी. लेकिन राष्ट्रपति निक्सन और उनके विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर के बनाए शंघाई घोषणापत्र का मकसद अंतरराष्ट्रीय समुदाय में अलग-थलग रहने वाले चीन को एक झटके में खींचकर दुनिया की मुख्यधारा में लाना था, ताकि वो सोवियत संघ के साथ कम्युनिस्ट गठजोड़ से दूर हटे. उनकी इस रणनीति को चौंकाने वाली सफलता हासिल हुई !
देंग श्याओपिंग का एस्केप वेलोसिटी मॉडल: सोवियत और जापानी तरीकों के घालमेल से तैयार एक दुस्साहसिक प्रयोग
चीन के महान नेता देंग श्याओपिंग ने निक्सन-किसिंजर की इस पहल का फायदा उठाया और चीनी जनता के दो अरब हाथों का इस्तेमाल करके इस एतिहासिक मौके को बड़ी मजबूती से लपक लिया. उन्होंने 'शांतिपूर्ण विकास' की शानदार रणनीति तैयार की. चीन ने अपने चौंकाने वाले आर्थिक विकास को कैसे अंजाम दिया, इसका विश्लेषण मैंने अपनी किताब 'सुपरपावर?: द अमेजिंग रेस बिट्वीन चाइनाज हेयर एंड इंडियाज टॉरटॉयज (पेंग्विन एलन लेन 2010)' में किया है.
दरअसल, चीन ने आर्थिक सुधारों के शुरुआती दो दशकों (1970/80) में अपनी ही जनता का 'क्रूर ढंग से' आर्थिक दोहन किया. ये आर्थिक दोहन अपने विस्तार और जबरदस्ती भरे तौर-तरीकों के लिहाज से काफी हद तक स्टालिन जैसा ही था (लेकिन दो महत्वपूर्ण वजहों से ये उससे अलग भी था, जिस पर मैं बाद में बात करूंगा)
- किसानों का दोहन: चीन में सारी जमीन सरकार की मिल्कियत थी, इसलिए किसानों को बड़ी निर्दयता के साथ सिर्फ नाम भर मुआवजा देकर बेदखल कर दिया गया. इसके बाद वो जमीनें कारखाने लगाने और अंतरराष्ट्रीय स्तर का बुनियादी ढांचा खड़ा करने के लिए निवेशकों को बेच दी गईं, जिनमें बड़े विदेशी पूंजीपति भी शामिल थे. इस प्रक्रिया में सरकार ने भारी मुनाफा बटोरा.
- मजदूरों का शोषण: मजदूरी की दरें जबरन कम रखी गईं, जिससे कारखानों के मालिकों ने अंधाधुंध मुनाफा कमाया, जबकि गांवों से आए गरीब लोग वाजिब मजदूरी या बेहतर कामकाजी हालात के अभाव में बेहद शोषणकारी रोजगार में फंसे रहने को मजबूर हो गए.
- बचत करने वालों से छीना: चीन की सरकार ने ब्याज दरों को जबरन कम बनाए रखा, जिससे बचत करने वालों की पूंजी बेहद कम रिटर्न पर सरकार और निजी निवेशकों को मिल गई. इनमें विदेशी निवेशक भी शामिल थे. इस सस्ती पूंजी के कारण सरकारी कंपनियों, चीन के कुलीन पूंजीपतियों या बड़े विदेशी निवेशकों को बेहिसाब मुनाफा कमाने का मौका मिला.
- कंज्यूमर को चूना लगाया: चीन ने सरकारी नियंत्रण के जरिये अपनी मुद्रा (रेनमिनबी) को जबरन सस्ता बनाए रखा. इससे कंज्यूमर को इंपोर्ट की गई चीजों के लिए ऊंचे दाम चुकाने पड़े जबकि अमेरिका या दूसरे देशों को एक्सपोर्ट की जाने वाली चीजें सस्ती हो गईं. दूसरी तरफ, विदेशी निवेशकों को चीन की संपत्तियां सस्ती कीमतों पर खरीदने का मौका भी मिला, जिससे उनके लिए मोटा मुनाफा बटोरने का एक और रास्ता खुल गया (इस मुनाफे पर टैक्स लगाकर सरकार ने भी काफी पैसे बनाए). इससे चीन की अर्थव्यवस्था में डॉलर का निवेश तेजी से बढ़ा. ये डॉलर सही मायने में सरप्लस भले ही नहीं था, लेकिन इसने चीन की सरकार को डॉलर का ऐसा स्थायी भंडार मुहैया करा दिया, जिसका वो मनचाहा इस्तेमाल कर सकती थी.
सोवियत शैली के इस दोहन का अंतिम परिणाम ये हुआ कि चीनी सरकार के खजाने में खरबों डॉलर का सरप्लस जमा हो गया. यही वो समय था, जब देंग श्याओपिंग ने अपनी सबसे जबरदस्त चाल चली और सोवियत शैली के कोल्ड वॉर की गिरफ्त से बाहर आ गए. उनकी अगुवाई में चीन ने अंतरराष्ट्रीय अलगाव, सैन्यवाद और युद्ध की धमकियों का रास्ता छोड़ दिया.
- देंग ने एलान किया, "अमीर बनना एक शानदार चीज है" (ये साफ नहीं है कि उन्होंने वाकई कभी ये शब्द कहे थे, लेकिन उनका मतलब यही था.) इस दिशा में आगे बढ़ते हुए देंग ने जापान से सबक सीखे और विदेशी व्यापार, ट्रैवल, निवेश और बाहरी असर के लिए चीन के दरवाजे खोले. वो आयरन वॉल जैसी अलग-थलग करने वाली उस सोच और तुनकमिजाजी के पूरी तरह खिलाफ थे, जो वारसा पैक्ट की पहचान थी.
- देंग का अगला कदम था अरबों डॉलर के विशाल सरप्लस को आर्थिक और सामाजिक बुनियादी ढांचे के विकास में झोंकना. इससे सड़कों, पुलों, रेलवे नेटवर्क, बंदरगाहों, एयरपोर्ट्स, पावर प्लांट्स, फैक्ट्री पार्क्स, अस्पतालों, स्कूलों, विश्वविद्यालयों और नए शहरों का निर्माण इतने बड़े पैमाने पर हुआ, जिसका जिक्र भी इंसानी सभ्यता के इतिहास में पहले किसी ने कभी नहीं सुना होगा. अपनी किताब में मैंने बुनियादी ढांचे के विकास की इस मुहिम को "एस्केप वेलोसिटी" मॉडल कहा है. ऐसा तभी हो सकता है, जब कोई देश अपने सरप्लस फंड को इतनी तेज रफ्तार से निवेश करे कि वो धीमी विकास दर के चुंबकीय दुष्चक्र को तोड़कर आगे निकल जाए और एक ही क्रांतिकारी छलांग में ऊंची विकास दर, आमदनी और समृद्धि के एक नए रास्ते पर तेजी से फर्राटा भरने लगे.
ये देंग की जबरदस्त प्रतिभा का कमाल था : उन्होंने सोवियत संघ और जापान के दो बिलकुल विरोधी दिखने वाले विकास मॉडल्स को मिलाकर चीन का एक नया और बेमिसाल उदाहरण तैयार कर दिया था.
चीन के अंधाधुंध विकास से अमेरिका को भी काफी फायदा हुआ
चीन के सस्ते इंपोर्ट के कारण 90 के दशक और इक्कीसवीं सदी के शुरुआती सालों में अमेरिकी कंज्यूमर की भी चांदी हो गई. मिसाल के तौर पर, आईफोन का डिजाइन तो कैलिफोर्निया में तैयार होता था, लेकिन इसे चीन में बनाया और असेंबल किया जाता था. इसी दौरान, चीन ने अपने अरबों डॉलर के भंडार का एक हिस्सा अमेरिकी ट्रेजरी बॉन्ड्स में भी लगाया, जिससे अमेरिकी ब्याज दरें गिरकर अपने न्यूनतम स्तर पर आ गईं.
इससे शेयर्स और रियल एस्टेट की कीमतों में भारी उछाल आया. इस माहौल में अमेरिकी लोगों को लगा कि वो अचानक ही बेहद अमीर हो गए हैं, लिहाजा वो अपने उपभोग पर मनमाना खर्च करने लगे. ये दौर इतना ज्यादा खुशनुमा लग रहा था कि उसका लंबे समय तक चलना मुश्किल था. और यही हुआ भी.
गलती कहां हुई ?
तीन गलतियां हुईं. अमेरिका की अमीरी असल में एक हवाई गुब्बारा बन गई थी, जो 2008 में फूट गया (ये जहरीला गुब्बारा पूंजीवादी लालच, ज्यादतियों और धोखाधड़ी से बना था). चीन एक ऐसा शैतान निकला, जो ग्लोबल सिटिजन के तौर पर नियमों का पालन करने को तैयार नहीं था. दूसरे, वो इंसानी आविष्कारों का सबसे बड़ा लुटेरा बन गया, जिसने नेशनल ब्यूरो ऑफ एशियन रिसर्च के आईपी कमीशन की 2013 की रिपोर्ट के मुताबिक हर साल अमेरिकी इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी की लगभग 250 अरब डॉलर की चोरी की.
तीसरी और अंतिम वजह, अमेरिकी मजदूरों और तकनीकी कामगारों की नौकरियां चीन के मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर ने छीन लीं. अमेरिकी उद्योगों के एक हिस्से में बड़े पैमाने पर छंटनी और बेकारी के चलते गहरी निराशा का माहौल बन गया.
उथल-पुथल और अनिश्चय के इस माहौल ने डॉनल्ड ट्रंप की सफलता के लिए स्टेज तैयार कर दिया था ! "चीन को सजा दो, एशियाई देशों से हमारी नौकरियां चुराने का हर्जाना वसूल करो, तभी अमेरिका बनेगा फिर से महान" - ट्रंप के इस विभाजनकारी संदेश की लोकप्रियता के लिए ये माहौल बिलकुल सटीक था.
ट्रंप के पलटवार में गड़बडी कहां हुई ?
राष्ट्रपति ट्रंप ने बीमारी की पहचान तो कर ली, लेकिन उसका इलाज चुनने में उन्होंने भारी भूल कर दी है. समस्या की असली वजह चीन के कुख्यात और गलत तौर-तरीके थे, जिसे समझदारी से धमकाकर सही रास्ते पर लाने की जरूरत थी. लेकिन गुस्से में बौराए ट्रंप ने ऐसा करने की जगह चीन को सबक सिखाने के लिए अंधाधुंध चौतरफा फायरिंग शुरू कर दी, जिसके दायरे में उनके दोस्त भी आ रहे हैं. मिसाल के तौर पर :
- ट्रंप को ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप या पेरिस क्लाइमेट समझौते से अलग नहीं होना चाहिए था, बल्कि उन्हें तो इन अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अमेरिकी असर को और बढ़ाना चाहिए था, ताकि चीन को अलग-थलग करके घेरा जा सके.
- उन्हें नाफ्टा और यूरोपीय यूनियन से लेकर ऑस्ट्रेलिया, जापान और भारत समेत फ्री वर्ल्ड के समर्थक सभी पक्षों से व्यापारिक संबंध और मजबूत करने चाहिए थे, जबकि उन्होंने इनमें से कुछ के साथ संबंध बिगाड़कर उन्हें चीन के और करीब धकेल दिया.
- उन्हें दुनिया के लोकतांत्रिक देशों के साथ अपने करीबी संबंधों का इस्तेमाल करके चीन के खिलाफ WTO में मोर्चा खोलना चाहिए था. इंसाफ के हक में होने वाले इस हंगामे की आड़ में अमेरिका चीन के खिलाफ कुछ बेहद कड़े और असरदार टैरिफ लगाने में कामयाब हो सकता था. वो भी उस शोर-शराबे के बिना जो आज हो रहा है.
- अंत में, उन्हें हार्ले डेविडसन बाइक के मामले में भारत पर निशाना नहीं साधना था या स्टील/एल्यूमीनियम पर भारी इंपोर्ट ड्यूटी लगाने के मामले में भारत और जापान को चीन के साथ खड़ा नहीं करना था. खासकर तब, जबकि चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा भी उतना ही परेशान करने वाला है. व्यापार की शर्तों में सुधार की कोशिश में भारत खुशी-खुशी अमेरिका का साथ दे सकता था. इस बीच, अमेरिका के साथ भारत का ट्रेड-सरप्लस भी पहले से ही घट रहा है, यानी इस मामले में सुधार की प्रक्रिया जारी है - ऐसे में एक दोस्त के साथ लड़ाई छेड़ने में कौन सी समझदारी है?
क्या अब देर हो चुकी है?
क्या अब बहुत देर हो चुकी है? क्या अब राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप अपने कदम पीछे खींचकर रणनीति की दोबारा समीक्षा के बाद उसमें सुधार करके एक नई रणनीति के साथ सामने नहीं आ सकते? एक ऐसी रणनीति, जिसमें वो चीन को निशाना बनाने के लिए तो लेजर गन का इस्तेमाल करें, लेकिन लोकतांत्रिक मित्र देशों के साथ अपनी दोस्ती को और मजबूत बनाएं? इस तरह वो चीन को 'कम आक्रामक धमकियों' के जरिये सही रास्ते पर आने को मजबूर कर सकते हैं. खासकर तब, जबकि चीन ये अच्छी तरह जानता है कि दुनिया को उसकी जितनी जरूरत है, उससे ज्यादा जरूरत उसे इस दुनिया की है.
शायद रणनीति में सुधार करने का ये मौका अब भी बचा हुआ है, बशर्ते राष्ट्रपति ट्रंप ट्वीट करने और सहयोगियों को बर्खास्त करने से फुर्सत निकाल पाएं.
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