राजनीति और गवर्नेंस में, और आपसी रिश्तों में भी भरोसा बहुत अहम होता है. अगर कोई नेता वादा करता है, और उसे पूरा नहीं करता, तो वह लोगों का भरोसा खो देता है. लेकिन अगर वह किसी बात का वादा करता है, और लगातार उससे उलट काम करता है तो वह न सिर्फ धोखेबाज बन जाता है, बल्कि दूसरों को यह सोचने पर मजबूर भी करता है कि उसकी नीयत ठीक नहीं.
अपने पहले कार्यकाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश से ‘सबका साथ, सबका विकास’ का वादा किया था- यानी वह सभी को साथ लेकर चलेंगे और देश के विकास में भागीदार बनाएंगे. फिर 2019 में उन्हें पहले से भी ज्यादा बड़ा जनादेश मिला तो उन्होंने और अपने दो वादों में तीसरा वादा जोड़ दिया ‘सबका विश्वास’- यानी सबका भरोसा जीता जाएगा.
अब प्रधानमंत्री ने इन तीन वादों में कितनों को पूरा किया, यह बहस का विषय है. लेकिन अगर देश की सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी के प्रदर्शन को देखा जाए तो बहस की कोई गुंजाइश ही नहीं रहेगी. राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ यह दिखावा भी नहीं करते कि वह इन तीनों में किसी एक वादे पर विश्वास करते हैं. इसकी बजाय, उन्होंने इन वादों को जानबूझकर तोड़ा है और यह दर्शाया है कि मुसलमान उन पर भरोसा करें, न करें- उनकी बला से. वह समुदाय जिसका हिस्सा उत्तर प्रदेश की आबादी में एक बटा पांच है.
भौंडे और झूठे ट्विट्स
बेशक मुसलमानों को बदनाम करना, उन्हें निशाना बनाना, योगी सरकार की पहचान रही है ताकि बीजेपी के वोट बैंक को बरकरार रखा जा सके. उनकी सरकार को पांच साल पूरे होने को आए हैं, और अगले कुछ महीने में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. अब दूसरी बार चुनाव जीतने के लिए उन्होंने वोटर्स के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को तेज धार देनी शुरू कर दी है.
हर गुजरते दिन के साथ आदित्यनाथ और अधिक बेशर्मी से मुस्लिम विरोधी प्रचार कर रहे हैं. कभी-कभी उनके ट्वीट्स और बातें भौंडी होती हैं और झूठ पर आधारित भी, जैसा उन्होंने एक बार कहा था कि "राज्य में 2017 से पहले सिर्फ 'अब्बा जान' कहने वालों को ही राशन मिल रहा था."
वह अपने सांप्रदायिक भाषणों में लगातार मुसलमान, पाकिस्तान और तालिबान को गड्डमड्ड करते हैं. 1 नवंबर को उन्होंने ट्विट किया, “अगर तालिबान भारत की तरफ बढ़ता है तो हम हवाई हमले के लिए तैयार हैं. कोई भी देश भारत की तरफ आंख उठाकर नहीं देख सकता.” इस बात का कोई तथ्य नहीं है कि अफगानिस्तान से तालिबानों के भारत की तरफ बढ़ने की कोई योजना है. भारत की रक्षा या खुफिया एजेंसियों ने इस खतरे की तरफ कोई इशारा नहीं किया है. इससे उलट, काबुल में तालिबान के नेतृत्व वाली सरकार ने कहा है कि वह भारत के साथ दोस्ताना रिश्ते रखना चाहते हैं.फिर भी आदित्यनाथ अपने समर्थकों में उग्र राष्ट्रवादी भावनाओं को भड़काने के लिए झूठ परोस रहे हैं.
इसीलिए जब दुबई में टी20 विश्व कप के मैच में भारतीय क्रिकेट टीम पाकिस्तान से 10 विकेटों से हारी तो मुख्यमंत्री के मीडिया सलाहकार शलभ मणि त्रिपाठी को उसमें मुस्लिम षडयंत्र नजर आया.
भारतीय टीम के अकेले मुस्लिम खिलाड़ी मोहम्मद शामी पर साफ हमला करते हुए शलभ मणि ने ट्विट किया, “यहां तक कि रॉ और आईबी भी इतनी आसानी से गद्दारों को ढूंढ नहीं पाते, जितनी आसानी से एक क्रिकेट मैच से उनका पता चल जाता है.”
योगी नाम बदलने की होड़ में
आदित्यनाथ ने राज्य पुलिस को निर्देश दिया कि वह उन लोगों पर राजद्रोह के आरोप दर्ज करें जिन्होंने उस मैच में पाकिस्तान की जीत का कथित रूप से जश्न मनाया था. आगरा में एक कॉलेज के कश्मीर स्टूडेंट्स, जिन पर ऐसा करने का संदेह है, को पुलिस की मौजूदगी में अदालत के परिसर के अंदर पीटा भी गया.
इससे पहले 22 अक्टूबर को मुख्यमंत्री ने एक ही दिन में पांच ट्विट किए. इनमें उन्होंने विपक्षी समाजवादी पार्टी और कांग्रेस पर हिंदू विरोधी और "राम द्रोही" होने के आरोप लगाए. यह भी आरोप लगाया कि अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण में उन्होंने रोड़े अटकाए. वे विश्वासघाती हैं.
आदित्यनाथ की सांप्रदायिक राजनीति का एक अभिन्न हिस्सा है, उत्तर प्रदेश के मुस्लिम लगने वाले नामों को बदला जाए जोकि असल में उत्तर प्रदेश और भारत के मुस्लिम इतिहास के पन्ने फाड़ने जैसा ही है. उनकी सरकार ने फैजाबाद रेलवे स्टेशन को अयोध्या कंटोनमेंट रेलवे स्टेशन नाम देने का फैसला किया है.
2019 के लोकसभा चुनावों से कुछ महीने पहले मुगलसराय शहर को पंडित दीन दयाल उपाध्याय नगर नाम दे दिया गया. 2018 में इलाहाबाद जैसे ऐतिहासिक नगर को प्रयागराज नाम दिया गया.खुशकिस्मती से इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उस याचिका को रद्द कर दिया जिसमें उसे प्रयागराज हाई कोर्ट नाम देने की मांग की गई थी.
हिंदुत्व की पताका हाथ में
जब सांप्रदायिक राजनीति को हवा देने की बात आती है तो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को दूसरे राज्यों के मामलों में दखल देने से भी गुरेज नहीं. ऐसा इसलिए है क्योंकि वह खुद को एक राष्ट्रीय नेता मानते हैं जिसे हिंदुत्व की पताका फहरानी है. इस मकसद को आगे बढ़ाना है. उनके समर्थक पक्के तौर से ऐसा सोचते हैं. पिछले साल नवंबर में तेलंगाना में हैदराबाद नगर निगम चुनाव में बीजेपी के लिए प्रचार करते हुए उन्होंने कहा था कि इस शहर का नाम बदलकर भाग्यनगर कर दिया जाना चाहिए.
“उत्तर प्रदेश में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद हमने फैजाबाद का नाम अयोध्या और इलाहाबाद का नाम प्रयागराज कर दिया. हैदराबाद का नाम भाग्यनगर क्यों नहीं रखा जा सकता? ”
एक और उदाहरण है. इस साल मई में उन्होंने ट्वीट किया, “आस्था और धर्म के आधार पर कोई भी भेदभाव भारत के संविधान की मूल भावना के विपरीत है. वर्तमान में मलेरकोटला (पंजाब) का गठन कांग्रेस की विभाजनकारी नीति की झलक है.” इस पर पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने उन्हें तीखी फटकार लगाई (उन्होंने तब तक कांग्रेस नहीं छोड़ी थी).
उन्होंने कहा कि पंजाब में सांप्रदायिक सद्भाव है, और उत्तर प्रदेश में योगी सरकार "विभाजनकारी" तत्वों को बढ़ावा दे रही है.
आदित्यनाथ विधानसभा चुनावों से पहले राज्य में मुसलिम विरोध बयान क्यों दे रहे हैं? क्या ऐसा इसलिए किया जा रहा है क्योंकि उन्हें इस बात का भरोसा नहीं है कि बीजेपी 2017 की तरह इस बार भी राज्य में जीत दर्ज कर पाएगी? यह मानने के कारण हैं कि आदित्यनाथ राज्य के अप्रिय हालात से कुछ परेशान हैं.
अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी बीजेपी के लिए बड़ी चुनौती है. उनकी रैलियों में खूब भीड़ जमा हो रही है. हालांकि उन्होंने काफी देर से चुनाव प्रचार करना शुरू किया है. कई गैर यादव ओबीसी जातियां और यहां तक दलित भी बीजेपी से छिटककर एसपी में जा रहे हैं. बहुजन समाज पार्टी के कई प्रभावशाली नेता एसपी में चले गए हैं.
लेकिन सबसे बड़ी शिकस्त किसकी
यहां तक कि जिस कांग्रेस को राजनीतिक पर्यवेक्षक एक जमींदोज पार्टी बता रहे थे, उसमें भी पिछले कई महीनों से नया जोश आ गया है. लखीमपुर खीरी में किसानों पर जीप चढ़ाने वाली घटना के बाद जब प्रियंका गंधी ने दिलेरी से विरोध दर्ज कराया तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस समर्थकों में ऊर्जा भर गई. राज्य में उनकी हालिया जन रैलियां बेहद प्रभावशाली रही हैं. विभिन्न राज्यों के उपचुनावों में कांग्रेस के शानदार प्रदर्शन से पक्की तौर से उसके कार्यकर्ताओं की हिम्मत बंधी होगी.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन ने बीजेपी सांसदों, विधायकों और कार्यकर्ताओं के लिए मुश्किलें बढ़ाई हैं. इस आंदोलन ने जाट-मुसलमान दूरियों को कम किया है. 2017 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी को इन दूरियों से बहुत फायदा हुआ था. राष्ट्रीय लोकदल के युवा अध्यक्ष जयंत चौधरी एक लोकप्रिय नेता बनकर उभरे हैं और उन्होंने इस इलाके में बीजेपी के मंसूबों पर पानी फेर दिया है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शहरों में हिंदू-मुस्लिम भाईचारे को बढ़ावा देने के लिए वह 'भाईचारा सभा' भी करा रहे हैं.
अगर इनमें बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी और कोविड-19 की बदइंतजामी को जोड़ दिया जाए तो बीजेपी के लिए बहुत उम्मीद भरे हालात नजर नहीं आते.
इन सबके बावजूद क्या योगी आदित्यनाथ की ध्रुवीकरण की राजनीति कामयाब होती है और वह दोबारा चुनाव जीतते हैं, यह तो अभी से नहीं बताया जा सकता. हां, एक बात बताई जा सकती है.वह जितनी ढिठाई से मुसलिम विरोधी राजनीति करेंगे, उतना ही बुरी तरह से मोदी से भरोसा टूटेगा. आखिर, प्रधानमंत्री ने ही तो ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ का वादा किया है. ऐसा नहीं कि मुसलमान इस वादे का भरोसा करते हैं. लेकिन अगर मोदी ने योगी को सारी हदें पार करने की इजाजत दी तो प्रधानमंत्री की शिकस्त होगी. उन लोगों की नजरों में, जो उन पर भरोसा करते हैं.
(लेखक ने भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सहायक के तौर पर कार्य किया है. वह ‘फोरम फॉर अ न्यू साउथ एशिया- पावर्ड बाय इंडिया-पाकिस्तान-चीन कोऑपरेशन’ के संस्थापक हैं. @SudheenKulkarni लेखक का ट्विटर हैंडल है और उनका ईमेल एड्रेस sudheenkulkarni@gmail.com है.)
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