आजकल हर शख्स दो सवालों के जवाब ढूंढ रहा है. पहला सवाल यह है कि कौन सी पार्टी गठबंधन का नेतृत्व करेगी और दूसरी, अर्थव्यवस्था में रिकवरी कब होगी. इससे मुझे मैथमेटिक्स की एक प्रॉब्लम की याद आ रही है, जो असल में प्रॉब्लम है ही नहीं. इसे शेफर्ड (गड़ेरिया) प्रॉब्लम कहा जाता है.
यह सवाल इस तरह है, ‘एक गड़ेरिये के पास 93 बकरियां और सात भेड़ हैं, तो गड़ेरिये की उम्र क्या होगी?’ इसके कई वेरिएशन हैं, जैसे- कल 67 हवाई जहाज जमीन पर उतरे और 43 ने उड़ान भरी. शाम 6 बजे 32 प्लेन जमीन पर थे. आधी रात तक उनमें से कितने बचे थे?
अच्छे मैथमेटिशियंस ने इस प्रॉब्लम को हल करने से मना कर दिया, क्योंकि इन्हें सॉल्व नहीं किया जा सकता. इसकी वजह यह है कि इस सवाल में डेटा तो हैं, लेकिन वे इसे सॉल्व करने के लिए नाकाफी हैं. हालांकि जब बच्चों से यही सवाल किया जाता है, तो वे संजीदगी से इसे सॉल्व करने की कोशिश करते हैं.
सवाल में जो नंबर हैं, वे उनकी मदद से उसे हल करने की कोशिश करते हैं. कम इंफॉर्मेशन के चलते वे इसके लिए 93 और 7 के कई पर्मुटेशंस और कॉम्बिनेशंस का इस्तेमाल करते हैं. यहां तक कि वे स्क्वेयर रूट को भी आजमाते हैं.
वे इस प्रक्रिया में नामुमकिन लगने वाले जवाब को खारिज कर देते हैं, जैसे- गड़ेरिये की उम्र 120 या 150 साल होना. हालांकि जब जवाब 10 से 100 साल के बीच आता है, तो वे उसे सही उत्तर बताते हैं. अफसोस की बात यह है कि वे ये नहीं जानते कि मैथमेटिकली उनका मेथड गलत है. उनके लिए संभावित उत्तर हासिल करना मायने रखता है, भले ही उसके पीछे की रीजनिंग बेतुकी हो. हालांकि, बहुत कम स्टूडेंट्स, शायद 1 पर्सेंट से भी कम यह समझते हैं कि इस प्रॉब्लम को सॉल्व नहीं किया जा सकता.
राजनीति
देश की राजनीति में भी शेफर्ड प्रॉब्लम दिखती है. चुनाव विश्लेषक गणित के इस सवाल को हल करने वाले बच्चों जैसी गलती करते हैं. इसलिए वे अक्सर गलत जवाब देते हैं या बड़ी रेंज में भविष्यवाणी करते हैं, ताकि वह सही साबित हो.
दिलचस्प बात यह है कि शेफर्ड प्रॉब्लम को सॉल्व करने का दावा करने वाले बच्चों को जहां कुछ नहीं मिलता, वहीं इन चुनाव विश्लेषकों को मोटी फीस मिलती है.
इकनॉमिक्स में भी ऐसा ही होता है. अर्थशास्त्री दशकों से सही भविष्यवाणी करने की कोशिश कर रहे हैं. वे आज तक इस सच्चाई को नहीं समझ पाए हैं कि उनके पास इसके लिए कभी पूरे डेटा नहीं होते और न ही होंगे. उनकी रीजनिंग भी गलत होती है.
इनमें से हम पहले राजनीति की बात करेंगे. चुनाव विश्लेषण की बुनियाद वोटिंग के बाद के ट्रेंड पर टिकी होती है. इस आधार पर विश्लेषक भविष्यवाणी करते हैं. यह सही तरीका नहीं है. पहली बात तो यह है कि हर पांच साल में वोटरों की उम्र बदल जाती है. दूसरी, पहली बार वोट डालने वालों के बारे में उनके पास पर्याप्त सूचना नहीं होती.
अगर चुनाव में कांटे की टक्कर नहीं होती, तो इससे उनके विश्लेषण पर फर्क नहीं पड़ता. हालांकि अक्सर कई सीटों पर कड़ा मुकाबला होता है, जिसका नतीजों पर बड़ा असर पड़ता है.
साल 2004 के लोकसभा चुनाव को ले लीजिए, जिसमें बीजेपी बहुत कम मार्जिन से 25 सीटें हार गई थी. कांग्रेस के साथ साल 2009 में ऐसा हुआ था, उसने तब बहुत कम अंतर से 40 सीटें गंवाई थीं.
इकनॉमिक्स
अर्थशास्त्र पर भी यही बात लागू होती है. यहां भी किसी प्रॉब्लम को सॉल्व करने के लिए जरूरी सूचनाएं नहीं होतीं. इसीलिए बिग डेटा का हल्ला मचा है. अगर आपको लगता है कि इससे इकनॉमी के अनुमान से जुड़ी समस्या हल हो जाएगी, तो आप गलती कर रहे हैं. बिग डेटा में भले आपके पास काफी आंकड़े होते हैं, लेकिन समय और क्षेत्र के आधार पर इनमें अंतर हो सकता है. इसलिए इससे भी प्रॉब्लम दूर नहीं होगी.
मैक्रो-इकनॉमिक्स के साथ यह समस्या कहीं बड़ी हो जाती है. इसलिए सरकारें इसे लेकर गलती करती हैं. भले ही उनके पास काफी डेटा होते हैं, लेकिन जरूरी इंफॉर्मेशन नहीं होती.
इस सवाल की जड़ यही है कि डेटा और इंफॉर्मेशन अलग-अलग चीजें हैं. शेफर्ड प्रॉब्लम के साथ भी यही बात है. जब तक चुनाव विश्लेषकों और अर्थशास्त्रियों को इसका अहसास नहीं होगा, उनके अनुमान बस तुक्के साबित होते रहेंगे.
(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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