लोकसभा चुनाव जैसे-जैसे करीब आ रहे हैं, करोड़ों लोगों के मन में सवाल उठ रहा है कि क्या नरेंद्र मोदी दूसरी बार प्रधानमंत्री बनेंगे? 6 महीने पहले यह बात पक्की लग रही थी, लेकिन अब इस पर बहुत धुंधला सा सवालिया निशान लग गया है.
इससे मुझे 1996 की एक घटना याद आ रही है. उस वक्त मैं जिस अखबार में काम करता था, उसकी खातिर एक कॉलम लिखवाने के लिए मैंने एक जाने-माने सांसद को फोन किया. उस साल चुनाव में वह हार गए थे.
उन्होंने फोन पर मुझसे वोटरों की अहसानफरामोशी की बात कही. वह बार-बार कहते रहे:
‘मैंने उनके (वोटरों) लिए क्या नहीं किया, इसके बावजूद दुष्टों ने असलियत दिखा दी.’
इसके बाद जब भी कोई सरकार हारती है, मैं सोचता हूं कि लोगों ने उस पार्टी के सांसद के खिलाफ वोट दिया है या प्रधानमंत्री के खिलाफ. क्या मोदी की निजी अपील आगामी चुनाव में बीजेपी और उसके सांसदों की गलतियों की भरपाई कर पाएगी? अगर 2019 में जनता नेगेटिव वोटिंग करती है, तो उसे मोदी के खिलाफ माना जाएगा या पार्टी के सांसदों के खिलाफ या बीजेपी के खिलाफ?
पार्टी, पीएम या एमपी?
कुछ मामलों में इस सवाल का जवाब बहुत आसान था, जब लोगों ने प्रधानमंत्री के खिलाफ वोट दिया था.
- 1977 में लोगों ने इमरजेंसी की वजह से इंदिरा गांधी के विरोध में जनादेश दिया.
- 1989 में भी भ्रष्टाचार के आरोप की वजह से जनता ने राजीव गांधी सरकार को हटाने का फैसला सुनाया था. हालांकि देश की राजनीति में ऐसा सिर्फ दो बार हुआ है.
- इसके उलट 1996 में नरसिम्हा राव सरकार और 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को जनता ने हटा दिया था, जबकि दोनों ही सरकारों को लेकर वोटरों में वैसी नाराजगी नहीं थी, जैसी इंदिरा और राजीव गांधी सरकारों को लेकर थी.
इसके बावजूद जनादेश राव और वाजपेयी के हक में नहीं था और उनकी हार हुई. राज्यों में भी यह पैटर्न देखा जा सकता है. जो मुख्यमंत्री अच्छा काम करते हैं, वे हमेशा नहीं जीतते. यहां दक्षिण भारत के चार राज्यों की मिसाल दी जा सकती है.
2019 में टिकट का सवाल
2019 के चुनाव में निगेटिव वोट का क्या होगा? कुछ गलतियों के बावजूद मोदी बहुत लोकप्रिय बने हुए हैं. इसलिए यह मानना गलत नहीं होगा कि निगेटिव वोटिंग बीजेपी या पार्टी के सांसदों के खिलाफ होगी. इसकी वजह यह है कि कभी सांसद, तो कभी बीजेपी वोटरों को नाराज कर रही है.
मिसाल के लिए, गोहत्या पर रोक को लीजिए. यह पार्टी की ऐसी पॉलिसी है, जिसे सांसद चाहें तो नरम कर सकते हैं और कुछ सांसदों ने किया भी है या वे इसे आक्रामकता के साथ लागू कर सकते हैं, जैसा कि यूपी, राजस्थान और मध्य प्रदेश में हो रहा है.
जहां इस पॉलिसी को एग्रेसिव ढंग से लागू किया जा रहा है, वहां लोग पार्टी और सांसद के खिलाफ वोट करेंगे. हालांकि तब समस्या बढ़ जाती है, जब पार्टी को बुरा और सांसद को अच्छा माना जाता है.
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खराब छवि की वजह से ऐसी अटकलें लग रही हैं कि बीजेपी के 150 मौजूदा सांसदों को अगले चुनाव में टिकट नहीं मिलेगा. इन लोगों के चलते पार्टी को नुकसान हो रहा है और इसकी भरपाई मोदी की लोकप्रियता से नहीं हो पाएगी.
लेकिन अच्छा या बुरा सांसद होने की शर्त क्या है? कट्टरपंथी सांसदों को अच्छा माना जाएगा या नरम रुख रखने वालों को? इस मामले में आरएसएस अपने प्रभाव का इस्तेमाल करेगा और इस पर बीजेपी के साथ उसके मतभेद हो सकते हैं.
बीजेपी के शासन वाले मध्य प्रदेश और राजस्थान में हिंसा के मामले बढ़ने की यही वजह है, जहां जल्द ही विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं. यहां के मौजूदा विधायक इस रास्ते से ताकतवर वर्गों का ध्यान अपनी तरफ खींचने की कोशिश कर रहे हैं. इन चुनावों के जो नतीजे आएंगे, उनसे तय होगा कि 2019 लोकसभा इलेक्शन में कट्टर हिंदुत्व की वकालत करने वालों को टिकट मिलेगा या नरमपंथियों को.
(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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