ADVERTISEMENTREMOVE AD

बाबा साहेब अंबेडकर हवा के खिलाफ क्यों चलते थे

दलितों के साथ भेदभाव की वजह से अंबेडकर ने किया था हिंदू धर्म का त्याग

story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा
Hindi Female

आज डॉ. भीमराव अंबेडकर की पुण्यतिथि है. वो आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितना संविधान के निर्माण के बाद और दलितों के संघर्ष के दौरान थे. दलितों और पिछड़ों को वोट बैंक समझने वाले सभी दल आज अंबेडकर को अपना मार्गदर्शक और प्रेरणा पुंज कहते नहीं अघाते हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

अंबेडकर के नाम पर राजनीति

अंबेडकर के नाम पर कसमें खाई जाती हैं, आंदोलन किए जाते हैं और यह संदेश देने की पुरजोर कोशिशें की जाती हैं कि दलितों का सबसे बड़ा सिपहसालार कौन है. लेकिन यह भी हकीकत है कि राजनीति के मौजूदा बदले हुए तेवर में अगर वाकई कोई पीछे छूटता जा रहा है तो वह है सिर्फ और सिर्फ भीमराव अंबेडकर.

विलक्षण प्रतिभा के धनी भीमराव बेहद निर्भीक थे. वे न चुनौतियों से डरते थे, न झुकते थे. हठी अंबेडकर ने अन्याय के आगे झुकना तो जैसे सीखा ही न था. 

दलितों के साथ भेदभाव की वजह से हिंदू धर्म का त्याग

अंबेडकर ने अर्थशास्त्र और राजनीति शास्त्र में डिग्री हासिल की. हिंदू धर्म में दलितों के साथ होने वाले भेदभाव और छुआछूत से दुखी होकर उन्होंने इसके खिलाफ संघर्ष भी किया, लेकिन विशेष सफलता न मिलने पर इस धर्म को ही त्याग दिया. 14 अक्टूबर, 1956 को उन्होंने लाखों दलितों के साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा ली.

दलित मुद्दे पर गांधी जी से मतभेद

कहा जाता है कि दलित मुद्दों पर अंबेडकर के गांधीजी से मतभेद रहे हैं. पत्रिका 'हरिजन' के 18 जुलाई, 1936 के अंक में अंबेडकर के 'एनिहिलेशन ऑफ कास्ट' की समीक्षा में गांधीजी ने जोर दिया था कि हर किसी को अपना पैतृक पेशा जरूर मानना चाहिए, जिससे अधिकार ही नहीं, कर्तव्यों का भी बोध हो. यह सच्चाई है कि ब्रिटिश शासन के डेढ़ सौ वर्षों में भी अछूतों पर होने वाले जुल्म में कोई कमी नहीं आई थी, जिससे अंबेडकर आहत थे.

ये भी देखें- दलित आंदोलनों को कामयाब बनाते हैं अंबेडकर के सोशल मीडिया कमांडो

0

ये भी देखें:-

उनकी अलग निर्वाचन क्षेत्र की मांग का गांधीजी ने पुरजोर विरोध कर एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया. उनकी दलील थी कि इससे हिंदू समाज बिखर जाएगा, लेकिन जब अंबेडकर जीत गए तो गांधीजी ने पूना पैक्ट (समझौता) पर दस्तखत के लिए उन्हें मजबूर कर दिया और आमरण अनशन पर चले गए.

गांधीजी की बिगड़ती तबीयत और उससे बढ़ते दबाव के चलते अंबेडकर 24 सितंबर, 1932 की शाम येरवदा जेल पहुंचे, जहां पर दोनों के बीच समझौता हुआ. इसे पूना पैक्ट के नाम से जाना जाता है.

समझौते के तहत डॉ. अंबेडकर ने दलितों को कम्युनल अवार्ड में मिले पृथक निर्वाचन के अधिकार को छोड़ने की घोषणा की, लेकिन इसी में 78 आरक्षित सीटों को बढ़ाकर 148 करवाया. साथ ही अस्पृश्य लोगों के लिए हर प्रांत में शिक्षा अनुदान के लिए पर्याप्त रकम की व्यवस्था के साथ नौकरियों में बिना किसी भेदभाव के दलित वर्ग के लोगों की भर्ती को सुनिश्चित कराया.

ये भी पढ़ें- कर्नाटक में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी: ओपिनियन पोल

ADVERTISEMENTREMOVE AD

अब भी बरकरार दलितों का शोषण!

यह सच है कि दलितों के शोषण और अत्याचार का एक सदियों पुराना और लंबा सिलसिला है जो अब भी किसी न किसी रूप में बरकरार है. गुलाम भारत में अंबेडकर के राजनीतिक और सामाजिक संघर्ष ने दलितों को जहां राह दिखाई, वहीं आजाद भारत में दलितों के सम्मानजनक स्थान के लिए मार्ग भी प्रशस्त किया. लेकिन लगता नहीं कि आत्मसम्मान और गरिमा की लड़ाई में दलित समुदाय अब भी अकेला है. अंबेडकर का उपयोग सभी दल करना चाहते हैं.

(इनपुटः IANS)

ये भी पढ़ें- बाबा साहेब होते, तो सोशल मीडिया के इन ‘कमांडो’ को देखकर खुश होते

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

Published: 
सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×