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एक स्कूली छात्रा द्वारा मेंस्ट्रुअल केयर प्रोडक्ट पर सरकार की तरफ से सब्सिडी देने और उन्हें 20-30 रुपये में मुहैया कराने की संभावना के बारे में सवाल पूछे जाने पर बिहार के महिला और बाल विकास निगम की हेड आईएएस अधिकारी हरजोत कौर बम्हरा (IAS Harjot Kaur Bamhrah) की तीखी प्रतिक्रिया के लिए चौतरफा आलोचना हो रही है.
उन्होंने कहा था, “सरकार पहले से ही काफी कुछ दे रही है. आज, आपको सैनिटरी नैपकिन का पैकेट मुफ्त में दे सकते हैं. कल को जींस पैंट भी दे सकते हैं, परसों जूते भी दे सकते हैं, और अंत में जब परिवार नियोजन की बात आएगी तो निरोध भी मुफ्त में ही देना पड़ेगा.”
अफसोस सच्चाई यह है कि बम्हरा की झिड़की जितनी चौंकाने वाली है, वह माहवारी और मेंस्ट्रुअल केयर प्रोडक्ट को लेकर आम समझ का नमूना पेश करती है– क्या वे सच में जरूरी हैं? सरकार टैक्स पेयर्स का पैसा ‘पर्नसनल प्रोडक्ट्स’ पर क्यों खर्च करे?
हमने एक्सपर्ट्स से पूछा– और उनका यही कहना था कि सरकार को मेंस्ट्रुअल हेल्थ को स्वास्थ्य नीतियों में शामिल करना चाहिए.
साल 2021 में जारी पांचवें राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 15-24 साल की उम्र की तकरीबन 50% महिलाएं अभी भी मेंस्ट्रुअल प्रोटेक्शन के लिए कपड़े का इस्तेमाल करती हैं, जिससे उन्हें इन्फेक्शन का बहुत ज्यादा खतरा रहता है.
शहरों (31.5% पर) के मुकाबले गांवों की महिलाएं (57.2 % पर) ज्यादातर कपड़े का इस्तेमाल करती हैं. महिलाओं द्वारा अपनाए जाने वाले विकल्प के चुनाव में सामाजिक और आर्थिक दोनों कारक भूमिका निभाते हैं.
दिल्ली में कम्युनिटी मेडिसिन एक्सपर्ट डॉ. अक्सा शेख फिट से बातचीत में कहती हैं, “यह (सब्सिडी वाले मेंस्ट्रुअल केयर प्रोडक्ट) सरकार की तरफ से दी गई खैरात के तौर पर दिखाया गया है... लोगों पर लगभग एहसान की तरह. देश का हर नागरिक टैक्स अदा करता है, और उसके आधार पर सरकार सेवाएं मुहैया कराती है, यह खैरात नहीं है.”
अपने जवाब में, बम्हरा ने पूछा था कि इसके लिए सरकार पर क्यों निर्भर रहना चाहिए और छात्रा से कहा कि बचत करे और उन्हें अपने लिए खरीद ले.
YP फाउंडेशन में सेक्सुअल एंड रिप्रोडक्टिव हेल्थ, राइट्स एंड जस्टिस (SRHR-J) की प्रोग्राम कोऑर्डिनेटर मोहिता फिट से कहती हैं: “यह टिप्पणी अपने आप में घोर अज्ञानी है और ऐसे विशिष्ट वर्ग वाली जगह से आई है. यहां अज्ञानता का स्तर बेहद चौंकाने वाला है.”
मेंस्ट्रुअल केयर प्रोडक्ट की उपलब्धता आसान बनाने के लिए सब्सिडी देने का ख्याल शायद ही क्रांतिकारी हो. असल में सरकारें सालों से ऐसी तमाम योजनाएं लाती रही हैं.
उदाहरण के लिए 2019 में प्रधानमंत्री भारतीय जन औषधि परियोजना (PMBJP) के तहत सरकार ने देश में लगभग 5,500 जन औषधि केंद्रों पर 1 रुपये में बायोडिग्रेडेबल सैनिटरी नैपकिन, जिसे ‘सुविधा’ कहा जाता है, बेचने की योजना शुरू की थी.
केरल और पंजाब सहित कई राज्यों ने भी मुफ्त सैनिटरी नैपकिन मुहैया कराने की योजना शुरू की है.
YP फाउंडेशन में SRHR-J एसोसिएट कहकशा बताती हैं कि, असल में ज्यादातर राज्यों के ज्यादातर सरकारी स्कूलों में छात्राओं के लिए मुफ्त सैनिटरी पैड रखना जरूरी है.
मोहिता कहती हैं, बेशक ये योजनाएं अमल में किस हद तक लोगों तक पहुंच रही हैं, यह हर जगह-जगह अलग-अलग है.
लेकिन यहां बताने वाली बात यह है कि, हकीकत में सरकारी अस्पतालों और क्लीनिक्स में मुफ्त कंडोम बांटे जाते हैं.
इसके अलावा सरकार ने कीमत भी तय कर रखी है कि भारत में कंडोम आप कितने में बेच सकते हैं.
नेशनल फार्मास्युटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी ने अप्रैल 2021 में वार्षिक थोक मूल्य सूचकांक (WPI) को संशोधित किया, जिससे रेगुलर कंडोम पर मूल्य सीमा 9.15 रुपये प्रति पीस तय की गई.
कंडोम को ज्यादा लोगों तक पहुंचाने, सुरक्षित सेक्स और जनसंख्या नियंत्रण को बढ़ावा देने के लिए सरकार के ये सभी जन कल्याणकारी तरीके हैं.
मोहिता कहती हैं, “जब मेंस्ट्रुअल केयर प्रोडक्ट पाना मुश्किल होता है, जब महिलाएं उनका खर्च नहीं उठा सकती हैं, तो वे जिन चीजों का इस्तेमाल करने के लिए मजबूर होती हैं, वे हैं गीली मिट्टी, सूखी हुई पत्तियां, कपड़ा, जिससे इन्फेक्शन, RTI और UTI का खतरा होता है. इससे भी ज्यादा यह कि महिला की सेक्सुअल और रिप्रोडक्टिव हेल्थ पर गंभीर असर पड़ सकता है.”
अक्सा शेख कहती हैं, “अगर महिलाएं सैनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल करती हैं, मगर इसे देर तक नहीं बदलती हैं, तो भी यह खतरनाक हो सकता है और इन्फेक्शन का खतरा बढ़ा सकता है.”
सिर्फ इतना ही नहीं. मोहिता बताती हैं, “प्यूबर्टी के बाद माहवारी की वजह से सरकारी स्कूलों और सस्ते निजी स्कूलों से ड्रॉप आउट लड़कियों की गिनती बहुत ज्यादा है.”
और जो स्कूल की पढ़ाई नहीं छोड़ती हैं उन्हें हर महीने चार से पांच दिन स्कूल से छुट्टी लेनी पड़ती है.
सैनिटरी नैपकिन ब्रांड व्हिस्पर की तरफ से 2022 में किए एक कैंपेन में पाया गया कि भारत में 5 में से 1 लड़की माहवारी शुरू होने के बाद पढ़ाई छोड़ देती है.
डॉ. अक्सा शेख कहती हैं इसका मतलब है कि यह स्वास्थ्य और शिक्षा के अधिकार से सीधा जुड़ा हुआ मसला है, और “इसे एक आवश्यक स्वास्थ्य सेवा के रूप में देखा जाना चाहिए. यह कोई कॉस्मेटिक नहीं है.”
एक और NGO पेंट इट रेड (Paint It Red), जो माहवारी के अधिकारों को बढ़ावा देने के लिए काम करता है, की सह-संस्थापक निहारिका शर्मा कहती हैं, “सम्मानजनक पीरियड्स एक अधिकार है और जब तक हम माहवारी के प्रोडक्ट को एक लग्जरी प्रोडक्ट मानते रहेंगे और पीरियड्स को कलंक मानेंगे, तब तक हम परेशान करने वाले आंकड़े सुनते रहेंगे जैसे कि 5 में से 1 लड़की अपने पीरियड्स के चलते स्कूल छोड़ देती है.”
निहारिका कहती हैं, “ज्यादातर माहवारी वाली महिलाएं जो खर्च नहीं उठा सकती हैं, वे सोशल सेक्टर के संगठनों के जरिये पैड और मैनेजमेंट प्रोडक्ट्स को हासिल करती हैं.”
हालांकि ये NGO और व्यक्तिगत स्तर पर लोगों की बड़ी पहल हैं, लेकिन इससे सरकार के अधिकारियों को अपनी जिम्मेदारी से आजादी नहीं दे देनी चाहिए.
डॉ. अक्सा कहती हैं, “सरकार ने हाल ही में एक प्रोग्राम शुरू किया है जिसमें सिविल सोसायटी स्कूलों को सैनिटरी नैपकिन दान कर सकती है. इस किस्म की स्कीम में व्यक्ति और कारोबार जगत सरकार के बजाय स्कूलों में गरीब स्टूडेंट्स को सैनिटरी नैपकिन देन के लिए पैसा खर्च करेंगे. लेकिन इस जरूरी काम का जिम्मा सरकार के बजाय सिविल सोसायटी पर डालना एक खतरनाक कदम है.”
यह रुकावटों, गलत सूचनाओं को बढ़ाता है और अज्ञान मेंस्ट्रुअल केयर पर असर डालता है.
मोहिता कहती हैं, “हम इन उत्पादों की कीमतें कम नहीं कर सकते. हम माहवारी के बारे में जागरूकता फैला सकते हैं. क्योंकि अगर आपको पूरी जानकारी नहीं है, तो आप अपने अधिकारों की लड़ाई कैसे कर सकती हैं?”
कीकाशा कहती हैं, “जब असमानता और अन्याय की बात आती है, तो मानसिकता और पूर्वाग्रह महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.”
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