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बिहार चुनाव 2020: क्या तेजस्वी यादव ने राज्य में बाजी पलट दी है?

अगर हम बिहार की राजनीति की बाते करें तो यह बीजेपी और आरजेडी के इर्द-गिर्द घूमती नजर आ रही है.

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अगर इस बार के बिहार चुनाव (Bihar Elections 2020) की बात की जाए तो बिहार की राजनीति में आए दिन कोई-न-कोई दिलचस्प मोड़ देखने को मिल रहा है. उत्तर प्रदेश के बाद अगर किसी अन्य राज्य में बहुत ज्यादा राजनीतिक उठापटक देखने को मिलती है तो वह राज्य बिहार ही है. पिछले 15 सालों से नीतीश कुमार बिहार की सत्ता संभाले हुए हैं. चुनाव नजदीक हैं और सियासी गणित भी जोरों पर है.

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19 अक्टूबर, 2020 यानी सोमवार को बिहार के चुनाव प्रचार के दौरान दो महत्त्वपूर्ण घटनाएं घटीं और दोनों एक ही बात को रेखांकित करती दिखाई देती हैं:

  1. केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार तेजस्वी यादव को बहस के लिए चुनौती दी.
  2. बीजेपी ने अपने आधिकारिक ट्विटर हैंडल से एक वीडियो पोस्ट किया, जिसके माध्यम से मतदाताओं को यह याद दिलाने की कोशिश की गई कि लोग तेजस्वी यादव के पिता लालू प्रसाद यादव के शासन को जंगलराज कहकर संबोधित कर रहे हैं.
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दोनों घटनाक्रमों से साफ पता चलता है कि तेजस्वी यादव ने एनडीए को थोड़ा विचलित कर दिया है, जो अब तक बिहार में स्पष्ट जीत की ओर बढ़ता दिखाई दे रहा था. अगर हम बिहार की राजनीति की बाते करें तो यह बीजेपी और आरजेडी के इर्द-गिर्द घूमती नजर आ रही है.

तेजस्वी यादव ने बिहार राजनीति की पिच पर जो ‘कवर ड्राइव’ लगाने की कोशिश की है, यह ‘शॉट’ बाउंड्री लाइन के बाहर जा पाएगा या नहीं, यह तो आने वाला समय ही तय करेगा; लेकिन उन्होंने चुनाव में जिन मुद्दों को उठाया है, उनका जिक्र कुछ इस प्रकार है:

1. जॉब्स पर फोकस

बिहार में जातिवाद हमेशा से हावी रहा है, जो चुनावों में जीत-हार के समीकरणों को बनाने और बिगाड़ने में अहम भूमिका निभाता आ रहा है. एक समय था, जब सवर्ण वोट जीत-हार तय किया करते थे, लेकिन मौजूद दौर की बात की जाए तो बिहार में पिछड़े वर्ग के लोगों ने अपनी अहमियत दर्ज कराई है. तभी तो सभी दल इन्हें रिझाने में लगे हुए हैं, लेकिन इस सबके बीच तेजस्वी यादव ने ‘जॉब्स’ की बात करके लोगों का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की है.

अक्टूबर के पहले हफ्ते में सी वोटर द्वारा किए गए सर्वेक्षण के अनुसार, बिहार में करीब 50 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कहा कि इस चुनाव में उनके लिए बेरोजगारी सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा है. यह दो हफ्ते पहले किए गए सर्वेक्षण में 25 प्रतिशत की वृद्धि है. तेजस्वी यादव ने कहा कि जैसे ही महागठबंधन की सरकार बनेगी, कैबिनेट की पहली ही मीटिंग में नौकरी देने संबंधी आदेश दे दिया जाएगा.

इससे साफ पता चलता है कि तेजस्वी यादव अपने अभियान के तहत इस मुद्दे पर लोगों को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं.

तेजस्वी यादव ने इस बार बिहार की जनता से तीन बड़े वादे किए हैं:

  1. बिहार की राजनीति में इस बार रोजगार सबसे बड़ा मुद्दा है, इसीलिए तेजस्वी यादव ने अपनी सरकार के बनने पर 10 लाख नौकरियां देने का वादा किया है. उनके अनुसार, इसका मतलब है कि स्वास्थ्य, शिक्षा, पुलिस और अन्य विभागों में पहले तो मौजूदा 4.5 लाख रिक्तियों को भरना और फिर अतिरिक्त 5.5 लाख नियुक्तियों को भरना. उनका कहना है कि बिहार की स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए 1.25 लाख नए डॉक्टरों की बड़ी सख्त जरूरत है और साथ ही 3 लाख स्कूल शिक्षकों की भी.
  2. सरकारी नौकरी के आवेदन के लिए कोई शुल्क नहीं लिया जाएगा.
  3. चार लाख शिक्षकों को समान कार्य के लिए समान वेतन दिया जाएगा.
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2. गठबंधन के साथ तालमेल

जिस तरह से तेजस्वी यादव ने नौकरियों को अपने महत्त्वपूर्ण एजेंडे में शामिल किया है, बिल्कुल इसी तरह की सोच उनकी सहयोगी पार्टियों कांग्रेस और वामपंथी दलों की भी है. गठबंधन का योजना गरीबों, बेरोजगारों और किसानों पर ध्यान केंद्रित करना है, न कि विशिष्ट जाति समूहों पर ध्यान केंद्रित करना.

एक रणनीतिकार ने अपने विचार प्रकट करते हुए कहा, “जातिगत दलों का गठबंधन यह दर्शाता है कि तेजस्वी सिर्फ यादव नेता हैं या इससे बढ़कर एक मुस्लिम-यादव नेता. यह वह कहानी नहीं है, जिसे हम आगे बढ़ाना चाहते हैं.”

 अगर हम बिहार की राजनीति की बाते करें तो यह बीजेपी और आरजेडी के इर्द-गिर्द घूमती नजर आ रही है.

भले ही बीजेपी नीतीश कुमार के नेतृत्व में जदयू के साथ गठबंधन करते हुए चुनाव लड़ रही है, लेकिन यह आम तौर पर माना जा रहा है कि पार्टी अंदरखाने चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी के साथ भी गलबहियां कर रही है.

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3. नीतीश कुमार की घटती लोकप्रियता

यह बात सच है कि नीतीश कुमार के खिलाफ सत्ता-विरोधी रुझान बहुत ज्यादा है. सी वोटर के नए सर्वेक्षण से पता चला है कि 52.5 प्रतिशत मतदाता नीतीश कुमार से नाराज हैं और उन्हें चुनाव में हारते हुए देखना चाहते हैं. जबकि अन्य 28 प्रतिशत मतदाताओं का कहना है कि वे नीतीश कुमार से नाराज तो हैं, लेकिन उन्हें हराने की उनकी कोई इच्छा नहीं है. ऐसे में नीतीश कुमार की घटती लोकप्रियता को देखते हुए तेजस्वी यादव को पहली श्रेणी के मतों से जितना अधिक हो सकता है, उतना अधिक फायदा उठाना चाहिए जिससे सत्ता को अपने पक्ष में करने की उनकी राह आसान हो.

सी वोटर का अंतिम सर्वेक्षण बड़ा ही दिलचस्प है, जिसमें उन्होंने लोगों से गठबंधन के बावजूद पार्टी को लेकर उनकी अपनी पसंद के बारे में पूछा. 34 प्रतिशत लोगों ने बीजेपी को अपनी पसंद की पार्टी के रूप में चुना, 26 प्रतिशत लोगों ने आरजेडी को चुना और केवल 14 प्रतिशत लोगों ने जेडीयू को चुना. आरजेडी राज्य की दूसरी सबसे लोकप्रिय पार्टी है और इसने सीएम चेहरे के रूप में अपने सबसे लोकप्रिय नेता को चुना है, जैसा कि एक पार्टी को करना भी चाहिए.

यहां देखने वाली बात यह है कि सबसे लोकप्रिय पार्टी होने के बावजूद बीजेपी ने अपनी ओर से सीएम पद के लिए कोई चेहरा पेश नहीं किया है. वास्तव में पार्टी ने नीतीश कुमार के खिलाफ असंतोष के बावजूद जेडीयू को आधी सीटें दी हैं और इससे उन सीटों पर मतदाताओं में भ्रम की स्थिति बनी हुई है जिससे कहीं-न-कहीं बीजेपी पसोपेश की स्थिति में होगी.

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क्या तेजस्वी यादव चुनावी बाजी पलट सकते हैं?

सर्वेक्षणों ने एनडीए को 140-160 सीटें जीतने के साथ स्पष्ट बहुमत की भविष्यवाणी की है और वह भी महागठबंधन पर 10-15 प्रतिशत बढ़त के साथ. ऐसे में तेजस्वी यादव के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती सामने खड़ी है, जिससे पार पाने के लिए उन्हें मतदाताओं को अपने विश्वास में लेना पड़ेगा. यहां कुछ ऐसी चुनौतियों का वर्णन किया जा रहा है, जिनसे पार पाने के लिए उन्हें अपने कदम फूंक-फूंककर रखने होंगे:

  1. लालू प्रसाद यादव के कार्यकाल के बारे में बीजेपी द्वारा किया गया ट्वीट उनके लिए निराशा का सबब बन सकता है, लेकिन सच्चाई यह है कि कई उच्च जाति के मतदाताओं को लालू प्रसाद यादव खटकते हैं. अब यह कथित कुशासन के कारण हो या फिर 'विशेषाधिकार हनन' के कारण. ऐसी भी संभावना है कि अगर आरजेडी बढ़त में रहती है तो उच्च जाति के मतदाताओं का एक वर्ग इसे हराने के लिए वाली चालाकी से मतदान कर सकता है. इसका मतलब है बीजेपी-जेडीयू गठबंधन के समर्थन में आना.
  2. हालांकि तेजस्वी ने पिछले कुछ हफ्तों में बहुत अच्छी वापसी की है, लेकिन एक विपक्षी नेता के रूप में उनका प्रदर्शन प्रभावशाली नहीं रहा है. यह किसी की व्यक्तिगत राय हो सकती है, अगर कोई उनकी तुलना वाईएस जगनमोहन रेड्डी या एमके स्टालिन जैसे नेताओं से करता है, जो अपने-अपने राज्यों में विपक्षी नेताओं के रूप में बेहद सक्रिय रहे. यह जगनमोहन रेड्डी के अनथक प्रयासों का ही परिणाम रहा कि उन्होंने 2019 में प्रचंड बहुमत हासिल किया.
  3. सी वोटर के एक सर्वेक्षण में कहा गया है कि 17 प्रतिशत उत्तरदाता तेजस्वी यादव को अगले सीएम के रूप में देखना चाहते हैं, जबकि 8 प्रतिशत उनके पिता लालू प्रसाद यादव को. इससे ऐसा लगता है कि ये 8 प्रतिशत आरजेडी के पक्के समर्थक हैं. हालांकि लालू प्रसाद की सजा को देखते हुए तेजस्वी यादव मुख्य रूप से इन 8 प्रतिशत लोगों की पहली पसंद होने चाहिए थे.
  4. विशेष रूप से मुस्लिम मतदाताओं में तेजस्वी के लिए उस तरह का लगाव नहीं दिखाई देता है, जैसा लगाव तेजस्वी यादव के पिता लालू प्रसाद यादव के लिए था. वैसे आरजेडी ने कभी भी मुसलमानों के खिलाफ जाने वाला रुख नहीं अपनाया है, लेकिन कई मुस्लिमों के बीच एक सोच पनपी है कि तेजस्वी उतने सक्रिय नहीं हो पाए, जितना कि उन्हें होना चाहिए था, जिस तरह का खतरा उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर है. कुछ मुस्लिम लोगों में इस तरह की सोच भी पनपी है कि तेजस्वी यादव उनके साथ पूरी तरह से स्टैंड लेते दिखाई नहीं दिए. इसके नतीजे मेन बिहार में मुसलमानों का एक वर्ग एआईएमआईएम को वोट देने के लिए विचार कर सकता है.
  5. इस सबको देखकर यही पता चलता है कि इस बार बिहार के चुनाव में जनता के सामने सबसे बड़ा मुद्दा सीएम उम्मीदवार के चयन का है. कुछ लोगों का अंदाजा है कि कुछ जगहों पर आरजेडी और कांग्रेस द्वारा उम्मीदवार के नाम का खुलासा तक नहीं किया गया है और इससे गठबंधन की संभावनाओं को नुकसान हो सकता है और बिल्कुल ऐसा ही कुछ एनडीए के बारे में भी कहा जा रहा है.
  6. वैसे यह भी स्पष्ट है कि तेजस्वी यादव ने महागठबंधन की इस चुनावी खेल में वापसी करा दी है. इसके लिए एनडीए और खासकर बीजेपी खुद ही जिम्मेदार है. शायद बीजेपी नीतीश कुमार को चकमा देने की कोशिश में व्यस्त थी और इस चक्कर में वह यह भूल गई कि बिहार में सबसे बड़ा खतरा जेडीयू नहीं, बल्कि आरजेडी है.

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