ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस (TMC) ने 2011 में पश्चिम बंगाल से 34 साल पुरानी वाम मोर्चा सरकार को उखाड़ फेंका था. उस वक्त का नारा था 'परिवर्तन', यानी बदलाव. बदलाव की बयार के सामने पुरानी सत्ता के तिनके-तिनके बिखर गए. इस लोकसभा चुनाव के दौरान उस घटना को आठ साल हो गए. इस दौर में बंगाल की जनता (सिर्फ बंगाली ही नहीं) का रुख सियासत को एक और मोड़ देने का है, जो शायद बंगाल की नई पहचान हो.
हो सकता है कि ममता ने 2011 में 'परिवर्तन' शब्द की शुरुआत न की हो, लेकिन ये शब्द 2019 के चुनाव में ज्यादा मायने रखता दिख रहा है.
इस आर्टिकल को सुनने के लिए यहां क्लिक करें-
यही कड़वी सच्चाई है. जहां तक वोट शेयर का सवाल है, तो बीजेपी राज्य में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरने जा रही है. वोट शेयर में बढ़ोतरी उसकी विचारधारा के लिए समर्थन का प्रतीक है. बदलाव के लिहाज से इसके क्या मायने हैं?
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की मूर्ति टूटने पर सियासत
हाल में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के एक रोड शो के दौरान ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की मूर्ति तोड़ दी गई. इस घटना के कारण और असर की संक्षिप्त समीक्षा करते हैं. कहा गया कि ये बंगाल में बंगालियों और गैर-बंगालियों का झगड़ा था, क्योंकि बंगाली सभ्यता की प्रतीक मूर्ति को तोड़ा गया था.
ये कहना सच से परे नहीं है, क्योंकि 2011 में गैर-बंगालियों की बदौलत ही ममता बनर्जी वामपंथी सरकार को उखाड़ फेंकने में कामयाब रही थीं.
इसके बाद ममता और उनकी TMC ने मारवाड़ियों, गुजरातियों, सिखों और बिहारियों के कारोबार को संरक्षण देने की नीति अपनाई. उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और ओडिशा के कामगारों (ज्यादातर CITU के पूर्व सदस्य) से TMC को भारी समर्थन मिला. दूसरी ओर किसी भी समुदाय के गैर-बंगालियों ने राज्य के सांस्कृतिक ताने-बाने को अपनाया. इन सच्चाइयों को देखते हुए मूर्ति तोड़ने की घटना को चुनावी तपिश का नतीजा कहा जा सकता है.
उन बिन्दुओं के बारे में संक्षेप में चर्चा करते हैं, जिनके आधार पर राज्य की आबोहवा करवटें ले रही हैं.
सबसे पहले, बंगाल की सियासत में धर्म की फिर से घुसपैठ हो रही है. बीसवीं सदी के पहले दशक में भारत की आजादी के संघर्ष में उग्रपंथी गुट सक्रिय हुए थे. वो गुट मुख्य रूप से हिन्दू देवी-देवताओं और खासकर काली का भक्त थे. बाद में उग्रपंथी गुटों में भारी तादाद में शामिल युवाओं के कारनामे मिथक और क्षेत्रीय गीतों का हिस्सा बनने लगे.
हिन्दू राष्ट्रवाद की बयार बहती रही और 1947 में विभाजन के माहौल में फिर जोर पकड़ी. इस बार श्यामा प्रसाद मुखर्जी के रूप में इस सोच को हवा देने की छवि सामने थी. वामपंथी सियासत और जमीनी कामकाज ने इस हवा को महसूस किया. बीसवीं सदी के उत्तरार्ध की आबोहवा कुछ और थी. उस दौर का हाल ये था कि अगर आप राजनीति को धर्म से जोड़ते हैं तो सियासी गलियारों में आपकी कोई पूछ नहीं.
2011 में वाम मोर्चे के सफाये और धीरे-धीरे उसकी कमजोर होती जड़ों के बीच 2014 में राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी की जीत से RSS को राजनीति में धर्म के घालमेल करने की नई उम्मीद दिखी. आमतौर पर बंगाल में धर्म (धार्मिक राजनीति नहीं) के दो स्वरूप हैं: बंगाल के अंदरूनी हिस्सों में स्थानीय देवी-देवताओं की पूजा और शहरों में भव्य दुर्गा पूजा. बीजेपी ने दोनों हिस्सों को निशाना बनाया.
उसने बंगाल में राजनीति के हरेक विचार-विमर्श में धर्म घोलना शुरू किया है: बांग्लादेशी प्रवासी (मुस्लिमों की संख्या में बढ़ोतरी), संस्कृति (धर्मनिरपेक्षता को इकलौता सही दर्शन बताने वाले रबीन्द्रनाथ और अमर्त्य सेन जैसे महापुरुषों का हिन्दू विरोध) और राष्ट्रवाद (धर्मनिरपेक्षता देश के लिए खतरनाक है). उन्होंने पूजा-पाठ के स्वरूप में भी बदलाव शुरू किया.
पिछले पांच सालों में बीजेपी ने बंगाल में नई परम्परा शुरू की, जिसमें सैकड़ों श्रद्धालु, जिनमें ज्यादातर युवा और बच्चे हैं, हाथों में त्रिशूल, तलवारें और दूसरे हथियारों का प्रदर्शन करते हुए सड़कों पर रैलियां निकालते हैं. ये लोग मुस्लिम बहुल और उसके पड़ोसी इलाकों में रैलियों को अपना हक समझते हैं. सोशल मीडिया पर मुस्लिम विरोधी पोस्ट की बौछार होती है, जबकि स्थानीय प्रशासन इस ओर से आंखें मूंदे रहता है.
दूसरी बात ‘बंगाली संस्कृति’ की, जिसे शब्दों में परिभाषित करना मुश्किल है, लेकिन जिसका सकारात्मक वजूद पिछली सदी में सिनेमा, थियेटर, काव्य और साहित्य में जमकर देखने को मिला है, जिसकी झलक कोलकाता और बंगाल के दूसरे शहरों में संस्थानों में होने वाले भाषणों में अक्सर देखने को मिलती है. चुनाव में ये भी एक मुद्दा था.
बीजेपी ने बंगाल के लोगों को अलग रास्ता अख्तियार करने का संदेश दिया. पार्टी ने बुद्धिजीवी वर्ग पर हमला बोला और उनकी सोच को सामाजिक असमानता का कारण और खासकर आर्थिक विकास की राह में रोड़ा बताया.
बंगाल के निवासियों को ये बार-बार बताया जाता रहा और अब उनमें से भी कुछ बोलने लगे हैं कि गुजरात, महाराष्ट्र और दक्षिण भारतीय राज्य बौद्धिकता से उदासीन हैं और परिश्रम तथा अनुशासन पर ध्यान देते हैं.
कई बंगालियों ने इन कहानियों को गुजराती और मारवाड़ी छवियों में ढालने की कोशिश की. बंगालियों की तुलना में इन दोनों समुदायों का बंगाल में सदियों से भारी योगदान रहा है, और वो बंगाल का वित्तीय बैकबोन रहे हैं. बीजेपी को इनके समर्थन के कारण बंगाली अपनी आदत के विपरीत वोटिंग करेंगे, जिसमें अब तक बौद्धिकता, वित्तीय मजबूती पर हावी रही है.
तीसरे बिन्दु पर विचार करने से पहले एक बात जरूरी है. सिर्फ ऊपर बताए गए दोनों समुदाय ही बदलाव के वाहक बनते तो बीजेपी के वोट शेयर में भारी बढ़ोतरी नहीं होती. कुछ लोगों का रुझान जरूर होता, लेकिन ज्यादातर का नहीं. सवाल है कि ऐसे में मौजूदा चुनाव में बीजेपी को भारी बढ़त कहां से मिल रही है?
तीसरा बिन्दु इसी सवाल का जवाब है, जो दिखता तो नहीं, लेकिन जिसे सावधानी के साथ की गई जातिगत अपील से समझा जा सकता है. जिन दिनों वाम मोर्चा सत्ता में था और यहां तक कि TMC राज के शुरुआती दिनों में भी जाति और धर्म का बंगाल की राजनीति से दूर-दूर तक कोई नाता न था.
बीजेपी ने बंगाल में भारी संख्या में मौजूद निचले तबके के लोगों को समझाया कि उन्हें जान-बूझकर सम्मान से महरूम रखा गया है और ये ऊंची जाति वालों की साजिश है. बीजेपी ने बताया कि अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त बंगाली भद्रलोक की अवधारणा सदियों पुरानी ऊंची जाति की परम्परा है.
ऊंची जाति के लोग तय करते हैं कि पहाड़ियों या जंगलों में रहने वाले, जनजातियां और बंगाल के अंदरूनी हिस्सों में रहने वाले निचले तबके के लोगों को समाज के लिए क्या करना चाहिए और क्या उम्मीद रखनी चाहिए. बीजेपी ने ऐसे तबके में रामनवमी या हनुमान पूजा के दौरान हथियारों के प्रदर्शन की परम्परा पर जोर दिया, जो इनकी ताकत का इजहार था. इनके जरिये इस तबके को अपने अलग वजूद का अहसास हो सकता था, जो सभ्य भद्रलोक से अलग था.
बौद्धिक समानता पाने के लिए रबीन्द्रनाथ को महान मानने से इनकार किया गया. अगर रबीन्द्रनाथ को बंगाली नजरिये का शिल्पकार माना जाए, तो उसे खारिज कर नया समाज रचने का रास्ता तैयार किया जा सकता था. बीजेपी का दावा है कि नए बंगाली बौद्धिक समाज का शिल्प RSS के पास है, जो राष्ट्र और धर्म के लिए समर्पित है और जिसमें मुस्लिम समुदाय को नष्ट कर देने का आक्रोश है.
वंचित समुदाय को लुभाने में बीजेपी अकेली नहीं है. यही काम वाम मोर्चे की नकल उतारकर TMC अलग तरीके से करती रही है. उसने अलग-अलग इलाकों में गुंडों की फौज तैयार की (पहले ये फौज वामपंथी गुंडों की होती थी, जिन्होंने 2011 में रातोंरात अपना पाला बदल लिया). गुंडों की इस फौज को अपने इलाकों को 'काबू' में रखने की आजादी है. बीजेपी ने इसे भी निशाना बनाया है. वो एक ऐसी तस्वीर पेश कर रही है, जिसमें समाज के जनजातीय, वनवासी और गरीब तबके को दूसरी पार्टियां सिर्फ वोट देने के लिए इस्तेमाल करती हैं.
निश्चित रूप से बीजेपी गलत है. 19वीं सदी के जागरण आन्दोलन के बाद बंगाल के पढ़े-लिखे वर्ग में निश्चित रूप से जाति की अवधारणा हाशिये पर चली गई थी. उनका नजरिया दुनियावी मानवता का था, जो जातिगत संकीर्णता से दूर था. टैगोर ने पुरानी परम्पराओं से अलग परम्परा तैयार की. उन्होंने बांग्लाभाषियों और पूरी दुनिया में अपने लेखन का अनुवाद पढ़ने-समझने वालों में एक अलग सोच विकसित की. वो औसत बंगालियों में उच्च स्तरीय विचार और भावनाएं पैदा करने का रास्ता थे.
बंगाली कवियों और लेखकों ने भूख, गरीबी और वर्ग संघर्ष के बारे में लिखा. उनमें कहीं भी, किसी को दबाने-कुचलने की भावना को प्रोत्साहन देना नहीं था. पारम्परिक कुरीतियों पर हमला बोलने और उन्हें नकारने में बंगाली सिनेमा और थियेटर का गौरवपूर्ण इतिहास रहा है, जिन्हें पूरी दुनिया में सराहना मिली है, जबकि बीजेपी का रास्ता साम्प्रदायिकता, जातीयता और संकीर्ण राष्ट्रवाद की सोच से भरा हुआ है.
फिर भी, बीजेपी की रणनीति साफतौर पर काम कर रही है. जब 23 मई को चुनाव के नतीजे आएंगे तो साफ हो जाएगा कि समाज को बांटने का उनका एजेंडा सीटों में बदला है या सिर्फ वोट शेयर में इजाफा हुआ है. अगर ऐसा कुछ भी नहीं होता है तो बंगाल वही रहेगा, जैसा हमेशा से था. लेकिन इसकी संभावना कम है. बंगाल की आबोहवा बदली हुई लगती है जिसने इस चुनाव में संकीर्णता के बीज बो दिये हैं.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)