कोविड–19 ने हमारी जिन्दगी में उथल-पुथल मचा दी. लॉकडाउन, स्कूलों का बंद होना और भौतिक दूरी, इन सबका बच्चों पर गहरा असर पड़ा. महामारी के कारण देश भर के स्कूल लगभग डेढ़ वर्ष तक बंद थे और पढ़ाई ऑनलाइन होने लगी. लेकिन तमाम स्टडी का निष्कर्ष ये है कि कई मामलों में 43.5% बच्चे ऑनलाइन पढ़ाई नहीं कर सके. कई इलाकों/वर्गों में 97% के पास डिजिटल उपकरण जैसे कि मोबाइल या लैपटॉप नहीं थे और 91% बच्चे पास इंटरनेट ही नहीं था. विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी की रिपोर्ट में ये बाते सामने आई हैं.
सस्टैनेबल डेवलपमेंट गोल्स 2030 (Sustainable Development Goals) के लक्ष्य 4 (एसडीजी 4) में परिलक्षित वैश्विक शिक्षा विकास एजेंडा के अनुसार, विश्व में 2030 तक “सभी के लिए समावेशी और समान गुणवत्ता युक्त शिक्षा सुनिश्चित करने और जीवन पर्यंत शिक्षा के अवसरों को बढ़ावा दिए जाने” का लक्ष्य है. भारत ने साल 2015 में एसडीजी 4 के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अपने टारगेट निर्धारित किए. हालांकि कोविड-19 महामारी की वजह से भारत में स्कूली शिक्षा पर बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ा.
महामारी के कारण लगाए गए लॉकडाउन के कारण देश भर के विद्यालय लगभग डेढ़ वर्षों तक बंद थे और पठन पाठन का तरीका पहले की तरह भौतिक साधन में ना होकर ऑनलाइन साधन में परिवर्तित हो चुका था. हालांकि ऑनलाइन साधन का पहुंच भी बहुत ही छोटे तबके तक सीमित था. सिर्फ वही बच्चे इस साधन में अपनी शिक्षा जारी रख पाए जिनके पास डिजिटल उपकरण और इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध थी.
अगर डाटा की बात करें तो महामारी से पहले NSSO 2017-18 के अनुसार, केवल 14.9 प्रतिशत ग्रामीण घरों में और लगभग 42 प्रतिशत शहरी घरों में इंटरनेट की सुविधा थी. वहीं सिर्फ 4 प्रतिशत ग्रामीण घरों में और 23 प्रतिशत शहरी घरों में कंप्यूटर की सुविधा थी. ये आकड़ा दर्शाता है कि देश में एक बहुत ही बड़ा तबका ऑनलाइन साधन में शिक्षा जारी रखने के लिए तैयार नहीं था और उनके स्कूल से ड्रॉपआउट करने की संभावना ज्यादा थी, क्योंकि शिक्षा के क्षेत्र में किए गए आनुभविक प्रमाण बताते है कि, अगर कोई बच्चा शिक्षा के माध्यम से ज्यादा दिनों तक दूर रहता है तो उसके स्कूल से ड्रॉपआउट करने की संभावना ज्यादा बढ़ जाती है.
अगर प्रमाण को और विस्तार से देखा जाए तो हमें पता चलता है कि बच्चों के स्कूल से ड्रॉप आउट करने के अनेकों कारण है: गरीबी, विकलांगता, खराब स्वास्थ्य, बाल विवाह, बाल मजदूरी, प्रवास और भेदभाव.
महामारी के दौरान भारत में विभिन्न संगठनों ने शिक्षा, स्वास्थ्य, और आजीविका के क्षेत्रों में त्वरित मूल्यांकन की ताकि इन क्षेत्रों में आए बदलाओं का विश्लेषण किया जा सके और नीति से संबंधित उपायों के सुझाव सरकारों को बताया जा सके. अगर हम इन त्वरित मूल्यांकनों पर पहली नजर डाले तो हमें दिखता है कि महामारी ने बच्चों की शिक्षा से संबंधित चुनौतियों को और भी बढ़ा दिया है और अन्य नागरिकों की आजीविका, स्वास्थ्य और मानसिक संबंधित स्वास्थ्य पर भी गहरा प्रभाव डाला है.
हाल ही में विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी (Vidhi Centre for Legal Policy) ने रिपोर्ट प्रकाशित किया है जिसमें भारत में महामारी के दौरान शिक्षा पर किए गए मूल्यांकनों का विश्लेषण किया गया है. इस विश्लेषण का उद्देश्य कोविड-19 के दौरान भारत में 'आउट ऑफ स्कूल चिल्ड्रन' की स्थिति पर ध्यान देने के साथ- साथ इन मूल्यांकनों के निष्कर्षों को संकलित करना था.
अगर इस रिसर्च पर नजर डाले तो हमें पता चलता है कि देश भर में संकलित कोविड-19 विशिष्ट सर्वेक्षण के हिसाब से 'आउट ऑफ स्कूल चिल्ड्रन' बच्चों का प्रतिशत अवधि, भूगोल और समूहों के आधार पर 1.3 प्रतिशत से 43.5 प्रतिशत के बीच था और संकलित अध्ययनों में “डिजिटल उपकरणों के ना पहुंच” की सीमा 10 प्रतिशत से 97 प्रतिशत तक थी, जबकि शिक्षा के ऑनलाइन साधन में भाग लेने के लिए “इंटरनेट कनेक्टिविटी के ना पहुंच” की सीमा 11 प्रतिशत से 91 प्रतिशत तक थी.
संकलित अध्ययनों में ऐसे भी अध्ययन थे जिन्होंने 'कोई भी ऑनलाइन शिक्षा प्राप्त नहीं करने वाले' बच्चों की संख्या पर रिपोर्ट दी और पाया कि ऐसे बच्चों की सीमा 10 प्रतिशत से 60 प्रतिशत तक था, जिसका अर्थ ये होगा कि कुछ छात्र मार्च 2020 में महामारी की शुरुआत के बाद से 19 महीने तक की अवधि तक किसी भी ऑनलाइन शिक्षा का उपयोग नहीं कर पाए.
अभी भी हम महामारी के प्रभावों को विभिन्न रूपों में महसूस कर रहे हैं और इस अध्ययन के निष्कर्ष एक अधिक गंभीर तस्वीर दर्शाती हैं- भले ही बच्चों का स्कूलों में नामांकन जारी रहा, लेकिन डिजिटल साधन पर अत्यधिक निर्भरता के कारण वे लंबे समय तक पठन पाठन से दूर रहे.
शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 स्थानीय प्राधिकरण को अपने क्षेत्र में रहने वाले 14 वर्ष की आयु तक के बच्चों के रिकॉर्ड को बनाए रखने के लिए जिम्मेदार बनाता है ताकि ये सुनिश्चित किया जा सके कि वे प्राथमिक शिक्षा में नामांकित हैं, भाग ले रहे हैं और पूरा कर रहे हैं. लेकिन विभिन्न अध्ययन ये दर्शाते है कि भारत में 'आउट ऑफ स्कूल चिल्ड्रन' की संख्या अभी भी बहुत ही अधिक है और सरकार की ओर से किए जा रहे प्रयास के बावजूद अपना लक्ष्य पूरा नहीं कर पा रहे हैं. इसलिए ये सुनिश्चित करने के लिए एक बहु-आयामी और बहु-क्षेत्रीय दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है-
ये तब किया जा सकता है जब कमजोर परिवारों के लिए मध्याह्न भोजन और छात्रवृत्ति आदि जैसे प्रोत्साहन कार्यक्रमों पर ध्यान केंद्रित करके किया जाए. इसके साथ ही स्थानीय प्राधिकरण को वर्तमान सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों की पहचान करने के लिए घर-घर जाकर सर्वेक्षण भी करना चाहिए जो बच्चों को स्कूल जाने से रोक रहे हैंऔर बच्चों की उपस्थिति को बढ़ाने के लिए माता-पिता के साथ सीधे और निरंतर बातचीत पर भी ध्यान केंद्रित करना चाहिए.
ऐसे में राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 द्वारा दिए गए दो सुझावों पर ध्यान केंद्रित करना भी अहम है - राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुसार दो तरह के पहल करने की जरूरत है जिनके मदद से बच्चों के स्कूल में वापसी और उनको ड्रॉपआउट होने से रोक जा सके– पहला, प्रभावी और पर्याप्त बुनियादी ढांचा उपलब्ध कराना जरूरी है ताकि सभी छात्रों को इसके माध्यम से प्री-प्राइमरी स्कूल से कक्षा 12 तक के सभी स्तरों पर सुरक्षित और आकर्षक स्कूली शिक्षा प्राप्त हो सके. दूसरा, प्रत्येक स्तर पर नियमित प्रशिक्षित शिक्षक उपलब्ध कराने की आवश्यकता है ताकि सभी बच्चों को अच्छे स्कूल में जाने और समुचित स्तर तक पढ़ने का अवसर मिले.
वहीं सभी सरकारों को भी शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 और राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 को ध्यान में रखते हुए ऐसे कार्यक्रम विकसित करना चाहिए जिससे 'आउट ऑफ स्कूल चिल्ड्रन' से जुड़ी समस्याओं को खत्म किया जा सके और हमारे स्कूली बच्चों को उच्चतर गुणवत्तापूर्ण शैक्षिक अवसर उपलब्ध कराया जा सके.
लेखकों का परिचय---
(आदित्य नारायण राय विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी, नई दिल्ली
निशा वर्नेकर विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी, नई दिल्ली
करन सिंघल, पीएचडी छात्र, यूनिवर्सिटी ऑफ लक्जमबर्ग)
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