छिपे संकट को पहचानें निर्मला सीतारमण
बिजनेस स्टैंडर्ड में टीएन नाइनन लिखते हैं कि वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण को पता है कि दिक्कत कहां है. अत्यधिक राजस्व घाटा, बढ़ी हुई मुद्रास्फीति, धरातल पर आर्थिक विकास दर से वह वाकिफ हैं. महामारी ने करोड़ों लोगों को गरीबी रेखा के नीचे धकेल दिया है. फिर भी आर्थिक सूचकांक संकेत दे रहे हैं कि कारोबार पटरी पर लौट रहे हैं. आईएमएफ और आर्थिक सर्वे भारत में आर्थिक विकास दर अगले वर्ष दोहरे अंक में देख रहे हैं.
नाइनन लिखते हैं कि नौकरी गंवा चुके करोड़ों लोग दोबारा काम पर नहीं लौट पाए हैं. स्थायी नौकरी छोड़कर पार्ट टाइम जॉब में जाने वालों की संख्या भी बड़ी है. महिलाओं को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है. कामगार महिलाओं की तादाद आधी रह गयी है.
लेखक का मानना है कि ऐसे में एम्पलॉयर को इंसेंटिव दिया जाना चाहिए ताकि वे लोगों को दोबारा नौकरी पर रख सकें. अधिक रोजगार देने वाले क्षेत्र जिन पर महामारी का ज्यादा असर हुआ है वहां सरकार को खर्च बढ़ाना चाहिए, जैसे- रियल इस्टेट.
प्रभावित लोगों को राहत पहुंचाने के लिए बहुत सारे काम हुए हैं जैसे अनाज का वितरण, ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के लिए बजट का विस्तार, छोटे कारोबारियों को आर्थिक मदद. इस मदद को अगले एक साल के लिए जारी रखना चाहिए ताकि उपभोग को बढ़ावा मिल सके. जिन्होंने महामारी में भी खर्च से अधिक कमाया है उनकी ओर आमदनी के लिए देखना होगा. आय या धन पर टैक्स, कंपनियों की आमदनी पर एक सीमा से अधिक आय के बाद सरचार्ज लगाया जा सकता है जो सिर्फ एक बार के लिए हो.
अर्थव्यवस्था में नहीं होगी V आकार की रिकवरी
पी चिदंबरम द इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि आम बजट एक ऐसे समय में पेश होने जा रहा है जब किसान गुस्से में हैं, सत्ता और विपक्ष में कोई रिश्ता नहीं रह गया है, एनडीए में बीजेपी के सिर्फ एक साथी रह गये हैं. महामारी से पहले 2020 की पहली तिमाही तक लगातार आठ तिमाही तक अर्थव्यवस्था गिरती रही थी.
महामारी के बाद 2021 की पहली तिमाही में 23.9 फीसदी और फिर दूसरी तिमाही में 7 फीसदी तक गोते लगा चुकी है. राजस्व घाटा 5 फीसदी और वास्तविक वित्तीय घाटा 7 फीसदी पार कर जाने का अनुमान है. चालू वित्त वर्ष की शुरुआत आपदा से हुई थी जो वर्ष के अंत तक प्रलय का रूप लेने जा रहा है.
चिदंबरम ने सुधारों को दिशाहीन बताते हुए लिखा है कि अर्थव्यवस्था में तेज वृद्धि होने के आसार नहीं हैं. आईएमएफ की मुख्य अर्थशास्त्री डॉ गीता गोपीनाथ ने कहा है कि 2025 से पहले अर्थव्यवस्था कोरोना काल से पहले वाली स्थिति तक नहीं पहुंच पाएगी. कुछ लोगों को आमद और दौलत बढ़ती दिखेगी और बहुसंख्यक लोग दर्द और आर्थिक नुकसान की पीड़ा झेलेंगे. स्वास्थ्य और रक्षा क्षेत्र में खर्च बढ़ाने की पुरानी मांग पर सरकार ध्यान दे सकती है.
चिदंबरम ने लिखा है कि सरकार ने अच्छी सलाह लेने से हमेशा परहेज किया है. फिर भी वे 10 सुझाव दे रहे हैं जिसके पूरा होने की संभावना नहीं है. इन सुझावों में अर्थव्यवस्था को वित्तीय प्रोत्साहन देने, गरीब तबके के 30 फीसदी परिवारों तक छह महीने तक नकदी हस्तांतरण बढ़ाने, MSME के लिए बचाव की योजना लाने जैसे सुझाव शामिल हैं.
बदलते भारतीय लोकतंत्र से घना अंधकार
द इंडियन एक्सप्रेस में प्रताप भानु मेहता ने लिखा है कि भारतीय लोकतंत्र में हो रहे बदलाव से अंधकार घना हो रहा है. गणतंत्र दिवस की घटना को लेकर बरपे हंगामे में शासन की रणनीति किसी भी बहाने समाज को बांटने और दमन करने की दिखती है. बौद्धिक वर्ग की प्रतिक्रियाएं दो तरीकों से सामने है. स्तब्ध और खौफनाक बताकर राष्ट्रवाद को जगाया गया है, तो इन घटनाओं के बाद आंदोलन की टूटी लय और कृषि बिल की रक्षा के प्रति आश्वस्त होकर इसे ही भारत की समस्या का समाधान समझ लिया गया है.
मेहता लिखते हैं कि डिक्टेटरशिप को व्यक्त करने और दमन का नया दौर चलाने की अभिलाषा दबी नहीं रह सकी है. भीमा कोरेगांव से लेकर सीएए के खिलाफ हुए प्रदर्शनों के दौरान राष्ट्रीय सुरक्षा के तमाम हथियारों का इस्तेमाल किया गया और आंदोलनकारियों के खिलाफ भीड़ को उकसाया गया.
प्रदर्शन के दौरान किसानों की लगातार मौत पर कोई उद्वेलित नहीं हुआ. एनआईए की कार्रवाई से लेकर संसद और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य जिम्मेदारी से हटकर कार्य करने के बावजूद किसान उद्वेलित नहीं हुए. यह दिखाने की कोशिश हुई कि आंदोलनकारी मुख्य रूप से पंजाब के हैं. अगर ऐसा है भी तो क्या उन्हें सुना नहीं जाना चाहिए?
मेहता लिखते हैं कि मीडिया को वास्तव में पूछना चाहिए था कि राजनीतिक जिम्मेदारी पूरी नहीं करते हुए क्यों पुलिस को एक असंभव काम में झोंक दिया गया है. असंतोष को दबाने के लिए ताकत का इस्तेमाल गलत है. हम नागरिक स्वतंत्रता, क्रोनी कैपिटनलिज्म, शासन की खतरनाक सांप्रदायिकता, असंतोष का अपराधीकरण, संघीय ढांचे को कमजोर करना और संस्थाओं को खत्म करने को नजरअंदाज करने के आदी हो गये हैं.
अर्थव्यवस्था की दिक्कतें जानना जरूरी
करन थापर हिंदुस्तान टाइम्स में लिखते हैं कि 1 फरवरी को जब वित्त मंत्री बजट पेश करेंगी तो नजर इस बात पर रहेगी कि अर्थव्यवस्था जिन समस्याओं से जूझ रही है, उसे वह किस तरीके से निबटती हैं. समस्या केवल यही है कि हममें से कई को यही पता नहीं होता कि समस्या क्या है.
प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद सदस्य नीलेश शाह के हवाले से वे लिखते हैं कि जीएसटी, विदेशी मुद्रा भंडार और बिजली की खपत ऊंचाई पर है जबकि वाहनों की बिक्री, मालभाड़ा और पीएमआई इंडेक्स संकेत दे रहे हैं कि अर्थव्यवस्था जबरदस्त तरीके से पटरी पर लौट रही है. वित्तमंत्री को अगर लगता है कि अर्थव्यवस्था अंग्रेजी वर्णमाला के अक्षर ‘वी’ (V) आकार ले रही है तो इसके पीछे यही वजह है.
करन थापर आगे योजना आयोग के पूर्व डिप्टी चेयरमेन मोंटेक सिंह अहलूवालिया के हवाले से बताते हैं कि वास्तव में अर्थव्यवस्था अंग्रेजी वर्णमाला के ‘के’ (K) अक्षर की तरह आगे बढ़ रही है. इसका अर्थ यह है कि कुछ क्षेत्र तेजी से आगे बढ़ रहे हैं तो कुछ बुरी स्थिति में बने हुए हैं. हालांकि चिंता के क्षेत्र दोनों तरह की सोच के लिए समान हैं.
रोजगार की स्थिति चिंताजनक है. दिसंबर में एक करोड़ 47 लाख लोगों की नौकरी छूट चुकी है और बेरोजगारी दर 9.1 फीसदी रही. मनरेगा में 10 जनवरी तक 10 करोड़ लोगों को काम मिल चुका है जो बीते वर्ष के मुताबिक 21 फीसदी अधिक है.
थापर आरबीआई की रिपोर्ट का जिक्र करते हैं कि सितंबर 2021 तक नॉन परफॉर्मिंग असेट यानी एनपीए 13.5 फीसदी होने जा रहा है, जो एक साल पहले 7.5 फीसदी था. चिंताजनक बात यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का एनपीए 9.7 फीसदी से बढ़कर 16.2 फीसदी होने वाला है. जीडीपी का 30 फीसदी हिस्सा MSME से बनता है जो सबसे अधिक रोजगार पैदा करता है.
यह दुर्दशा के दौर से गुजर रहा है. नीलेश शाह का सुझाव है कि सरकार देश में जमा सोना, एनीमी प्रॉपर्टी (पाकिस्तान जा चुके लोगों की संपत्ति), अधिशेष भूमि, सार्वजनिक ईकाइयों के विनिवेश से धन जुटाए. जुआ और सट्टेबाजी को कानूनी दर्जा देकर भी आमदनी पैदा की जा सकती है.
गणतंत्र दिवस पर चूक कहां हुई?
राजदीप सरदेसाई हिंदुस्तान टाइम्स में लिखते हैं कि दो महीने के किसान आंदोलन के बाद 26 जनवरी को अपनी पहचान के साथ गणतंत्र दिवस उत्सव मनाने का एक अवसर था. अलग-अलग रूप-रंग और सज्जा के साथ किसान परेड के लिए निकले भी. मगर, देखते-देखते यह मौका हिंसक भिडंत में बदल गया. फिर जो हुआ वैसी कल्पना किसी ने नहीं की थी. किसानों के अलग-अलग समूहों ने अलग-अलग तरीके से प्रतिक्रियाएं क्यों दी, सारे नियम क्यों टूटे और लालकिला इलाके में लोग क्यों गये- इन सवालों का जवाब पारदर्शी जांच से ही पता चल सकता है.
राजदीप लिखते हैं कि 30 अलग-अलग किसान समूहों का आह्वान एक था- तीन कृषि कानूनों को वापस लेना. लेकिन, वे वैचारिक रूप से अलग-अलग हैं यह भी सच है. यह बात भी समझ से परे है कि ट्रैक्टर रैली को लेकर दिल्ली पुलिस ने अपनी आपत्तियों के बावजूद राजनीतिक नेतृत्व को हावी होने क्यों दिया, यह भी एक रहस्य है.
किसान नेताओं को घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेनी होगी. कानून तोड़ते हुए ट्रैक्टर आत्मघाती हथियार बन गये. सरकार को भी अपना नजरिया बदलना होगा. आंदोलनकारियों को ‘देश विरोधी’ की सोच बदलनी होगी. दिशाहीन विपक्ष ने भी मौके का फायदा उठाने की कोशिश की. अगर परस्पर विश्वास पैदा होता तो आंदोलन खत्म करने का रास्ता निकल सकता था.
2021 के गणतंत्र दिवस पर ‘जय जवान जय किसान’ के प्रेरक नारे ने अपनी गरिमा को खोया है. आखिर में राजदीप सवाल उठाते हैं कि ट्रैक्टर पलटने से किसान की हुई मौत हेडलाइन बनी ताकि आंदोलन को अराजक बताया जा सके. लेकिन, 60 से अधिक किसानों की मौत क्यों नहीं हेडलाइन बन पायी? उन्हें श्रद्धांजलि कौन देगा?
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