ADVERTISEMENTREMOVE AD

CJI सेक्सुअल हैरेसमेंट केस:महिला को वकील,बयान की कॉपी मिलनी चाहिए?

जिस महिला ने CJI गोगोई पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था, अब उसने कोर्ट समिति के सामने हाजिर होने से इनकार कर दिया.

Published
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया रंजन गोगोई पर यौन उत्पीड़न का आरोप है. इस मामले पर तीन दिन सुनवाई चली. जिस महिला ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर यौन उत्पीड़न और धमकाने का आरोप लगाया था, अब उसने कोर्ट की इन हाउस समिति की सुनवाइयों में हाजिर होने से इनकार कर दिया है. इसमें कोई शक नहीं कि महिला ने जांच से बाहर होने का जो फैसला किया है वो कई लोगों को पच नहीं रहा होगा. लोग ये भी कह सकते हैं कि हमें तो महिला की मंशा पर पहले से ही शक था. लेकिन क्या महिला के फैसले पर सवाल उठाना सही होगा?

ADVERTISEMENTREMOVE AD
इस मामले में जिस तरह से CJI ने खुद पर लगे आरोपों की खुद ही सुनवाई की और कहा कि ये उनके खिलाफ साजिश है, जिस तरह से इस कथित साजिश की जांच, महिला के आरोपों की जांच से पहले शुरू हो गई और जिस तरह से महिला को इन-हाउस कमेटी में वकील लाने की इजाजत नहीं दी गई, क्या वाकई महिला का सुनवाई में शामिल नहीं होने का फैसला चौंकाता है?

इस आर्टिकल को पढ़ने के साथ आप सुन भी सकते हैं, सुनने के लिए प्ले बटन पर क्लिक करें

मीडिया को दिए अपने बयान में, शिकायतकर्ता ने कोर्ट के कार्यवाही पर विश्वास नहीं रखने के चार कारण बताए हैं और इन हाउस कमेटी की कार्यवाही से हटने का फैसला किया है:

  1. सुनवाई के दौरान महिला को अपना वकील/सहायक लाने की इजाजत नहीं दी गई, जबकि उन्हें सुनने में भी थोड़ी लाचारी है. ऐसे में “घबड़ाहट और डर” होना भी लाजिमी है (जिसकी शिकायत उन्होंने कई बार समिति से की).
  2. समिति की कार्यवाही की कोई विडियो या ऑडियो रिकॉर्डिंग नहीं कराई जा रही.
  3. उन्हें समिति के सामने 26 और 29 अप्रैल, 2019 को हुई पहली दो सुनवाईयों में दर्ज बयानों की कोई कॉपी नहीं दी गई. वो पूरी प्रक्रिया से परिचित नहीं हैं. लिहाजा उन्हें ये भी नहीं मालूम कि उनके बयान सही-सही दर्ज हो रहा है या नहीं.
  4. समिति की प्रक्रिया के बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं दी गई.

उनकी शिकायत है कि जस्टिस एस ए बोबडे, जस्टिस इन्दिरा बनर्जी और जस्टिस इन्दु मल्होत्रा की समिति उनसे बार-बार सवाल करती है, “शिकायत इतनी देरी से क्यों दर्ज कराई गई?” वो पहले ही कह चुकी हैं कि उन्हें समिति का माहौल डरावना लगा. उन्हें घबड़ाहट भी हो रही थी, क्योंकि “सुप्रीम कोर्ट के तीन जज उससे पूछताछ कर रहे थे.” इस वजह से वो बार-बार अपने साथ वकील लाने की गुजारिश कर रही थीं.

ये आपत्तियां कितनी जायज हैं? क्या जज नियमों का पालन नहीं कर रहे? और ये हो क्या रहा है?

ADVERTISEMENTREMOVE AD

क्या महिला को अपना वकील लाने की इजाजत देनी चाहिए?

इस सवाल का जवाब तलाशने के दो रास्ते हैं. एक, औपचारिकता भरे नियमों से बंधी प्रक्रिया, और दूसरी, साफ-सुथरी जांच कराने की सोच.

पहले विकल्प के मुताबिक कार्यवाही के दौरान शिकायतकर्ता को अपना वकील लाने की इजाजत देने की समिति पर बाध्यता नहीं है. साल 1999 से सुप्रीम कोर्ट की अंदरूनी मामलों की समिति को अपनी कार्यवाही के नियम खुद तय करने का अधिकार है.

सुप्रीम कोर्ट की ‘फुल कोर्ट’ ने निर्देश दिया और 23 अप्रैल को जस्टिस बोबडे ने समिति का गठन कर लिया. उस वक्त उन्होंने बताया:

“ये एक अंदरूनी प्रक्रिया है, जो किसी पार्टी की ओर से वकील को बात रखने की इजाजत नहीं देती. ये कोई औपचारिक न्यायिक प्रक्रिया नहीं है.”

अंदरूनी समिति के लिए सामान्य नियमों की भी बात करें, तो Sexual Harassment of Women at Workplace Act 2013 के तहत शिकायतकर्ता को “पूरी प्रक्रिया के दौरान कभी भी अपना पक्ष रखने के लिए वकील लाने की इजाजत नहीं है.” [देखें: Rule 7(6) of the relevant rules.]

लेकिन दूसरी ओर समिति के पास वकील लाने की इजाजत देने का भी अधिकार है. लिहाजा वो शिकायतकर्ता की मदद के लिए वकील लाने की इजाजत आसानी से दे सकती है.

इस मामले में वकील के लिए निवेदन में दम था. कम से कम शिकायतकर्ता और CJI गोगोई के ओहदे का फर्क देखकर. ये बताना भी जरूरी है कि समिति के तीनों सदस्य CJI गोगोई से जूनियर पदों पर हैं. इस बारे में खुद CJI गोगोई, जनवरी, 2018 को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में स्पष्ट बता चुके हैं.

वैसे किसी के लिए भी सुप्रीम कोर्ट के जजों के सवालों का अकेले सामना करने में घबड़ाहट होना लाजिमी है. और जब आप किसी जज के जूनियर कोर्ट असिस्टेंट के रूप में काम कर चुके हों, तो घबड़ाहट कुछ ज्यादा ही होती है. हम उनकी सुनने की लाचारी की बात कर ही नहीं रहे (जबकि सुनवाई शुरू होने के साथ ही उन्होंने स्पष्ट रूप से इस बारे में समिति को बता दिया था). फिर भी इस कारण वकील लाने का निवेदन ज्यादा मुनासिब लगता है.

English administrative law के मुताबिक (जो ज्यादातर भारतीय प्रशासनिक नियमों का आधार है), ये सभी कारण, वकील के जरिये अपनी बात रखने के पक्ष में कानूनी वजह हो सकते हैं. लेकिन बदकिस्मती से भारत में ये नियम लागू नहीं है.

न्याय के लिए आदेश देने की प्रक्रिया में सुप्रीम कोर्ट को कई अधिकार दिये गए हैं. हालांकि ये सुनवाई किसी न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा नहीं है, फिर भी समिति उन्हें इस बात की आसानी से इजाजत दे सकती थी कि वो प्रक्रिया के दौरान किसी की मदद ले सकें. लेकिन समिति के फैसले से आश्चर्य होता है कि साफ-सुथरे और बराबरी के माहौल में सुनवाई करने की बजाय इतनी छोटी सोच अपनाई गई?

ADVERTISEMENTREMOVE AD

क्या कोर्ट को कार्यवाही की रिकॉर्डिंग करनी चाहिए?

कानून के मुताबिक इस तरह की जांच कार्यवाही की ऑडियो या वीडियो रिकॉर्डिंग करने की कोई जरूरत नहीं है.

लेकिन ये समझना चाहिए कि शिकायतकर्ता की ये मांग भय का माहौल दूर करने और ये तय करने के लिए की गई थी कि उनके बयान को गलत तरीके से दर्ज न किया जाए. निष्पक्षता की भी बात की जाए तो जज ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं थे.

क्या कोर्ट के लिए शिकायतकर्ता को उसके बयान की एक कॉपी देना जरूरी है?

इस सवाल पर ये जवाब दिया जा सकता है कि समिति के सदस्य कार्यवाही की प्रक्रिया लागू करने के लिए अपने मनमुताबिक नियम बनाने को आजाद हैं. लिहाजा 26 और 29 अप्रैल को सुनवाई के दौरान दर्ज की गई बयान की प्रति देना जरूरी नहीं. ये निश्चित रूप से गलत है. निश्चित रूप से बयान रिकॉर्ड होना चाहिए और विभागीय कार्रवाई के लिए कम से कम उसे शिकायतकर्ता को पढ़ने का मौका जरूर देना चाहिए.

इसके अलावा किसी भी प्रशासनिक कार्रवाई को प्राकृतिक न्याय के नियमों का पालन करना होता है, जिसमें 'सुनने का अधिकार' भी शामिल है (audi alterem partem). क्या बयान दर्ज किया जा रहा है, इसकी जानकारी लेना उसी नियम के अनुरूप है. इसकी जरूरत इसलिए भी है कि शिकायतकर्ता को आंशिक रूप से सुनने में कठिनाई है, लिहाजा उसके लिए ये तय नहीं कि किसी खास समय में क्या कहा गया.

यानी, दर्ज किये गए बयान की कॉपी नहीं देना, न सिर्फ कार्यवाही की निष्पक्षता पर सवाल उठाता है, बल्कि समिति की जरूरतों के मुताबिक इसमें फेरबदल भी किया जा सकता है.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

क्या समिति को कार्यवाही की प्रक्रिया की जानकारी शिकायतकर्ता को देनी चाहिए?

एक बार फिर समिति कह सकती है कि वो शिकायतकर्ता को प्रक्रिया की जानकारी देने के लिए बाध्य नहीं है. लेकिन बयान की एक कॉपी के साथ सभी पक्षों को जांच के बारे में जानकारी दी जा सकती है, साथ ही कार्यवाही की प्रक्रिया के बारे में बताना भी उचित होगा.

इससे न सिर्फ शिकायकर्ता को, बल्कि CJI गोगोई को भी परेशानी होगी. अगर उन्हें प्रक्रिया की जानकारी नहीं होगी, तो अपना बचाव करना उनके लिए मुश्किल हो जाएगा. उन्हें सबूत देने और चश्मदीद के क्रॉस एक्जामिनेशन में भी कठिनाई होगी.

ये जानकारियां नहीं देने से सुनने के अधिकार का हनन होगा. लिहाजा कोर्ट इस सवाल का क्या जवाब देगा, इसका अनुमान लगाना मुश्किल है.

क्या ये समिति अपनी जांच जारी रखेगी?

30 अप्रैल को शिकायतकर्ता ने जजों को एक खत दिया, जिसमें लिखा था कि वकील/सहायक व्यक्ति को मौजूद रहने की इजाजत न देने की हालत में उसके लिए कार्यवाही में शामिल होना मुमकिन नहीं होगा. समिति ने न सिर्फ ये निवेदन अस्वीकार कर दिया, बल्कि ये भी कहा कि अगर वो कार्यवाही में भाग नहीं लेती हैं, तो समिति ex parte अपना काम करेगी.

Ex parte कार्यवाही – यानी ऐसी कार्यवाही, जिसमें एक या एक से ज्यादा पक्ष मौजूद न हों, जिन्हें इस कार्यवाही में हिस्सा लेने से मना नहीं किया गया है और सभी पक्षों को कार्यवाही का नोटिस दिया गया हो, तो भी कार्यवाही चल सकती है. यहां तक कि Sexual Harassment of Women at Workplace Act 2013 के तहत जांच समिति भी ex parte के तहत किसी पक्ष की गैर-मौजूदगी में अगली तीन सुनवाइयों तक इस बाबत नोटिस देकर कार्यवाही जारी रख सकती है.

यानी जस्टिक बोबडे की अगुवाई वाली जांच समिति शिकायतकर्ता के हलफनामे और अब तक दी गई जानकारियों के आधार पर और CJI गोगोई के दिये किसी बयान/सबूत के आधार पर जांच की कार्यवाही जारी रख सकती है. ये अवैध या अनुचित नहीं, लेकिन निष्पक्ष सुनवाई में मददगार भी नहीं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

सुप्रीम कोर्ट की ICC जांच क्यों नहीं कर रही?

बार-बार ये पूछा जाता रहा है कि ये जांच कोर्ट में स्थित Sexual Harassment of Women at Workplace Act 2013 की अंदरूनी जांच समिति क्यों नहीं कर रही?

इस सवाल की वजह है सुप्रीम कोर्ट की Gender Sensitisation and Internal Complaints Committee (GSICC), जिसका गठन 2013 में हुआ था. लगता है कि इसके पास सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान या रिटायर्ड जजों के खिलाफ शिकायतों की जांच का अधिकार नहीं है.

इस बारे में कोर्ट ने 2014 में ही चेतावनी दी थी, लेकिन इसमें सुधार नहीं किया गया. GSICC, CJI के अधिकार में है और वही इसका नियम लागू कर सकता है. इसकी वजह से GSICC का CJI के खिलाफ काम करना और मुश्किल है.

क्या शिकायतकर्ता के पास कार्रवाई के लिए कोई और रास्ता है?

इस मामले में शिकायतकर्ता के पास सिर्फ दो विकल्प हो सकते हैं:

  1. उन्हें क्रिमिनल केस दायर करना चाहिए और ये सुनिश्चित करना चाहिए कि CJI पर फौजदारी अदालत में मुकदमा चले.
  2. उन्हें दिल्ली हाई कोर्ट में या सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करनी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जजों की विशेष समिति से जांच कराई जाए.
  3. उन्हें Sexual Harassment of Women at Workplace Act 2013 के तहत उचित स्थानीय जांच समिति में शिकायत करनी चाहिए.

हालांकि इन सभी विकल्पों के सामने एक ही कठिनाई है: भारत के मुख्य न्यायाधीश का पद

सार्वजनिक क्षेत्र के व्यक्ति के खिलाफ क्रिमिनल मामले की जांच के लिए कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसि‍जर की धारा 197 के तहत उचित अधिकारी से इजाजत लेना जरूरी है. इस आधार पर आप तर्क दे सकते हैं कि CJI के खिलाफ कार्रवाई के लिए भारत के राष्ट्रपति से अनुमति ली जा सकती है. लेकिन 1991 में वीरास्वामी मामले में सुप्रीम कोर्ट की एक संवैधानिक पीठ ने फैसला सुनाया कि हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जजों के खिलाफ शिकायत तभी दर्ज हो सकती है, जब... आप अनुमान लगा सकते हैं... जब CJI से अनुमति मिल गई हो.

शिकायतकर्ता राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को याचिका दे सकती हैं कि अपने खिलाफ शिकायत दर्ज करने के लिए CJI की इजाजत जरूरी नहीं होनी चाहिए, बल्कि राष्ट्रपति से अनुमति ली जानी चाहिए. लेकिन साफ नहीं है कि ये तर्क स्वीकार किया जाएगा या नहीं. वो फुल कोर्ट या CJI के बाद सबसे सीनियर जज, जस्टिस बोबडे से भी शिकायत दर्ज करने की इजाजत देने का निवेदन कर सकती हैं. लेकिन लगता नहीं कि ऐसा हो पाएगा, क्योंकि मौजूदा अंदरूनी समिति के गठन की अनुमति फुल कोर्ट ने ही दी है और जस्टिस बोबडे भी उस समिति में शामिल हैं.

हाई कोर्ट में याचिका देने पर जांच हो सकती है. लेकिन न सिर्फ सभी जज पद में CJI से नीचे हैं, बल्कि 1999 के अंदरूनी जांच नियमों के मुताबिक उन्हें भी जांच के लिए CJI से इजाजत लेनी पड़ेगी.

सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हलफनामे की सुनवाई दूसरे बेंच से कराने का फैसला भी CJI करेंगे. इसके लिए फिर अंदरूनी प्रक्रिया का पालन करने की आवश्यकता होगी.

तकनीकी तौर पर स्थानीय जांच समिति सुनवाई कर सकती है, लेकिन इसके अधिकारी CJI की तुलना में काफी निचले ओहदे के हैं, लिहाजा इस समिति का अधिकार क्षेत्र तय करना मुश्किल है.

हालांकि शिकायतकर्ता के पास जांच प्रक्रिया में शामिल न होने की ठोस वजह है, लेकिन दूसरे विकल्प भी कानूनी तौर पर बंधे हुए हैं. लिहाजा कार्यवाही में शामिल न होने का कदम गलत लगता है. इस हालत में अंदरूनी जांच समिति की सुनवाई में शिकायतकर्ता के पास किसी सुलह तक पहुंचना भी मुमकिन नहीं दिखता.

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×