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हाशिमपुरा नरसंहार: अतीत की टीस में मरहम तलाशती जिंदा लाशें 

22 मई, 1987 की खौफनाक रात PAC के जवानों ने इलाके के करीब 42 लोगों को गोली से उड़ा दिया था.

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अतीत की टीस कई बार इतनी गहरी होती है कि वक्त का मरहम भी उसे भर नहीं पाता. मेरठ के हाशिमपुरा मोहल्ले से गुजरते वक्त आप ये बात शिद्दत से महसूस करेंगे. 22 मई, 1987 की खौफनाक रात प्रोविंशियल आर्म्ड कॉन्‍स्टेबुलरी (PAC) के जवानों ने इलाके के करीब 42 लोगों को गोली से उड़ा दिया.

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सालों साल चली कोर्ट-कचहरी के बाद 21 मार्च, 2015 को दिल्ली की तीस हजारी अदालत ने सबूतों के अभाव में हाशिमपुरा नरसंहार के तमाम 16 आरोपियों को बरी कर दिया था. फैसले को चुनौती देते हुए उत्तर प्रदेश सरकार ने दिल्ली हाई कोर्ट में अपील की थी जिसमें 16 पूर्व पुलिसकर्मियों को पिछले साल उम्रकैद की सजा सुनाई गई. नरसंहार के इतने सालों बाद द क्विंट की टीम जब वहां पहुंची तो पाया कि हाशिमपुरा अब जिंदा लाशों की एक बस्ती है जो आज भी उस काली रात को याद करके सिहर उठती है.

नहीं भूलती वो बेरहम रात

‘उस रात’ पीएसी के जवान जरीना के 45 साल के पति जहीर अख्तर और 17 साल के बेटे जावेद अख्तर को पूछताछ के बहाने घर से ले गए थे. उसके बाद वो कभी नहीं लौटे. लौटी तो बस उनकी मौत की खबर.

जरीना आज भी उस रात को याद कर सिहर उठती हैं. हमें दिखाने के लिए उन्होंने पति-बेटे की तस्वीरें उठाई तो आंखों से आंसू टपकने लगे. यूं तो उनके संयुक्त परिवार में पोते-पोतियों समेत बीस से ज्यादा लोग हैं लेकिन वो अपने पति और बेटे की तस्वीर तकिये के पास रखकर ही सोती हैं.

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इंसाफ का लंबा इंतजार

एक गोली मेरी बायीं पसली में लगी थी और दूसरी दाएं सीने में. उन्होंने मुझे मरा समझकर नदी में फेंक दिया. मैं किसी तरह तैरकर किनारे आया. गश्ती पुलिस के लोग मुझे अस्पताल ले गए. रास्ते में गाजियाबाद के लिंक रोड थाने में एफआईआर दर्ज करवाई गई.

हाशिमपुरा मुस्लिम बुनकरों की बस्ती है. बिहार के दरभंगा से मेरठ आए बाबुदीन उस वक्त एक पॉवरलूम में मजदूरी करते थे. हाशिमपुरा नरसंहार की पहली एफआईआर उन्हीं के नाम से दर्ज हुई थी. यूपी सरकार के अलावा बाबुदीन के नाम से भी एक अपील दिल्ली हाई कोर्ट में है लेकिन मुकदमे की रफ्तार से वो बेहद निराश हैं. बाबुदीन का परिवार दरभंगा में ही है लेकिन मुकदमे की वजह से कभी-कभार ही गांव जा पाते हैं.

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‘हम ईद नहीं मनाते..’

जो मारे गए वो तो हमेशा के लिए मर गए. लेकिन जो बच गए वो तिल-तिल कर मर रहे हैं. नसीम बानो उन्हीं में से एक हैं. साल 1987 में उनके इकलौते भाई सिराज अहमद की उम्र थी 23 साल. बीए का दूसरा साल चल रहा था और घरवालों ने सिराज की शादी तय कर दी थी. लेकिन उस रात ने शादी की खुशियों को मौत के मातम में बदल दिया.

मुकदमे की गवाही के लिए नसीम बानो ने भी तीस हजारी कोर्ट के सालों चक्कर लगाए. हाशिमपुरा कांड के शिकार करीब 20 लोगों के शव कभी बरामद ही नहीं हो पाए. सिराज भी उनमें से एक थे. नसीम बानो का कहना है कि 1987 के बाद से उनके परिवार ने कभी ईद नहीं मनाई.

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कैसे कटेगी जिंदगी?

विडंबना देखिए कि आज लंगड़ाकर चलने वाले मोहम्मद उस्मान को पीएसी के जवानों ने इसीलिए ट्रक में चढ़ाया था क्योंकि वो अपने पांच भाइयों में सबसे तंदरुस्त थे. नरसंहार की उस रात हुई गोलीबारी में उस्मान को दो गोली लगी. एक पेट से होती हुई पीठ से निकली तो दूसरी जांघ से होती हुई टांग के निचले हिस्से से.

दिल्ली के एम्स अस्पताल में महीने भर के इलाज के बाद उस्मान बच तो गए लेकिन शरीर से लाचार हो गए. उनका बुनाई का काम था, जो इलाज के खर्च में खत्म हो गया. खस्ता माली हालत के चलते 6 बच्चों में से किसी को पढ़ा नहीं पाए. उस्मान कोई धंधा नहीं करते और वो हमसे यही कहते रहे कि ‘मुझे नहीं पता कि मेरी आगे की जिंदगी कटेगी कैसे’.

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उम्मीदें नहीं छोड़ी

मेरे आगे कमरुद्दीन थे. उन्हें गोली लगी तो मांस और खून के फव्वारे से मैं नहा गया. मुझे मरा समझ कर पीएसी वालों ने मुझे नदी में फेंक दिया. मैने आंखों के सामने अपनों को मरते हुए देखा.
मोहम्मद नईम सैफ

सालों पुराने उस वाकिये को याद करते वक्त नईम की आवाज कांपने लगी.

न्याय में देरी तो हुई लेकिन आखिरकर गुनाहगारों को सजा मिली. लेकिन इतने सालों बाद भी हाशिमपुरा के लोगों के चेहरे पर दर्द की सिलवटें साफ नजर आतीं हैं. कोर्ट के फैसले ने राहत तो दी है, लेकिन दिलों में सुलगता वो दर्द शायद ताउम्र रहेगा.

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