मुख्यमंत्री की कुर्सी के इतने करीब पहुंचकर भी ज्योतिरादित्य सिंधिया उससे दूर रह गए और कमलनाथ बाजी मार गए. आपको 25 साल पहले फ्लैशबैक में ले चलते हैं तब उनके पिता माधवराव सिंधिया मध्यप्रदेश में कांग्रेस के बड़े नेता थे.
बात 1993 की है बीजेपी की सुंदरलाल पटवा की सरकार को बर्खास्त करने के बाद मध्यप्रदेश में कांग्रेस बहुमत में आई. मुख्यमंत्री के तौर पर माधवराव सिंधिया का नाम भी चर्चा में आ गया. माधवराव भी एकदम तैयार थे लेकिन तभी पासा पलट गया और कुर्सी दिग्विजय सिंह के पास पहुंच गई.
मध्यप्रदेश में कांग्रेस की 15 बरस बाद सरकार में वापसी हुई. लेकिन मुख्यमंत्री बनाने के नाम पर कांग्रेस दो दावेदारों के बीच इस बार भी अटक गई. भोपाल से लेकर दिल्ली तक खूब खींचतान चली. मीटिंगों के दौर चले. लेकिन कमान मिली कमलनाथ को. मुख्यमंत्री पद के दूसरे दावेदार ज्योतिरादित्य सिंधिया मुख्यमंत्री पद की दौड़ में पिछड़ गए और 25 साल पुरानी यादें ताजा हो गईं.
...जब मुख्यमंत्री पद की दौड़ में दिग्विजय सिंह से हार गए थे माधवराव सिंधिया
बात साल 1993 की है. मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी को जबरदस्त जीत मिली थी. काउंटिंग के अगले दिन सुबह-सुबह ग्वालियर राजघराने के महाराज माधवराव सिंधिया को संदेश मिला कि वो मुख्यमंत्री बनने के लिए तैयार रहें. संदेश देने वाले ने सिंधिया को कहा कि उन्हें किसी भी वक्त फोन आ सकता है. दिल्ली में माधवराव सिंधिया ने विमान तैयार रखने को कहा और फोन का इंतजार करने लगे. लेकिन न फोन आया और ना ही विमान दिल्ली से भोपाल के लिए उड़ान भरी.
उस दौर के बड़े नेता अर्जुन सिंह ने ऐन मौके पर खेल कर दिया. विधायक दल की बैठक में अर्जुन सिंह ने कहा कि मुख्यमंत्री किसी पिछड़े वर्ग के आदमी को बनाना चाहिए. इसके लिए उन्होंने एक तीसरा नाम भी आगे कर दिया, और वो नाम था सुभाष यादव का.
दो नामों को लेकर पार्टी में पहले से ही गुटबाजी थी, ऐसे में तीसरा नाम सामने आने के बाद विवाद और बढ़ गया.
तब भी नहीं बनी थी विधायक दल की बैठक में आम सहमति
विधायक दल की बैठक में किसी भी नाम पर आम सहमति नहीं बन पाई. दिग्विजय सिंह भी पिक्चर में आ गए. वो उस वक्त मध्य प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष थे. इस बैठक के लिए कांग्रेस के दिग्गज नेता प्रणब मुखर्जी और सुशील कुमार शिंदे पर्यवेक्षक के तौर पर पहुंचे थे.
तब सीएम की रेस से बाहर हो गए माधवराव सिंधिया
बैठक में आम सहमति नहीं बनी, तो तय हुआ कि सीक्रेट वोटिंग से मुख्यमंत्री का फैसला किया जाए. मुख्यमंत्री की रेस में अब भी दो ही लोग थे, पहले श्यामाचरण शुक्ल और दूसरे दिग्विजय सिंह. सीएम पद की दौड़ में अब माधवराव सिंधिया की जगह अब दिग्विजय सिंह ने ले ली थी.
राजनीतिक चक्रव्यूह कुछ ऐसा रचा गया कि माधवराव सिधिया का नाम अचानक गायब हो गया. वोटिंग हुई और दिग्विजय सिंह बाजी मार गए. दिग्विजय सिंह को सौ से ज्यादा वोट मिले, जबकि श्यामाचरण शुक्ल को सिर्फ 56 वोट मिले. दिग्विजय सिंह मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए और माधवराव सिंधिया दिल्ली में फोन का इंतजार करते रह गए.
कहते हैं कि इस पूरे खेल के मास्टरमाइंड अर्जुन सिंह थे. बहरहाल, इससे माधवराव सिंधिया मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने से रह गए.
सीएम पद की दौड़ में क्यों पिछड़ गए ज्योतिरादित्य?
इस इलेक्शन में ज्योतिरादित्य ने खूब पसीना बहाया. प्रदेश में 110 से ज्यादा चुनावी सभाएं की, दर्जनभर से ज्यादा रोड शो किए. इलेक्शन जीतने के बाद सिंधिया के समर्थकों को पूरा यकीन था कि इस बार श्रीमंत ही मुख्यमंत्री बनेंगे. लेकिन एक बार फिर पुत्र भी पिता की तरह भोपाल से दिल्ली की राजनीति में पिछड़ गया.
जानकारों के मुताबिक ज्योतिरादित्य के मुख्यमंत्री न बन पाने के पीछे कई कारण हैं.
- 2013 विधानसभा चुनाव में भी मध्य प्रदेश में प्रचार अभियान के प्रमुख थे लेकिन इस चुनाव में कांग्रेस को 230 में से कुल 58 सीटें हासिल हुई.
- कमलनाथ समर्थकों की दलील थी कि मध्य प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर उन्होंने नतीजा दिया है इसलिए उनकी दावेदारी बनती है.
- अनुभव के मामले में भी कमलनाथ भारी पड़ते हैं और 6 महीने बाद लोकसभा चुनाव में उनका अनुभव काम आएगा.
- इस बार भी चुने गए विधायकों में से ज्यादातर विधायक कमलनाथ या दिग्विजय सिंह के साथ थे, ऐसे में पुराने कांग्रेसी नेताओं की पसंद को देखते हुए कमलनाथ को चुना गया
कांग्रेस नेताओं का ये भी कहना है कि ज्योतिरादित्य के पास अभी राजनीति में अपना दम दिखाने के लिए काफी वक्त है. जबकि पार्टी का पूरा फोकस फिलहाल 2019 चुनाव की चुनौती पर है. खैर, पार्टी की रणनीति जो भी हो, लेकिन मध्य प्रदेश की राजनीति का इतिहास तो दोहराया ही जा चुका है.
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