“घरवालों को सिर्फ ये पता था कि एक्सीडेंट हुआ है, जब चारों की लाश आई तब उनको पता चला कि उनकी मौत हो गई है. यहां परिवारों को नहीं बताया जाता अगर कोई मर गया.”
राजस्थान के चार प्रवासी मजदूरों के परिवार से मिले एक स्थानीय शख्स ने क्विंट से ये कहा. लॉकडाउन के बाद महाराष्ट्र से अपने घर राजस्थान के बांसवाड़ा जा रहे चार प्रवासी मजदूरी की रास्ते में मौत हो गई.
रमेश भट्ट, नरेश, कालूराम और निखिल पांड्या उन 24 प्रवासी मजदूरों में शामिल हैं, जिनकी घंटों पैदल चलने से या एक्सीडेंट में मौत हो गई है. ये सभी मजदूर कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए लगाए गए लॉकडाउन के बाद सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने घरों के लिए पैदल ही निकलने को मजबूर हो गए थे.
ऐसे खत्म हुआ सफर
ये चारों मुंबई से बांसवाड़ा के लिए निकले थे. चारों ने पैदल और टेंपो के सहारे 60 किलोमीटर का रास्ता भी तय कर लिया था. 28 मार्च की सुबह एक्सीडेंट में चारों की मौके पर ही मौत हो गई.
एक्सीडेंट मुंबई-अहमदाबाद हाईवे पर खानीवाड़े टोल बूथ पर हुआ. ये इलाका विरार पुलिस स्टेशन के अंतर्गत आता है.
परिवार को चारों की मौत का पता 29 मार्च को चला, जब चारों का शव एंबुलेंस से गांव पहुंचा. अपनों को खोने के गम में चारों का परिवार टूट चुका है. परिवार चाहते हैं कि सरकार उन्हें मदद मुहैया कराए.
मुंबई में चाय की दुकान पर करते थे काम
नरेश (18) और कालूराम (18) को मुंबई में काम करते हुए एक साल भी नहीं हुआ था. दोनों वहां रमेश (55) के मुंबई के जोगेशवरी इलाके में चाय की दुकान पर काम करते थे. रमेश पिछले 25 सालों से मुंबई में काम कर रहा था, इसलिए जब उसे स्टॉल पर लड़कों की जरूरत पड़ी, तो वो नरेश और कालूराम को अपने साथ ले गया. जहां ये तीनों साथ में काम करते थे, वहीं एक्सीडेंट में मारा गया चौथा प्रवासी मजदूर, निखिल पांड्या भी एक टीस्टॉल पर काम करता था.
दक्षिण राजस्थान के इस पिछड़े आदिवासी जिले के पुरुष अक्सर काम के लिए गुजरात या महाराष्ट्र का रुख करते हैं. एक गांववाले ने बताया, "पिछले दो सालों में, MGNREGA भी लगभग खत्म हो गया है. यहां अब पैसे कमाने का कोई जरिया नहीं बचा है. माता-पिता भी बच्चों को ये जगह छोड़ने के लिए कह रहे हैं."
जहां नरेश और कालूराम महीने में 6,000 और रमेश भट्ट 12,000 रुपये कमाते थे, वहीं, नरेश की कमाई करीब 9,000 रुपये प्रतिमाह थी.
कालूराम और नरेश के एक दोस्त ने कहा, "वो अक्सर दूसरे गांववालों के जरिये घर के लिए पैसे भेजते थे. और होली-दिवाली पर घर आया करते थे."
जब देशभर में 21 दिनों के लॉकडाउन का ऐलान हुआ, तो सभी की कमाई पर भी संकट गहराने लगा. चाय की दुकान के बिना मुंबई जैसे शहर में गुजारा मुश्किल था, इसलिए चारों ने बाकी सभी मजदूरों की तरह पैदल ही घर लौटने का फैसला किया. मुंबई से करीब 30 मजदूर साथ घर की ओर बढ़े थे.
परिवार के पास नहीं कमाई का जरिया
अपने पिता रमेश का आखिरी फोन याद करते हुए, उनके 19 साल के बेटे राहुल ने कहा, “पापा ने कहा था कि वो खाना खाने के लिए रुके हैं और गुजरात बॉर्डर पहुंचने वाले हैं. ये 27 मार्च की रात की बात है, एक्सीडेंट से कुछ घंटे पहले की.”
रमेश बांसवाड़ा के आजना गांव मं अपनी पत्नी, बेटे और मां के साथ रहता था.
रमेश की पत्नी ने अन्न का एक दाना तक नहीं लिया है. बेटे राहुल ने बताया कि उनके आंसू नहीं रुक रहे हैं. सरकार पर सवाल उठाते हुए राहुल ने पूछा, “अगर वो उके शव को इतनी जल्दी ला सकते हैं, तो उन्हें क्यों नहीं घर ला पाए? उन्हें इतने किलोमीटर तक पैदल क्यों चलना पड़ा?”
बांसवाड़ा के लोहरिया पाडा भगोड़ा गांव में रहने वाले नरेश ने 8 महीने पहले ही मुंबई में रमेश की दुकान पर काम करना शुरू किया था. नरेश का परिवार आर्थिक तौर पर बेहद कमजोर है. उसका एक छोटा भाई, एक छोटी बहन है. उसके माता-पिता गांव में छोटे-मोटे निर्माण कार्य में काम करते हैं.
नरेश के पिता ने बताया कि बांसवाड़ा में कोई काम नहीं होने के कारण वो 8 महीने पहले ही मुंबई गया था. उसका छोटा भाई (9) और बहन (17) रो-रोकर पूछते हैं: “मेरे भाई की मौत क्यों हुई? एक टेंपो लोगों की जान कैसे ले सकता है?”
एक मजदूर ने नरेश के फोन से ही चारों की मौत की खबर गांववालों और पुलिस को दी थी. क्विंट को मिले एक वीडियो में दिखाई देता है कि एक प्रवासी मजदूर हाईवे पर शवों की पहचानते हुए पुलिस से बात कर रहा है.
परोडा गांव में कालूराम के घर का भी ऐसा ही कुछ हाल है. उसके पिता, देवजी उसकी कमाई पर ही निर्भर थे. उन्होंने कहा,
“मैंने उससे एक दिन पहले ही बात की थी. उसने कहा था कि उसे भूख लगी है, लेकिन वो ठीक है. वो जल्द घर आना चाहता था, इसलिए दिन-रात पैदल चल रहा था.”
बांसवाड़ा के मोटी बस्ती में रहने वाले 25 साल के निखिल के कंधों पर बड़ी जिम्मेदारियां थीं. पिता प्रकाश के लिए, बेटा निखिल ही सबकुछ था. परिवार में वही कमाई का जरिया था. प्रकाश ने कहा, “मैं बीमार रहता हूं और काम नहीं कर पाता. हमेशा बुखार और दर्द लगा रहता है. मैं उसके बिना कैसे जी पाऊंगा?”
निखिल का एक छोटा भाई भी है, जो स्कूल खत्म कर कॉलेज ज्वाइन कर चुका है. उसे अब नहीं मालूम कि वो आगे पढ़ाई जारी रख पाएगा या नहीं.
“हमारे दुख का कोई मतलब नहीं क्या?”
परिवार को नहीं पता है कि टेंपो ड्राइवर को अब तक गिरफ्तार किया गया या नहीं. प्रकाश के पिता पूछते हैं, “हमें कोई जानकारी नहीं ह कि वो गिरफ्तार हुआ या नहीं. किसी ने हमसे बात नहीं की, जैसे हमने जो खोया, उसका कोई मतलब नहीं.”
क्विंट ने विरार पुलिस स्टेशन के सब-डिविजनल पुलिस अफसर (SDPO) रेणुका वाघडे़ को कॉल किया, जिन्होंने बताया कि टेंपो में बैठे दो लोगों को गिरफ्तार किया गया है. उन्होंने कहा, “ड्राइवर ने भागने की कोशिश की थी, लेकिन 28 मार्च को ही उसे गिरफ्तार कर लिया गया. वो अभी जेल में हैं और संबंधित अपराधों के लिए उसपर चार्जशीट फाइल करने की तैयारी की जा रही है.”
इन सभी परिवारों का कमाने का जरिया छिन गया है. ऐसे में, ये बस सरकार से मुआवजा चाहते हैं. निखिल के भाई का कहना है कि इससे उनकी काफी मदद होगी और उसे अपनी पढ़ाई शायद न छोड़नी पड़ी. इस स्टोरी से उम्मीद रखते हुए प्रकाश ने कहा, “हम राजस्थान या महाराष्ट्र सरकार के मुआवजे का इंतजार कर रहे हैं, अभी तक किसी ने कोई मदद नहीं की है.”
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