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संडे व्यू: सरकार और सुप्रीम कोर्ट की जंग, राहुल पर येचुरी का जादू

पढ़िए देश के अखबारों के बेस्ट आर्टिकल.

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एक राष्ट्रपति की उम्मीद जगाती अपील

पिछले सप्ताह फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने अमेरिका में जाकर जिस तरह से लोकतंत्र की व्याख्या की और राष्ट्रवाद के बढ़ते खतरे से आगाह किया, उसकी हाल-फिलहाल में मिसाल मुश्किल है. दुनिया के किसी नेता ने हाल में इस तरह की दो टूक बात नहीं की होगी. एमनेस्टी इंडिया के हेड और मशहूर स्तंभकार आकार पटेल को इस पर लिखने के लिए बधाई देनी चाहिए.

टाइम्स ऑफ इंडिया में पटेल लिखते हैं- अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को मैक्रों ने राष्ट्रवाद और लोकतंत्र का सबक दिया. मैक्रों ने कहा-

निजी तौर पर मैं नई ताकत हासिल करने के प्रति दीवानगी, अथाह स्वतंत्रता और राष्ट्रवाद के भ्रम में विश्वास नहीं करता. इन मूल्यों को आगे बढ़ाने में अमेरिका और यूरोप का साझा रोल रहा है क्योंकि अपने मूल्यों, सार्वभौमिक मूल्यों और मानवाधिकारों के प्रति अपनी आवाज बुलंद करने के लिए यही तरीका है.अल्पसंख्यकों के अधिकार और साझा आजादी दुनिया में मौजूदा गड़बड़ियों का असली निदान हैं. मैं इन अधिकारियों और मूल्यों में विश्वास करता हूं.

राष्ट्रवाद की उनकी व्याख्या तो और भी शानदार थी. उन्होंने कहा- हम अलग-थलग रहना, मूल्यों से वापसी और राष्ट्रवाद का रास्ता चुन सकते हैं. फौरी तौर पर हमारी मुश्किलों का यह समाधान नजर आ सकता है. लेकिन दरवाजे बंद कर लेने से दुनिया का विकास रूक नहीं जाएगा. बंद दरवाजे से समस्या सुलझेगी नहीं बल्कि और बढ़ेगी.

हमारे नागरिकों को यह भयभीत ही करेगा. मुझे पक्का विश्वास है कि अगर हम अपनी आंखें खुली रखने का फैसला करेंगे तो मजबूत बनेंगे. इसी से हम खतरों से बचेंगे. हम अति राष्ट्रवाद को दुनिया की उम्मीदों और समृद्धि को नुकसान पहुंचाने की इजाजत नहीं दे सकते. अपने देश में राष्ट्रवाद के डोज के बीच इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि मैक्रोन ने जो कहा कि वह भारत के संविधान के मूल्यों की ही व्याख्या करता है. उन्होंने जो कहा वह उस वादे से अलग नहीं है, जिसका वादा हमने एक दिन आधी रात के वक्त किया था.

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पुराने फॉर्मूले से नहीं सुलझेंगे दलित सवाल

देश में दलित वोटरों की गोलबंदी की बीजेपी और कांग्रेस की कोशिश कितना रंग लाएगी, यह देखना बाकी है. इकनॉमिक टाइम्स में नीलांजन मुखोपाध्याय ने इस सवाल को दलित अस्मिता पर पड़ रही लगातार चोट और इसकी प्रतिक्रिया में हो रहे सामूहिक विरोध के संदर्भ में देखा है. मुखोपाध्याय लिखते हैं- अलग-अलग उपजातियों में बंटी देश की 16.2 फीसदी दलित आबादी एक ही सेंटिमेंट से बंधी है और वह है उसका शोषण. इस देश में उनके पास सिर्फ 9.23 फीसदी जमीन है और यह पूरी आबादी सामाजिक भेदभाव की शिकार है.

मुखोपाध्याय लिखते हैं- बीएसपी ने दलित वर्चस्व वाली दलित जातियों और दूसरी जातियों का गठबंधन तैयार किया तो बीजेपी ने वर्चस्व से बाहर की दलित जातियों और लोअर बीएसपी का गठबंधन तैयार किया. लेकिन रोहित वेमुला कांड और उना में दलितों की पिटाई के बाद बीजेपी के इस समीकरण सवाल उठने शुरू हो गए.

एस-एसटी एक्ट से जुड़े सुप्रीम कोर्ट के फैसले का जिस तरह से दलितों ने पूरे देश में विरोध किया. उससे बीजेपी में जरूर चिंता पैदा हुई होगी. बहरहाल, बीजेपी को दलितों के गांव में रात बिताने और अंबेडकर के लेखन के इकट्ठा प्रकाशन जैसे फॉर्मूले से उपर उठाना होगा.

दलितों वोटों पर आगे की लड़ाई नजरिये की है. और बीजेपी चाहे इसे पसंद करे या न करे उसे अब भी सवर्ण पार्टी के तौर पर ही देखा जा रहा है.

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डब्ल्यूटीओ में हार और लेग पीस का कारोबार

भारत डब्ल्यूटीओ में एक लड़ाई हार गया है. लेकिन इसने इसके लिए नया अवसर पैदा किया है. भारत में अब मुर्गे की टांग का अमेरिका से आयात तेज हो जाएगा. चूंकि अमेरिकी चिकन ब्रेस्ट ज्यादा पसंद करते हैं इसलिए लेग पीस वहां सस्ती बिकता है. भारत ने इस सस्ते लेग पीस का आयात रोक रखा था क्योंकि उसे यहां के चिकन इंडस्ट्री को खतरा था.

स्वामीनाथन एस. अंकलसरैया टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखते हैं- ब्रेस्ट और लेग पीस की कीमतों का यह अंतर भारत के लिए मौका है. भारत को अपने चिकन इंडस्ट्री के स्ट्रक्चर को बदलना चाहिए. अब इसे चिकेन ब्रेस्ट और लेग दोनों निर्यात करना चाहिए. लेकिन इसके लिए इसे अमेरिकी बाजार के हिसाब से चलना होगा. अमेरिका में मुर्गे साइज में बड़े होते हैं. जाहिर है लेग पीस और ब्रेस्ट भी बड़े साइज के चाहिए. भारत में दो किलो के मुर्गे हलाल कर दिए जाते हैं.

डब्ल्यूटीओ के इस फैसले से भारतीय चिकन उत्पादकों को नए सिरे से सोचने का मौका मिलेगा. अब वे सिर्फ घरेलू बाजार में फोकस न करेंगे बल्कि यूरोप, अमेरिका और चीन के बाजार की ओर रुख करें.

बरसों तक अमेरिकी मुर्गों की टांगों को भारत से बाहर रखा गया कि अमेरिकी टांग पसंद नहीं करते और सस्ती टांगें भारतीय चिकन बाजार को खत्म कर देंगी. लेकिन यह गलत है. अमेरिका में लेग पीस भी खासे बिकते हैं. भारत इसका फायदा उठा सकता है. सबक यह है कि हम कारोबार की अपनी प्रवृतियां बदलें. संरक्षणवादी कदमों से भला नहीं होगा. दुनिया को एक खतरे की तरह नहीं बल्कि मौके के तौर पर देखें.भारत को एक बड़े ग्लोबल प्लेयर की तरह उभरना चाहिए जो चिकन का आयात भी करे और निर्यात भी. समृद्धि इसी में है.

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तेल का खेल समझने में नाकाम मोदी सरकार

तेल की बढ़ती कीमतें मोदी सरकार को भारी पड़ सकती हैं. पी चिदंबरम के मुताबिक मौजूदा सरकार तेल का खेल समझने में नाकाम रही हैं. दैनिक जनसत्ता में  वह लिखते हैं- कई सालों से रूस अपना सालाना बजट यह सोच कर बनाता रहा है कि कच्चे तेल की कीमतें 100 डॉलर प्रति बैरल या उससे ऊपर पहुंच जाएंगी. जब तेल की कीमतें लुढ़केंगी, तो रूसी अर्थव्यवस्था का क्या हाल होगा, यह सोचा ही नहीं गया.

जब 2014 में तेल की कीमतें काफी नीचें आ गर्इं और इससे एक अप्रत्याशित लाभ की स्थिति बनी, तो नीची कीमतों के आधार पर हमारा केंद्रीय बजट बनाया गया. तेल की नीची कीमतों ने बीजेपी-एनडीए सरकार और राज्य सरकारों के लिए यह गुंजाइश पैदा की कि वे उपभोक्ताओं पर अधिक से अधिक टैक्स लादें, और बिना महंगाई का जोखिम मोल लिये खूब संसाधन जुटाएं.

जहां तक व्यय का सवाल है, रसोई गैस, केरोसीन और फर्टिलाइजर पर सबसिडी घटा दी गई. सरकार ने रेलवे और दूसरे महकमों में भी खर्चों में बचत की. कुल मिलाकर, सरकार के लिए यह बहुत अनुकूल समय था: उसने अप्रत्याशित लाभ की फसल काटी, बिना इस पर तनिक विचार किए, कि जब तेल की कीमतें फिर बढ़ेंगी तो वह क्या करेगी. अब यह स्थिति आ गई है और सरकार मुश्किलों में घिरी है.

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मोदी की चीन यात्रा से क्या हुआ हासिल

अमर उजाला में मनोज जोशी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चीन यात्रा और राष्ट्रपति शी जिनपिंग से उनकी मुलाकात का विश्लेषण किया है. जोशी ने एनडीए सरकार की शुरुआती चीन नीति का जिक्र करते हुए लिखते हैं- डोकलम संकट ने सरकार की स्थिति जटिल कर दी है.

चीन ने पिछले साल वास्तविक नियंत्रण रेखा के नजदीक तैनाती शुरू कर दी थी जिससे लगने लगा था कि दोनों देशों के बीच तनाव मोदी के दोबारा चुनाव में बाधा पहुंचा सकता है.

दूसरी ओर बीजिंग के लिए यह अवसर भी है क्योंकि वह अमेरिका के साथ व्यापार युद्ध में उलझा हुआ है. बहरहाल, मोदी की चीन यात्रा का हासिल क्या है. जोशी लिखते हैं कि सबसे बड़ा नतीजा तो यही है कि दोनों पक्षों ने अपनी-अपनी सेनाओं को स्ट्रेटजिक निर्देश देने का फैसला किया है. ताकि सरहद पर शांति रखी जा सके. दोनों पक्ष ने आतंकवाद के साझा खतरे की शिनाख्त की है.

दोनों नेताओं ने महसूस किया है कि भारत और चीन अब इतने परिपक्व हैं कि शांतिपूर्ण बातचीत से अपने संबंधों की व्यापकता को ध्यान में रख कर विवाद सुलझा सकें. यदि सीमा पर पाकिस्तान की हरकत को लेकर चीन के रुख में कोई बदलाव दिखे तो हमें हैरत होगी.

इस शिखर सम्मेलन का यह उद्देश्य नहीं था. इसका उद्देश्य था दो एशियाई दिग्गजों के सह-अस्तित्व की शर्तों की तलाश करना.

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सरकार और सुप्रीम कोर्ट की जंग

हिन्दुस्तान टाइम्स में चाणक्य ने कार्यपालिका और न्यायपालिका के मौजूदा विवाद का जिक्र किया है. यह मुद्दा चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग के मामले को इर्द-गिर्द घूम रहा है.  सरकार जजों की नियुक्ति या सांस्थानिक तरीका लाना चाहती है जबकि सुप्रीम कोर्ट चाहता है कि जजों के सेलेक्शन के लिए कोलेजियम सिस्टम को ही सही मानती है और इसे किसी भी तरह से छोड़ने को तैयार नहीं है.

कोलेजियम सिस्टम के जरिये जजों की नियुक्ति को लेकर सरकार और सुप्रीम कोर्ट में तनातनी जारी है. हाल में जस्टिस के एम जोसेफ की नियुक्ति के मामले में विवाद जारी है.

बहरहाल, चाणक्य लिखते हैं कि किसी भी संस्था की विश्वसनीयता व्यक्तियों के गुण पर निर्भर नहीं करती है बल्कि इस बात पर निर्भर करती है एक संस्था के तौर पर करती है. यह सही है कि व्यक्ति के काम पर ही संस्था की गुणवत्ता निर्भर है. लेकिन सिर्फ किसी व्यक्ति के फैसले के आधार पर प्रक्रियाओं का बलिदान नहीं दिया जा सकता और न ही संस्थागत अनुशासन में ढील दी जा सकती. भारत का सुप्रीम कोर्ट फिलहाल इसी समस्या से जूझ रहा है.

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राहुल पर येचुरी का जादू

और आखिर में कूमी कपूर की नजर. इंडियन एक्सप्रेस के अपने कॉलम इनसाइड ट्रैक में वह लिखती हैं कि कांग्रेस  के कई नेता यह मानते हैं कि चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग के विपक्ष का फैसला इस संबंध में राहुल गांधी पर सीपीएम जनरल सेक्रेट्री सीताराम येचुरी के बेवजह के असर का नतीजा है.

कई कांग्रेसी नेताओं का कहना है कि राहुल गांधी अनुभवी नेताओं की तुलना में पार्टी से बाहर के नेताओं और गैर राजनीतिक लोगों पर ज्यादा भरोसा करते हैं.

हाल में कांग्रेस के प्लेनरी सेशन में टेक्नोक्रेट एनआरआई सैम पित्रोदा की सलाहों को सबसे ज्यादा तवज्जो दी गई. गुजरात चुनाव के समय जिग्नेश मेवाणी को तवज्जो दी गई. बहरहाल, राहुल के ज्यादातर सलाहकार की विचारधारा रेडिकल है जो कांग्रेस के मध्यमार्गी सोच को सूट नहीं करती.

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