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कानपुर हिंसा में शामिल होने का आरोप झेल रहा PFI क्या है,कैसा रहा है इसका इतिहास?

Kanpur Violence में PFI पर आरोप लग रहे हैं.

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उत्तर प्रदेश के कानपुर (Kanpur) में 3 जून शुक्रवार को हिंसा का मामला सामने आया था, जिसमें पुलिस ने अब तक कथित मुख्य आरोपी हयात जफर हाशमी सहित कुल 50 से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया है. इसके अलावा पुलिस ने इस उपद्रव में कथित रूप से शामिल लोगों की तस्वीरों के होर्डिंग्स भी शहर में कई जगहों पर लगाए हैं. इसके अलावा एक बीजेपी युवा मोर्चा के नेता को भी गिरफ्तार किया गया है. आरोप लगाए जा रहे हैं कानपुर में हुई इस हिंसा में पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडया (PFI) के तार भी जुड़े हुए हैं.

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कानपुर पुलिस के मुताबिक हयात जफर हाशमी के ठिकानों पर हुई छापेमारी के दौरान पीएफआई से जुड़े कुछ डॉक्यूमेंट्स भी पाए गए हैं.

इंडिया टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (PFI) के महासचिव अनीस अहमद ने हाल ही में कानपुर में हुई हिंसा में संगठन की भूमिका के आरोपों को खारिज किया है, इसके साथ ही उन्होंने हिंसा की निंदा भी की.

पीएफआई का कानपुर हिंसा से कोई संबंध नहीं है. उत्तर प्रदेश में हमारी कोई इकाई नहीं है, कानपुर की तो बात ही छोड़िए. पीएफआई की उत्तर प्रदेश में केवल अनौपचारिक (ad hoc) इकाई है. एफआईआर में हमारा नाम नहीं है, कानपुर हिंसा के आरोपियों से हमारा कोई संबंध नहीं है.
अनीस अहमद, महासचिव, पीएफआई

इसके अलावा उन्होंने कानपुर हिंसा मामले में पुलिस द्वारा की जा रही कार्रवाई को पक्षपातपूर्ण और एक पक्ष के प्रति भेदभाव पर आधारित बताया है.

पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (PFI) पिछले कुछ सालों में कई बार सुर्खियों में आ चुका है. पिछले दिनों पूरे भारत में सीएए-एनआरसी के खिलाफ हो रहे आंदोलन के दौरान भी इसका नाम सामने आया था. इस दौरान इस पर प्रतिबंध लगाने की भी मांग उठाई गई थी. पीएफआई पर आरोप लगाया जाता है कि यह मुस्लिम युवाओं को कट्टरपंथी बनाता है.

आइए जानते हैं कि यह संगठन क्यों बनाया गया, इसका क्या इतिहास है और देशभर में हो रही इसकी चर्चाओं की वजह क्या है?

तीन संगठनों से मिलकर बना PFI

साल 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद तीन मुस्लिम संगठनों- नेशनल डेवलप्मेंट फ्रंट (NDF), कर्नाटक फोरम फॉर डिग्निटी (KFD) और तमिलनाडु के मनीथा नीति पासारी के विलय के बाद 2006 के दौरान केरल में पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (PFI) शुरू किया गया था.

हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक पीएफआई का दावा है कि देश के 22 राज्यों में उसकी इकाइयां हैं. इस संगठन का हेडक्वार्टर पहले केरल के कोझीकोड में था, लेकिन विस्तार हो जाने के बाद इसे दिल्ली ट्रांसफर कर दिया गया.

पीएफआई के बनने का औपचारिक ऐलान 16 फरवरी, 2007 को बेंगलुरु में हुई एक रैली "एम्पॉवर इंडिया कॉन्फ्रेंस" के दैरान किया गया था.

हाशिए पर खड़े समुदायों की आवाज उठाने का दावा करता है PFI

पीएफआई ने खुद को एक ऐसे संगठन के रूप में पेश किया है, जो अल्पसंख्यकों, दलितों और हाशिए के समुदायों के अधिकारों के लिए लड़ता है. इसने कर्नाटक में कांग्रेस, बीजेपी और जेडी-एस की कथित जनविरोधी नीतियों को कई बार निशाने पर लिया है, जबकि इन पार्टियों ने एक दूसरे पर मुसलमानों का चुनावी समर्थन हासिल करने के लिए पीएफआई के साथ मिलीभगत का आरोप लगाया है.

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जागरण समूहों जैसे काम करता है संगठन

पीएफआई ने खुद कभी चुनाव नहीं लड़ा है. यह हिंदू समुदाय के बीच आरएसएस, वीएचपी और हिंदू जागरण वेदिक जैसे दक्षिणपंथी समूहों द्वारा किए गए कार्यों के जैसे ही मुसलमानों के बीच सामाजिक और इस्लामी धार्मिक कार्यों को करने में शामिल रहा है.

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक पीएफआई, दक्षिणपंथी समूहों की तरह, अपने सदस्यों के रिकॉर्ड नहीं रखता है.

2009 में, सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (SDPI) नाम का एक राजनीतिक संगठन PFI से निकला, जिसका उद्देश्य मुसलमानों, दलितों और अन्य हाशिए पर खड़े समुदायों के राजनीतिक मुद्दों को उठाना था. एसडीपीआई का कहना है कि उसका टारगेट "मुसलमानों, दलितों, पिछड़े वर्गों और आदिवासियों सहित सभी नागरिकों का विकास" है और "सभी नागरिकों के बीच उचित रूप से सत्ता साझा करना" है.

केरल में पीएफआई की सबसे अधिक मौजूदगी रही है और इस संगठन पर बार-बार हत्या, दंगा, डराने-धमकाने और आतंकवादी संगठनों के साथ संबंध रखने का आरोप लगाया गया है.

केरल सरकार का पीएफआई पर आरोप

साल 2012 में ओमन चांडी की अध्यक्षता वाली कांग्रेस की केरल सरकार ने हाईकोर्ट को बताया था कि पीएफआई प्रतिबंधित संगठन स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (SIMI) के जैसा ही एक ऑर्गनाइजेशन है. सरकारी हलफनामे में कहा गया है कि पीएफआई के कार्यकर्ता हत्या के 27 मामलों में शामिल थे.

इसके दो साल बाद केरल सरकार ने एक अन्य हलफनामे में हाईकोर्ट को बताया कि पीएफआई का एक गुप्त एजेंडा "इस्लाम के लाभ के लिए धर्मांतरण, मुद्दों के सांप्रदायिकरण को बढ़ावा देकर समाज का इस्लामीकरण करना है.

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2014 का हलफनामा केरल में पीएफआई के मुखपत्र Thejas द्वारा दायर एक याचिका के जवाब में था, जिसने मार्च 2013 से सरकारी विज्ञापनों के खंडन को चुनौती दी थी.

हलफनामे में दोहराया गया कि राज्य में सांप्रदायिक रूप से प्रेरित हत्याओं के 27 मामलों में, हत्या के प्रयास के 86 मामलों और सांप्रदायिक प्रकृति के 106 मामलों में पीएफआई और नेशनल डेवलप्मेंट फ्रंट (NDF) के कार्यकर्ता शामिल थे.

इसके बाद केरल बीजेपी ने राज्य में एक अभियान शुरू करने का ऐलान किया, जिसका मुख्य टारगेट पीएफआई था.

इसी साल 15 अप्रैल को पीएफआई के एलापुल्ली (पलक्कड़ जिला) क्षेत्र के अध्यक्ष और एसडीपीआई के एक सदस्य ए सुबैर (44) की एक मस्जिद के बाहर हत्या कर दी गई. संगठन ने आरोप लगाया कि यह हत्या आरएसएस और बीजेपी के कार्याकर्ताओं ने की है.

कर्नाटक में राजनीतिक रूप से PFI/SDPI कितना सफल रहे हैं?

पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (PFI) का असर मुख्य रूप से बड़ी मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्रों में है. एसडीपीआई ने तटीय दक्षिण कन्नड़ और उडुपी में अपनी असर प्रभाव जमाया है, जहां वह गांव, कस्बों और नगर परिषदों के लिए स्थानीय चुनाव जीतने में कामयाब रही है. 2013 तक एसडीपीआई ने केवल स्थानीय चुनाव लड़ा था और राज्य के आसपास के 21 नागरिक निर्वाचन क्षेत्रों में सीटें जीती थीं.

  • 2018 तक, उसने स्थानीय निकाय की 121 सीटें जीती थीं और 2021 में इसने उडुपी जिले में तीन स्थानीय परिषदों पर कब्जा कर लिया.

  • 2013 के बाद से एसडीपीआई ने कर्नाटक विधानसभा और संसद के चुनावों में उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है. इसका सबसे विश्वसनीय प्रदर्शन 2013 के राज्य चुनावों में आया, जब यह नरसिम्हाराजा सीट पर दूसरे स्थान पर रहा, जो मैसूर लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा है.

  • 2016 के विधानसभा चुनाव में एसडीपीआई ने कई सीटों पर चुनाव लड़ा था, लेकिन राज्य में उसे एक फीसदी से भी कम वोट मिले थे.

  • 2018 में एसडीपीआई नरसिम्हाराजा में कांग्रेस और बीजेपी के बाद तीसरे स्थान पर रही, जिसने 20 प्रतिशत से अधिक वोट हासिल किए.

  • एसडीपीआई ने दक्षिण कन्नड़ सीट के लिए 2014 और 2019 का लोकसभा चुनाव भी लड़ा था लेकिन उसे 1 फीसदी और 3 फीसदी वोट ही मिले थे.

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हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक 2013 के दौरान केरल सरकार ने पीएफआई की स्वतंत्रता दिवस परेड पर प्रतिबंध लगा दिया था, जो हर साल आयोजित की जाती है. हर साल 17 फरवरी को यह संगठन सभी जिला मुख्यालयों में एकता मार्च आयोजित करता है. पुलिस अधिकारियों का कहना है कि इसके कई जिलों में कैडर प्रशिक्षण केंद्र हैं और आमतौर पर कई मानवाधिकार संगठनों के साथ जुड़ते हैं.

अपनी स्थापना के बाद से पीएफआई कई संघर्षों और राजनीतिक हत्याओं में फंसता दिखा. यह संगठन कथित तौर पर केरल में कम से कम 30 राजनीतिक हत्याओं में शामिल था. 2015 में इसके 13 कार्यकर्ताओं को एक कॉलेज के प्रोफेसर टीजे जोसेफ की हथेली काटने के लिए आजीवन कारावास की सजा दी गई थी.

केरल में सोशल डेमोक्रेटिक फ्रंट के अलावा पीएफआई की एक महिला विंग, राष्ट्रीय महिला मोर्चा और छात्र विंग कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया भी है.

बीजेपी के टारगेट पर रहा है पीएफआई

भारत सरकार द्वारा पीएफआई पर प्रतिबंध नहीं लगाया गया है, लेकिन बीजेपी ने अक्सर अपने मुस्लिम समर्थक रुख की वजह से चरमपंथी के रूप में दिखाने की कोशिश की है. कर्नाटक में बीजेपी ने अक्सर पीएफआई पर प्रतिबंध लगाने के लिए कथित पीएफआई कैडर द्वारा बीजेपी से जुड़े दक्षिणपंथी समूहों के कार्यकर्ताओं की हत्या का आरोप लगाया है.

हालांकि, 2007 से कर्नाटक में पीएफआई के खिलाफ दर्ज 310 से अधिक मामलों में केवल पांच केसों में सजा हुई है.

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राजनीतिक हिंसा की कुछ प्रमुख घटनाएं, जिनमें पीएफआई पर आरोप लगाए गए...

  • 2016 में बेंगलुरु में आरएसएस कार्यकर्ता आर रुद्रेश की हत्या, जिसमें राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) ने पीएफआई की बेंगलुरु इकाई के अध्यक्ष असीम शरीफ को आरोपी बनाया था.

  • 2016 में मैसूर पुलिस ने बजरंग दल कार्यकर्ता के. राजू की हत्या के आरोप में पीएफआई से जुड़े एक युवक आबिद पाशा को गिरफ्तार किया था. पुलिस ने पाशा पर इलाके में 6 सांप्रदायिक हत्याओं में शामिल होने का आरोप लगाया है.

  • 2017 में दक्षिण कन्नड़ में पुलिस ने जिले के बंतवाल शहर में 28 वर्षीय आरएसएस कार्यकर्ता शरथ मदीवाला की चाकू मारने के मामले में दो पीएफआई कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया. यह हत्या कथित तौर पर एसडीपीआई कार्यकर्ता अशरफ कलयी की हत्या का बदला लेने के लिए की गई थी.

  • एसडीपीआई से जुड़े व्यक्ति 2019 में नरसिम्हाराजा से कांग्रेस के विधायक तनवीर सैत की हत्या के प्रयास में आरोपी हैं.

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