देश अपने 73वें गणतंत्र दिवस (Republic Day) की चकाचौंध में मग्न है. एक से बढ़कर एक झांकियां राजपथ पर देश की विविधता में समाहित एकता को प्रतिबिंबित करती हैं. तीनों सेनाएं अपना शक्ति प्रदर्शन करती हैं. इस एक दिन की खासियत ये है कि एक नागरिक के रूप में गर्व महसूस करने के अनेकों कारण हमारे सामने आते हैं और स्वतंत्रता सेनानियों को याद करके हर भारतवासी अपने राष्ट्रप्रेम की भावना से गुजरता है.
लेकिन सवाल ये है कि हम इन स्वतंत्रता सेनानियों को याद कैसे करते हैं- मूर्तियां बनाकर या उनके मूल्य अपनाकर? यहां बात सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose) की हो रही है जिनकी याद में सरकार ने इंडिया गेट पर मूर्ति बनाने का फैसला किया है.
23 जनवरी को बोस की जयंती के अवसर पर उनकी होलोग्राम प्रतिमा के जरिए एक संदेश देने की कोशिश हुई कि सरकार उनके योगदान को याद करना चाहती है. सरकार एक मूर्ति बनाकर सुभाष चंद्र बोस को तो शायद याद कर लेगी लेकिन समानता, सहिष्णुता, एकता और महिला सशक्तिकरण के वे मूल्य और विचार जो बोस ने स्थापित किए वो हर गुजरते दिन के साथ धूमिल होते जा रहे हैं.
बोस याद हैं लेकिन बोस होने का मर्म भूल गए
भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों और दलितों के साथ होने वाले अत्याचारों में वृद्धि हुई है. एक रिपोर्ट के मुताबिक 2021 में ऐसे कम से कम 300 मामले सामने आए हैं. मंचों से खुलेआम नफरत भरे भाषण दिए जा रहे हैं.
हरिद्वार और दिल्ली में धर्म संसद के जरिए नफरत फैलाना, उत्तराखंड, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, दिल्ली में चर्च पर निशाना, गुरुग्राम में नमाज का विरोध और त्रिपुरा में मस्जिद में आग. हाल की इन घटनाओं से स्पष्ट है कि देश के अंदर उन मूल्यों का तेजी से पतन हुआ है जिनके आदर्श के रूप में 'बोस' जाने जाते हैं. जब हम एक राष्ट्र के रूप में अपनी विविधता में एकता के कथन को झुठलाते जा रहे हैं तो राजपथ पर सुदर-सुंदर झाकियां मात्र दिखावा बनकर रह जाएंगी.
आइए उदाहरणों के जरिए समझते हैं कि 'बोस' ने कैसे धार्मिक एकता को खुद से आगे रखा..
सुभाष चंद्र बोस और धार्मिक सौहार्द
स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में 'महान पलायन (Great Escape)' के रूप में मशहूर कलकत्ता से काबुल तक सुभाष चंद्र बोस की साहसिक यात्रा में उनकी सबसे ज्यादा मदद मियां अकबर शाह ने की, जो एक मुस्लिम थे.
मेजर जनरल मोहम्मद जमान कियानी ब्रिटिश भारतीय सेना के एक अधिकारी थे, जो बाद में सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय सेना (INA) में शामिल हो गए और इस सेना के पहले डिवीजन की कमान भी संभाली.
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान मोइरंग भारतीय राष्ट्रीय सेना का मुख्यालय था और यहीं पर भारतीय राष्ट्रीय ध्वज को पहली बार आईएनए के कर्नल शौकत मलिक द्वारा भारतीय धरती पर फहराया गया था. यहां भी एक मुस्लिम को ही बोस ने ये सौभाग्य दिया.
नेताजी की अंतिम हवाई यात्रा में उनके एकमात्र साथी हबीबुर रहमान थे.
सुभाष चंद्र बोस ने 8 जुलाई 1945 को सिंगापुर में वॉर मेमोरियल की आधारशिला रखी. इसपर अंकित शब्द INA का मोटो था: इत्तेहाद (एकता), एत्माद (विश्वास) और कुर्बानी (बलिदान). जिस व्यक्ति ने सिंगापुर में आईएनए मेमोरियल का निर्माण किया, वह एक ईसाई अधिकारी सीरियल जॉन स्ट्रेसी था.
ये उदाहरण है कि अंग्रेज ईसाईयों का भारत पर कब्जा होने के बादजूद बोस ने धर्म के आधार पर ईसाईयों के साथ भेदभाव नहीं किया.
महिलाओं के लिए नेताजी ने 'रानी झांसी रेजिमेंट' का गठन किया
सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिन्द फौज की स्थापना के साथ ही एक महिला बटालियन भी गठित की थी, जिसमें उन्होंने रानी झांसी रेजिमेंट का गठन किया था और उसकी कैप्टन बनीं थी लक्ष्मी सहगल.
भारत की स्वाधीनता के लिए जब नेताजी विदेश से ताकत जुटा रहे थे तब उन्होंने आजाद हिंद फौज में महिलाओं को शामिल करना जरूरी समझा. ये स्पष्ट उदाहरण है कि बोस ने महिलाओं की ताकत को कम नहीं आंका और कठोर परिस्थितियों में भी उन्हें बराबरी का मौका दिया.
नेताजी का सबसे अच्छा स्मारक उनकी समानता और एकता की विरासत को सुशोभित और विस्तारित करना है. वह स्वतंत्रता संग्राम के नेता थे जिन्होंने अपनी आजाद हिंद फौज में सभी को समान अधिकार और सम्मान देकर हिंदुओं, मुस्लिमों, सिखों और ईसाइयों को एकजुट किया.
आज हमें बोस के साथ साथ उनकी सीख को भी याद रखना चाहिए. केवल सोने या ग्रेनाइट की मूर्तियों में उनकी पूजा करने की नहीं बल्कि वास्तव में उनके गहरे विचारों को आत्मसात करने की जरूरत है, जो आज भारत में उतने ही प्रासंगिक हैं जितने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान थे. ये देश का दुर्भाग्य है कि बोस के योगदान को आज याद कम किया जाता है और राजनीति में ज्यादा भुनाया जाता है- चाहे वो राजनीति बंगाल की हो या केंद्र की. बोस भारत के थे, लेकिन लगता है भारत ने ही बोस को बांट दिया है.
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