हमें क्यों नहीं झकझोरती #DalitLivesMatter
द टाइम्स ऑफ इंडिया में एसए अय्यर ने सवाल उठाया है कि अमेरिका में फ्लॉयड की पुलिस के हाथों हत्या की जो प्रतिक्रिया देखने को मिली है, क्या वैसी ही प्रतिक्रिया भारत में नहीं हो सकती? वे इसका जवाब देते हैं कि यहां ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि एक वजह यह है कि यहां अपराध कबूल कराने के लिए थर्ड डिग्री को स्वाभाविक मान लिया गया है. एनकाउंटर स्पेशलिस्ट यहां हीरो होते हैं, ‘अब तक छप्पन’ जैसी फिल्म बनती है. दूसरा कारण वे बताते हैं कि जाति, धर्म और लिंग की जड़ें समाज में इतनी गहरी हैं कि पुलिस की हिंसा को सामाजिक और राजनीतिक हिंसा का विस्तार मात्र समझा जाता है.
लेखक का मानना है कि राजनीति से इतर भी समाज में हिंसा की प्रचुरता है. जातीय व धार्मिक हिंसा, खाप पंचायत की ओर से भागे हुए प्रेमी जोड़े को मारना, प्रतिबंध, बहिष्कार, डायन या बच्चा चोरी की अफवाह के कारण हत्या की घटनाएं भी आम हैं. अमेरिका में #BlackLivesMatter यानी ‘अश्वेत की जान कीमती है’ जैसे नारे लगे हैं. भारत में कुछ उदारवादियों ने #MuslimLivesMatter जैसे नारे लगाए हैं. ऐसी कई घटनाएं हुई हैं जैसे दिल्ली दंगे, जिनमें मुसलमानों की लिंचिंग हुई है. इससे पहले बीफ खाने, गाय ले जाने की वजह से उन्हें मारा गया है.
अय्यर लिखते हैं कि वास्तव में भारतीयों में जो वर्तमान गुस्सा है उसका प्रकटीकरण #DalitLivesMatter के तौर पर हो सकता है. सवर्णों के खिलाफ दलितों के केस दर्ज नहीं किए जाते. 2012 में दलितों के साथ हिंसा के 33,655 मामले बढ़कर 2016 में 40,801 हो गये. घोड़े पर चढने की वजह से गुजरात में दलित की हत्या कर दी गयी, तो उत्तराखंड में सवर्ण की शादी में डाइनिंग टेबल पर बैठने के लिए दलित को मार डाला गया. राजनीतिक कारणों से कुछ घटनाएं सामने आ जाती हैं, लेकिन ज्यादातर घटनाएं दबी रह जाती हैं. दलितों के खिलाफ पुलिस की हिंसा भी है लेकिन पुलिस के खिलाफ गुस्से का माहौल नहीं बन पाता. संविधान जरूर जातीय समानता की गारंटी देता है लेकिन हिन्दू समाज की सोच में मनुस्मृति जिन्दा है. राजस्थान हाईकोर्ट के सामने मनु की मूर्ति स्थापित की जाती है. ऐसे तमाम कारण हैं जिस वजह से भारत में ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ जैसे नारे जुबान पर नहीं चढ़ पाते.
बुरा वक्त बाकी है
बरखा दत्त ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि बुरा वक्त अभी आना बाकी है. मुंबई और दिल्ली के साथ-साथ अहमदाबाद और चेन्नई के हालात का वह जिक्र करती हैं. देश भर में 16 हजार किमी की यात्रा करते हुए कोरोना का जायजा ले चुकीं बरखा बताती हैं कि लॉकडाउन के दौर में मेडिकल इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत बनाने का वक्त गंवा दिया गया. कोरोना से लड़ते हुए थक जाने और हार जाने वाले कई उदाहरण रखते हुए वह लिखती हैं कि गरीबों के लिए यह बहुत मुश्किल दौर है.
बरखा दत्त का मानना है कि अस्पतालों में बेड की कमी नहीं है. कमी स्वास्थ्यकर्मियों की हो गयी है. वे खुद कोरोना से पीडित हो रहे हैं और अस्पतालों से दूर रहते हैं. ऐसे में बेड रहते हुए भी मरीजों के लिए वे उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं.
वह लिखती हैं कि दिल्ली को स्टेडियम और कॉलेजों को अस्पतालों में तब्दील करना चाहिए था. ऐसा किए बगैर बड़ी संख्या में बढ़ते संक्रमण से लड़ना मुश्किल है. टेस्टिंग को लेकर संकोच का भी लेखिका जिक्र करती हैं. मगर, यह समझना होगा कि कोरोना की संख्या चिंता का विषय नहीं होना चाहिए, मौत चिंता का विषय हो. जिन्दगी बचाने पर ध्यान दिया जाए. बरखा लिखती हैं कि मैंने पहली बार मजदूरों को सड़क की ओर उमड़ते देखा था, अब वे अंतिम संस्कार के लिए श्मशान घाट और अस्पतालों की ओर उमड़ रहे हैं.
पीएम देश से माफी मांगें
तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि राहुल गांधी का नाम जितनी बार कांग्रेसी नहीं लेते उससे ज्यादा बीजेपी लेती है. बीते दिनों जब राहुल ने पूछा कि चीन भारत की सीमा में है या नहीं, तो बीजेपी नेता लाल-पीला होने लगे. उनकी बातों से ऐसा लगा मानो ‘मोदी है तो मुमकिन है’ वाली बात अब नहीं रही. मोदी सरकार के दूसरे दौर में शुरुआती कुछ महीने में ही सरकार की राजनीतिक सूझबूझ और प्रशासनिक काबिलियत पर सवाल उठने लगे.
तवलीन लिखती हैं कि अनुच्छेद 370 हटाना, प्रदेश के टुकड़े करना, विकास की बहार लाने का वादा और एक साल बाद भी स्थिति यह है कि हर दूसरे दिन मुठभेड़ें हो रही हैं. देश में नागरिकता कानून में संशोधन हुआ. मगर, कुछ इस तरह कि मुसलमानों को अपनी नागरिकता पर खतरा दिखने लगा. महामारी में लॉकडाउन की तैयारी इतनी कमजोर रही कि चारों ओर अव्यवस्था फैली.
अब विपक्ष ही नहीं पूरा देश यह सवाल पूछ रहा है कि इतनी अव्यवस्था क्यों? राहुल गांधी अंग्रेजी में इंटरव्यू कर रहे हैं तो यह कांग्रेस की कमजोरी है. गृहमंत्री ने लंबे समय बाद प्रवासी मजदूरों पर जो कुछ कहा वे बातें सही नहीं हैं. लॉकडाउन के बाद की स्थिति पर प्रधानमंत्री को पूरे देश से माफी मांगनी चाहिए.
सीमा की टेंशन, सीमा पर टेंशन
पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि चीनी सैनिक लद्दाख में गलवां, हॉट स्प्रिंग्स, पैंगो त्सो और गोगरा व सिक्किम में नाकुला में घुसे हैं मगर सरकार ने यह स्वीकार नहीं किया है कि चीनी सैनिक भारतीय सीमा में मौजूद हैं. 6 जून की वार्ता में मतभेद को विवाद नहीं बनने देने पर दोनों पक्ष सहमत थे, फिर भी रिटायर्ड सैनिक जनरलों की मानें तो सीमा पर तनातनी बरकरार है.
चिदंबरम लिखते हैं कि वुहान (2018) और महाबलीपुरम (2019) के बावजूद भारत-चीन के रिश्ते में उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल नहीं हुई है. चीन का नेपाल के साथ राजनीतिक और सामरिक संधियां करना, श्रीलंका में आर्थिक लाभ उठाना जारी है. जवाब में भारत चुप रहने को विवश है.
भारत चाहता है कि 5 मई से पूर्व की स्थिति बहाल हो. अब यथास्थिति बनी रहे तो चीन खुश होगा. दोनों देशों के नेता घरेलू आलोचनाओं को नजरअंदाज करते रहे हैं. स्थिति आगे चाहे जो बने प्रधानमंत्री का कर्त्तव्य है कि पारदर्शिता केसाथ राष्ट्र को पूरी और सही जानकारी देते रहें. चीन की ओर से शुरू किया गया शह-मात का खेल रहस्यमय पहेली के रूप में सामने आ सकता है.
कोरोना के दौर में ‘छुआछूत’
सागरिका घोष ने द टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा है कि कोविड के दौर में मिडिल क्लास ने छुआछूत को खूब बढ़ाया. कोरोना से लड़ते हुए हम दुश्मन तलाशते रहे. कभी तबलीगी, तो कभी धारावी के गरीब, कभी प्रवासी मजदूर, तो कभी कॉलोनियों से बाहर के लोग. और, अब तो डोमेस्टिक हेल्प को भी संदेह की नजरों से देखा जाने लगा है. मिडिल क्लास ने खुद को छोड़कर सब पर दोष लगाया.
सागरिका लिखती हैं कि जब राजनीतिक नेतृत्व ‘अर्बन नक्सल’ और ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ कहकर भय फैलाता है और लोगों को बांटता है तो यही बात समाज में भी निचले तबके तक पहुंचती है. समाज किसी न किसी को बलि का बकरा बनाने का आदी हो जाता है.
गांधी और अंबेडकर के देश में छुआछूत पैदा हो, तो यह 21वीं सदी का भारत नहीं है. इन सबके बीच सिख समुदाय के लंगर, सैकड़ों एनजीओ के कार्यों ने उम्मीद भी जगायी और लोगों को जोड़ा है. मिडिल क्लास को डोमेस्टिक हेल्प की मदद करें, उन्हें सैलरी दें और उनके साथ भेदभाव खत्म करें. लेखिका पूछती हैं कि क्या यह सही है कि डोमेस्टिक हेल्प पर आम दिनों में विश्वास करें और जरूरत के वक्त पर दरवाजे बंद कर लें?
हेल्थ पॉलिसी सबसे बड़ी जरूरत
शोभा डे ने द एशियन एज में लिखा है कि हाल में उद्योगपति राजीव बजाज ने मोदी सरकार की नीतियों की आलोचना की थी. उन्हें कहना पड़ा था कि वे सरकार के खिलाफ नहीं, सरकार की नीतियों के खिलाफ हैं. मगर, दोनों में फर्क क्या है? अगर कोई सरकार की नीतियों के खिलाफ है तो सरकार के भी खिलाफ होगा. बहरहाल राजीव बजाज ने जिस साहस के साथ बातें रखीं, वह दबी जुबान में तमाम उद्योगपति बोल रहे थे.
लेखिका का मानना है कि उदयोगपतियों का झुकाव विचार, संबंध या अन्य आधारों पर होता है. कभी ज्यादातर उद्योगपति कांग्रेस के करीब हुआ करते थे जो लाइसेंस राज में उनकी मजबूरी भी थी. कांग्रेस राज में कई करोड़पति पैदा हुए. मगर, बीजेपी की अपनी अमीरों की सूची है.
परंपरा वही है, बस खिलाड़ी बदल गये हैं. प्रधानमंत्री के नारे ‘प्लग एंड प्ले’ का जिक्र करते हुए लेखिका कहती हैं कि अर्थव्यवस्था को लेकर यह अबूझ पहेली की तरह है. पहले भी पीपुल, प्लैनेट, प्रॉफिट जैसे शब्दों से उन्होंने कुछ कहने की कोशिश की है. मगर, आज की सबसे बड़ी जरूरत है कि देश को हेल्थ पॉलिसी मिले. यही प्राथमिकता होनी चाहिए. कोरोना से लड़े बगैर आर्थिक सुधार नहीं हो सकता.
फिजा में तैरता गुस्सा
अनुजा चंद्रमौलि द न्यू इंडियन एक्सप्रेस में लिखती हैं कि फिजां में कुछ गड़बड़ है. ये कोरोना वायरस नहीं मानवता के विरुद्ध कुछ है. हर जगह नफरत और पाखंड है, गुस्सा है. कोई दिन ऐसा नहीं होता जब सोशल मीडिया में अलग-अलग मुदद् पर गुस्सा नहीं दिखता. लोग अपने पुराने मित्रों को अनफ्रेंड कर रहे होते हैं, एक-दूसरे से गाली-गलौच कर रहे होते हैं और ऐसी चीजें अब आम हो गयी हैं.
यह लगभग नामुमकिन हो गया है कि किसी भी चीज को पूर्वाग्रह के बगैर देखा जाए. एक उसे व्यक्त करता है और फिर आक्रामकता तुरंत घमासान में बदल जाती है.
जॉर्ज फ्लॉयड के नाम पर दुनिया भर में लड़ाई छिड़ी हुई है. गर्भवती हथिनी की मौत और उसके बाद मीडिया पर चली बहस को कौन भूल सकता है. जेके रॉलिंग इस वजह से चर्चा में रहीं कि उन्होंने लोगों में मेन्सुरेशन की बात कर दी बजाए इसके कि महिलाओं तक इसे सीमित रखा जाता. हैशटैग को लेकर एक अलग किस्म का एक्टिविज्म चल रहा है. वास्तव में हम जरूरी मुद्दों से दूर होते चले जा रहे हैं. अपनी मर्जी से गुस्से का इजहार करते हुए हम ऐसा कर रहे हैं.
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