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संडे व्यू: हॉन्गकॉन्ग में जीती जनता, क्रिकेट से धर्म तक 

सुबह मजे से पढ़ें संडे व्यू जिसमें आपको मिलेंगे अहम अखबारों के आर्टिकल्स.

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हॉन्गकॉन्ग में प्रदर्शनकारियों की पहली जीत

यो नी चैन ने न्यूयॉर्क टाइम्स में लिखा है कि हॉन्गकॉन्ग की मुख्य कार्यकारी कैरी लैम की घोषणा उनके विरोधियों की जीत है. कैरी लैम ने शनिवार की घोषणा में कहा है कि वह बिल को वापस नहीं ले रही हैं, बल्कि उसे अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर रही हैं. लैम के प्रस्तावित बिल के मसौदे में हांगकांग के लोगों और यहां तक कि अतिथियों को भी चीन प्रत्यर्पित किए जाने का प्रावधान है.

प्रदर्शनकारी प्रस्तावित बिल वापस लिए जाने पर अड़े हुए हैं. रविवार को भारी तादाद में प्रदर्शन की तैयारी है. हांगकांग में इस तरह का प्रदर्शन पहले कभी नहीं देखा गया.

इससे पहले 2014 में 79 दिनों तक चले अम्बरेला मूवमेंट में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की मांग पर जनता सड़क पर उतरी थी.

वह आंदोलन कोई लक्ष्य हासिल करने में नाकाम रहा था. कई लोगों को लगता है कि चीन में हॉन्गकॉन्ग का विशेष दर्जा खतरे में है. इसकी वजह पिछले दिनों घटती रही घटनाएं हैं. उदाहरण के लिए 2015 में हांगकांग के पांच पुस्तक विक्रेताओं का अपहरण कर उन्हें चीन ले जाया गया, 2017 में अरबपति जिया जियान हुआ गायब हो गये, विधायिका पर बीजिंग समर्थकों का कब्जा हो गया आदि.

ताजा आंदोलन इस तथ्य के बावजूद जोर पकड़ता रहा कि सार्वजनिक स्थानों पर लोगों को इकट्ठा होने नहीं दिया गया. निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर बल प्रयोग किए गये. फिर भी स्थानीय दुकानदारों और लोगों के भरपूर समर्थन से आंदोलन जारी रहा.

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नयी वित्तमंत्री की चुनौती बड़ी

पी चिदम्बरम ने जनसत्ता में प्रकाशित अपने आलेख में वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण को ऊंची राजनीतिक छलांग के लिए बधाई देते हुए उन्हें मिली नयी जिम्मेदारी को चुनौतीपूर्ण बताया है और शुभकामनाएं दी हैं. चिदम्बरम ने विकास की वृद्धि दर के लगातार चार तिमाहियों में 8, 7, 6.6 और 5.8 प्रतिशत रहने पर चिंता जतायी है और कहा है कि 2019-20 के लिए रिजर्व बैंक की अनुमानित वृद्धि दर महज 7.2 फीसदी है.

पी चिदम्बरम ने छह साल में पहली बार निवेश के एक फीसदी गिर जाने, विदेशी संस्थागत निवेशकों द्वारा निवेश वापस लेने, विनिर्माण में छाई मंदी, कारोबारी निर्यात का गिरकर 2013-14 के स्तर पर पहुंच जाने और बैंकिंग की गिरती सेहत की खासतौर से चर्चा की है.

वे लिखते हैं कि बैंकों में जमा 9.4 फीसदी की दर से और उधार में बढ़ोतरी 13.1 फीसदी की दर से हो रही है. इतना ही नहीं 2018-19 में कर राजस्व में भारी कमी चिन्ता का सबब बनी हुई है. विगत पांच सालों में वित्तीय घाटा महज 1.1 फीसदी कम हुआ है. बेरोजगारी में बढोतरी की दर 6.1 फीसदी है जो चिन्ता का सबब है. ऐसे में अब सरकार रोजगार के मुद्दे पर मुद्रा लोन, उबर चालक और ईपीएफओ के पंजीकृत आंकड़ों से अपना बचाव नहीं कर सकती.

सच कबूल नहीं रहा है विपक्ष

तवलीन सिंह ने जनसत्ता में लिखा है कि वायनाड जाकर राहुल का कहना कि मोदी जहर फैला रहे हैं, ममता का ‘जय श्रीराम’ का नारा सुनकर उछल पड़ना, सीताराम येचुरी का मोदी की जीत के पीछे पूंजीवादी शक्तियों को देखना और मायावती का ये कहना कि लोकतांत्रिक संस्थाओँ का पूरी तरह से दुरुपयोग हुआ- यह बताता है कि विपक्ष यथार्थ का सामना करने को तैयार नहीं है.

बीमार अरुण जेटली से अपनी मुलाकात का जिक्र करते हुए लेखिका लिखती हैं कि उन्होंने सही याद दिलाया है कि देश की 40 फीसदी आबादी अब मध्यमवर्ग हो चुकी है और उन्होंने ही मोदी को जिताया है. अब रैलियों में नंगे पैर, फटे कपड़ों में लोग नहीं दिखते. इस बात पर अगर विपक्ष ने गौर कर लिया होता तो उनकी रणनीति 2014 के बाद ही बदल चुकी होती.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि राहुल का अमेठी में हार जाना, शरद पवार का अपनी बेटी को छोड़कर किसी अन्य को नहीं जिता पाना, लालू की बेटी मीसा की हार बताती है कि अब वंश, परिवार का जमाना नहीं रहा. उनहोंने लिखा है कि स्टालिन और जगन मोहन रेड्डी की जीत की वजह ये है कि वहां उनका विकल्प नहीं था. तवलीन सिंह ने लिखा है कि लोगों के बीच कहीं भी राम मंदिर, हिन्दुत्व जैसे मुद्दे नहीं थे. ये मुद्दे सिर्फ राजनीतिक पंडितों की चर्चा में रहे. लोगों को लगा कि जिस परिवर्तन का वादा मोदी ने 2014 में किया था, वह हुआ है. विपक्ष जिस पुराने भारत में विपक्ष जी रहा है अब उसका अंतिम संस्कार हो चुका है.

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सुब्रहमण्यम के शोध में अर्थशास्त्री नहीं पत्रकारिता हावी

एसए अय्यर ने टाइम्स ऑफ इंडिया में अपने नियमित कॉलम स्वामीनोमिक्स में अरविन्द सुब्रह्मण्यम के उस आकलन को सत्य से परे बताया है जिसमें उन्होंने भारत के आर्थिक विकास दर के 7 फीसदी के बजाए 4.5 फीसदी पर बने रहने की बात कही है. उन्होंने लिखा है कि 2011 में जीडीपी का अनुमान लगाने के तरीके में आए बदलाव पर कई लोगों ने सवाल उठाए हैं. मार्च में 108 शीर्ष अर्थशास्त्रियों ने आंकड़ों की गुणवत्ता पर चर्चा की थी. 2016-17 में अनुमानित विकास दर बढ़ाकर 8.2 फीसदी कर दी गयी थी, जिस पर संदेह व्यक्त किया गया था.

अय्यर लिखते हैं कि आधिकारिक आंकड़ों के हिसाब से सन 2000 के बाद से 2008 तक यानी आर्थिक मंदी आने तक जो विकास दर अनुभव किया गया था वही अनुभव मोदी युग में भी महसूस किया गया है. हालांकि तब निर्यात, बैंकों में जमा, रीयल स्टेट और ऑटो की बिक्री में तेजी दिखी थी. वहीं यह तेजी बीते पांच साल में गायब रही और इसके बदले किसानों की नाराजगी, बेरोजगारी और निर्यात एवं निवेश में स्थिरता नजर आयी.

अय्यर लिखते हैं कि आंकड़ों पर संदेह करना नयी बात नहीं है. शंकर आचार्य ने 2016 में नोटबंदी की पृष्ठभमि में 7 प्रतिशत विकास दर पर आपत्ति उठायी थी. खुद सुब्रहमण्यम भी ऐसा कर चुके हैं. वे लिखते हैं कि सुब्रहमण्यम ने 2011-16 के बीच विकास दर पर जब शोध करते हैं तो वे यूपीए 2 और मोदी-1 दोनों के दौर को इसमें शामिल रखते हैं. जाहिर है वे सिर्फ मोदी पर दाग नहीं लगाना चाहते. फिर भी अय्यर मानते हैं कि सुब्रहमण्यम के शोध में एक अर्थशास्त्री नहीं है, उनकी पत्रकारिता हावी है.

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क्रिकेट से निकलती है धर्म की राह?

खालिद अहमद ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि क्या क्रिकेट धर्म को बढ़ावा देता है. दाढ़ी बढ़ाना, मूछें हटाना जैसी बातें क्रिकेटरों में देखी जाती हैं. गौतम गम्भीर ने हिन्दुत्व का चोला पहन लिया तो पाकिस्तान में एक क्रिकेटर प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंच गया. लेखक ने इमरान खान के उदाहरण से यह तथ्य सामने रखा है कि किस तरह वे धार्मिक गुरुओं की शरण में गये और उनका अनुसरण करते हुए क्रिकेट से राजनीति का सफर पूरा किया. यहां तक कि 1992 में विश्वकप जीतने तक में अल्लाह की ताकत को उन्होंने अपने तरीके से स्थापित किया.

लेखक इंजमाम-उल-हक का भी उदाहरण रखते हैं जिन्होंने पाकिस्तान की टीम के कप्तान रहते पूरी टीम को इस्लाम को जीवन में स्वीकार करने को प्रेरित किया. वे फजल महमूद का भी उदाहरण रखते हैं जिन्होंने पुलिस सेवा से रिटायर होने के बाद ‘अर्ज टू फेथ’ नामक पुस्तक लिखी. उस पुस्तक में उन्होंने खिलाड़ी और उसके धार्मिक जीवन पर रोशनी डाली.

लेखक लेग ब्रेक बॉलर एस एफ रहमान का भी उदाहरण रखते हैं जिन्होंने वहाबीवाद को अपना लिया. यूसुफ योहाना ने धर्म बदलकर ख्याति पायी. वहीं दानिश कनेरिया ने हिन्दू होकर भी अपनी बातचीत में ‘इंशाअल्लाह’ जैसे शब्दों को बार-बार बोलना जारी रखा. शाहिद अफ्रीदी और सईद अनवर भी इंजमाम की राह पर चलते दिखे.

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मिटा नहीं सकते फिर भी मिटाते हैं इतिहास

रुचिर जोशी ने द हिन्दू में एक कार ड्राइवर के साथ अपनी बातचीत के हवाले से लिखा है कि किस तरीके से इतिहास को अलग तरीके से देखने की कोशिश की जा रही है. औरंगजेब रोड जाने की बात कहने पर ड्राइवर याद दिलाता है कि यह एपीजे अब्दुल कलाम रोड हो चुका है. पर, यह ध्यान दिलाने पर कि क्या कोई कनाट प्लेस सर्किल को इंदिरा चौक या राजीव चौक कहता है, वह चुप हो जाता है. ड्राइवर कहता है, “आप इतिहास मिटा नहीं सकते, लेकिन लोग मिटाते हैं.“

लेखक ने ड्राइवर के पास चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह को लेकर जो ज्ञान था, उसे भी सामने रखा. वह बताता मिला कि चंद्रशेखर आजाद ने बम फेंका था ब्रिटिश सरकार को यह बताने के लिए कि उसे भी बम चलाना आता है. उसने यह भी बताया कि भगत सिंह की फांसी वाले दिन को 14 फरवरी यानी ‘वैलेन्टाइन डे’ में बदल दिया गया.

ऐसे गलत ‘ज्ञान’ के साथ ड्राइवर यह भी सवाल दागता है कि क्यों नहीं भगत सिंह के शहादत दिवस को राष्ट्रीय अवकाश घोषित किया जाता? क्यों सुभाष चंद्र बोस को भुला दिया गया? वह कहता है कि गांधीजी के कारण नहीं, नेताजी के कारण आजादी मिली. वह गांधी को भारत विभाजन का जिम्मेदार ठहराता है. यह भी कहता है कि गोडसे के मन में गांधीजी के लिए सम्मान था क्योंकि हत्या से पहले उन्होंने उन्हें प्रणाम किया था. ड्राइवर से ऐसे बहुतेरे चौंकाने वाले ज्ञान पाकर आखिरकार लेखक के साथ उसकी बातचीत इस सकारात्मक बिन्दु पर खत्म होती है कि अब अभिभावक अपने बच्चे को दूसरे धर्म के बच्चे के घर जाने पर फटकारते हैं और यहीं से गलत की बुनियाद पड़ जाती है.

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