एक बेचारा गरीब ब्राह्मण था... यानी गरीबी में गर्व करना पता नहीं कैसे हमारी मनोवैज्ञानिक अवस्था बन गई. देश को उससे बाहर लाना चाहिए कि नहीं? देश को उससे बाहर निकलना चाहिए कि नहीं? सपने बड़े देखने चाहिए थे कि नहीं? सपनों को पूरा करने के लिए संकल्प करना चाहिए कि नहीं चाहिए? आने वाले 10 साल के विजन के साथ हम मैदान में उतरे हैं. उसका एक पड़ाव है ये पांच साल.-नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री
अपने दूसरे कार्यकाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कुछ ऐसे ही दार्शनिक अंदाज में दिखे. उनका ये दार्शनिक अंदाज उनके ही संसदीय क्षेत्र वाराणसी में नजर आया, जहां उन्होंने अपने दस साल के विजन को सामने रखते हुए सपनों की बात की. अपने सपनों को सच का लिबास पहनाने के लिए, हौसलों की बात की. उन हौसलों को बुलंदियों तक पहुंचाने के लिए लोगों के अंदर आगे बढ़कर आने की बात कही.
साफ है कि दूसरे कार्यकाल में प्रधानमंत्री लोगों को सपने दिखाते ज्यादा नजर आए, जबकि पहले कार्यकाल में प्रधानमंत्री मोदी ने बनारस में बात से ज्यादा काम पर जोर दिया था. उन्होंने नारा भी दिया था, “वोनामदार हैं तो हम कामदार हैं.”
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अपने पहले कार्यकाल के पांच सालों में प्रधानमंत्री जब भी बनारस आए, तो बनारस को कुछ न कुछ सौगात देकर गए. यहां तक कि जब वो बनारस आना चाहते थे और कोई योजना नहीं रहती थी, तब भी छोटी या बड़ी, कोई भी योजना बनाकर शिलान्यास और उद्घाटन का 'बहाना' बना ही लिया जाता था.
ये अलग बात है कि इनमें कुछ ऐसे प्रोजेक्ट की भी शुरुआत हुई, जो बाद में जमीन पर उतर ही नहीं पाए. मसलन, गंगा में ई-बोट चलाने की योजना. गंगा को प्रदूषण से मुक्ति के लिए मोदी सरकार ने बिजली से चलने वाली नावों को गंगा में उतारने के फैसला किया.लेकिन सरकार का ये फैसला गलत साबित हुआ.
बगैर किसी होमवर्क और तैयारियों के सरकार ने जल्दबाजी में इस योजना की शुरुआत तो कर दी, लेकिन अभी तक ये नावें गंगा की लहरों पर उतर नहीं पाए.
इसके फेल होने के पीछे कई तर्क दिए गए. इसी तरह घाटों की मरम्मत, गंगा सफाई, गंगा ऊर्जा प्लान सहित कई प्रोजेक्ट ऐसे रहे, जो सरकार के लिए पांच साल तक गले की फांस बने रहे. नौकरशाही ने मोदी सरकार की इन योजनाओं में खूब पलीता लगाया. उनकी जितनी तारीफ हुई, उतनी ही टांग-खिंचाई भी.
कुछ योजनाएं मील का पत्थर साबित हुईं
पिछले पांच सालों में ये साबित हो गया है कि बनारस और नरेंद्र मोदी के बीच का रिश्ता हर दायरे से परे है. बनारसी मोदी पर जान छिड़कते हैं, तो मोदी भी उनका मान रखने में पीछे नहीं हटते. 5 सालों में मोदी का 18 बार बनारस का दौरा और 43 हजार करोड़ की योजनाएं इस बात की तस्दीक भी करती हैं.
मोदी के शासनकाल में कई ऐसी योजनाएं शुरू हुईं, जो बनारस के लिए मील का पत्थर साबित हो रही हैं. इन योजनाओं की बदौलत दुनिया के नक्शे पर बनारस की नई तस्वीर उभरी. मोदी के समर्थक तो उन्हें नई काशी का शिल्पकार भी कहते हैं. बनारस में मोदी की कुछ योजनाओं को बीजेपी ने विकास का शोकेस बना दिया.
- 17 किमी लंबी रिंग रोड परियोजना
- बाबतपुर से चौकाघाट तक 4 लेन रोड
- आईपीडीएस योजना के तहत अंडरग्राउंड केबलिंग
- मॉडल वॉटरबेस टर्मिनल सेंटर
- पंडित दीनदयाल हस्त कला संकुल
- काशी विश्वनाथ कॉरिडोर
- पेरिशेबल कार्गो सेंटर
मोदी ने दिखाए सपने
पीएम मोदी की सौगातों ने बनारसियों को इसका आदी बना दिया है. लिहाजा दूसरी बार प्रचंड बहुतम से सत्ता पर काबिज मोदी शपथ के बाद पहली बार बनारस पहुंचे, तो बनारसियों की उम्मीदों का कुलांचें भरना स्वाभाविक था. लेकिन पीएम मोदी तो इस बार कुछ बदले अंदाज में आए, क्योंकि इस बार उन्होंने न तो कोई शिलान्यास किया और न लोकार्पण, और न ही किसी योजना की घोषणा की.
मोदी ने इस बार बनारसियों को बड़े सपनों के जरिये बड़े लक्ष्य को हासिल करने का हौसला दिया. साफ शब्दों में कहें, तो बनारस को इस बार सिर्फ अपने सांसद के भाषण से ही काम चलाना पड़ा.
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सदस्यता अभियान से रिर्टन गिफ्ट की उम्मीद
मोदी जी ने पिछले कार्यकाल के हर दौरे में यहां योजनाओं की शुरूआत की थी. वैसे तो बम्पर वोट की जीत से बनारसियों ने उन्हें रिर्टन गिफ्ट दे दिया है. चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी जीत के लिए ये नारा दिया था कि अबकी बार सात लाख के पार. मतलब 2019 में पिछली बार से डबल वोट से जीतने का टारगेट रखा गया था. उन्हें सात लाख से जीत तो नहीं मिली, लेकिन उन्हें सात लाख के करीब यानी 6.74 लाख वोट मिले.
मोदी ने एसपी प्रत्याशी शालिनी यादव को 4.8 लाख वोट से हराया. शायद इसकी कसक उनके दिल में रह गई है, तभी जो काम पार्टी अध्यक्ष करते थे, उसे खुद पीएम करने के लिए बनारस पहुंचे.
बनारस में सदस्यता अभियान को लेकर पार्टी बेहद चौकन्नी हो गई है. खासतौर से उन बूथों पर जी-तोड़ मेहनत की जा रही है, जहां पीएम को कम वोट मिले.
दूसरी तरफ इस बार बनारस को कुछ न देने के पीछे मोदी की अलग सोच भी हो सकती है. संभव है कि मोदी चाहते हों कि पिछले कार्यकाल में जो योजनाएं उन्होंने शुरू कीं, वो जब तक पूरी न हो जाएं. नई योजनाओं को जमीन पर लाने का कोई औचित्य नहीं है.
शहर में चल रही कई ऐसी योजनाएं हैं, जो लंबे समय से सरकार के गले की फांस बनी हुई हैं. उन्हें पूरा करना सरकार के लिए भी अब चुनौती बन चुका है.
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