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चुनाव 2019: BJP के लिए अबकी बार MP में पुरानी जीत दोहराना मुश्किल

इस चुनाव में सबसे दर्दनाक है राष्ट्रीय स्तर की तीन महिला सांसदों का मैदान से बाहर हो जाना

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5 साल पहले 2014 की गर्मियों के मुकाबले इस साल की गर्मी MP में BJP के लिए कुछ ज्यादा ही तल्ख नजर आती है. दरअसल, लोकसभा चुनाव के इस समर में कांग्रेस के पास खोने को कुछ भी नहीं है और पाने को सारा जहां है, लेकिन बीजेपी के लिए अपनी 26 सीटें बचाकर पुरानी जीत दोहरा लेना किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है. वजह ये है कि राज्य की पंद्रह साल पुरानी सरकार वह हाल ही में महीन अंतर से गंवा चुकी है.

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सन 2014 में प्रचंड मोदी लहर के चलते बीजेपी ने कुल 29 में से 27 सीटें जीती थीं. बाद में उपचुनाव में उसे रतलाम -झाबुआ सीट गंवानी पड़ी थी. इस तरह वह 26 सीटों पर सिमट गई.

दिसंबर 2018 में आए विधानसभा चुनाव के नतीजों का अगर लोकसभा क्षेत्रवार विश्लेषण करें, तो पता लगता है कि सरकार गंवाने के बावजूद बीजेपी को 17 लोकसभा सीटों में बढ़िया बढ़त मिली थी. ये लोकसभा सीटें थीं- गुना, सागर, टीकमगढ़, दमोह, खजुराहो, सतना, रीवा, सीधी, शहडोल, जबलपुर, बालाघाट, होशंगाबाद, विदिशा, भोपाल, उज्जैन, मंदसौर और इंदौर.

इन चुनावों में भी बीजेपी इन सभी सीटों पर गहरी उम्मीद लगाए है और कांग्रेस से सीधी लड़ाई लड़ रही है. मध्य प्रदेश में नरेंद्र मोदी एक बार फिर ‘बिग फेस’ हैं. उनके कद के सामने BJP प्रत्याशी गौण नजर आ रहे हैं.

BJP ने अपने 26 में से 14 मौजूदा सांसदों के टिकट इस बार भले काट दिए हों, लेकिन उम्मीदवारों का ऐलान करने में उसने इतनी देर लगा दी कि टिकट के दावेदार बगावत पर उतर आये. सबसे ज्यादा गलाकाट प्रतिस्पर्धा भोपाल, इंदौर, विदिशा, खजुराहो जैसी बीजेपी की सेफ सीटों को लेकर थी.

नरेंद्र मोदी पिछले दिनों इंदौर की चुनावी सभा सुमित्रा महाजन की तारीफ में कसीदे पढ़ते हुए बता रहे थे कि एकमात्र सुमित्रा जी ही उन्हें डांटने का हक रखती हैं, लेकिन मोदी यह बताना भूल ही गये कि इंदौर से पिछले आठ चुनाव जीत चुकी सुमित्रा ताई का टिकट आखिर क्यों और किस मजबूरी में काटा गया. कहते हैं 75 पार उम्र के फॉर्मूले के तहत पार्टी ने उन्हें टिकट नहीं दिया.

सुमित्रा अंतिम समय तक अपने बेटे को टिकट दिलाने की जुगत जमाती रहीं, लेकिन मोदी- शाह ने उनकी कोई दलील नहीं सुनी. लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन का टिकट काटने के बाद ताई अर्थात सुमित्रा महाजन और भाई यानी कैलाश विजयवर्गीय की राजनीतिक खींचतान में शंकर लालवानी जैसे अल्पज्ञात चेहरे पर BJP को दांव खेलना पड़ा. लालवानी मैदान में तो उतर पड़े, लेकिन उन्हें जबरदस्त अंतर्विरोध का सामना करना पडा.

खजुराहो में भी यही कहानी दोहराई गई. भोपाल से चुनाव लड़ने पर अड़े आरएसएस की पसंद बीडी शर्मा को भारी विरोध के चलते खजुराहो में एडजस्ट करना पड़ा. यहां भी उनका प्रबल विरोध जारी था .पार्टी को यहां गुटों को साधने में पसीना बहाना पड़ रहा था .

भोपाल से पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के मुकाबले साध्वी प्रज्ञा ठाकुर का नाम भी स्थानीय नेताओं के विरोध के चलते अंतिम क्षणों में घोषित किया गया. पिछले तीन दशक से BJP के कब्जे वाली इस सीट पर प्रज्ञा ठाकुर की आमद ने चुनावी लड़ाई को दिलचस्प और बेहद कठिन बना दिया. साध्वी प्रज्ञा ठाकुर भिंड जिले के लहार कस्बे की हैं.

प्रज्ञा संघ की छात्र शाखा, विद्यार्थी परिषद और दुर्गावाहिनी के लिए काम कर चुकी हैं. उन पर कई विभिन्न न्यायालयों में हत्या आदि के मामले में शामिल रहने के केस विचाराधीन हैं. वे अपने भड़काऊ भाषणों के लिए जानी जाती हैं.

प्रज्ञा के मैदान में उतरने से न सिर्फ भोपाल, बल्कि समूचे मध्य प्रदेश में मतों के ध्रुवीकरण की पूरी संभावना बनाने के अपने मंसूबों में BJP कामयाब रही. न सही पूरे प्रदेश में मध्य भारत की सीटों पर तो हिंदुत्व का रंग कुछ ज्यादा ही सुर्ख नजर आता है. साफ लगता है कि प्रज्ञा की मौजूदगी मतों के ध्रुवीकरण का बड़ा कारण बनेगी.

हालांकि आईपीएस हेमंत करकरे शाप देने के उनके बयान पर BJP को बैकफुट पर आना पड़ा. इसके बावजूद अगर वे दिग्विजय सिंह से चुनाव हार जाती हैं तो उनसे ज्यादा किरकिरी BJP की ही होगी.

BJP ने विधानसभा चुनाव के नतीजों को आधार बनाकर सीटिंग सांसदों के टिकट काटे, तो भी विरोध हुआ और नहीं काटे, तो भी विरोध के स्वर सुनाई दिए. भिंड, सीधी, बालाघाट, राजगढ़, टीकमगढ़, मंदसौर, खंडवा और शहडोल ऐसे ही क्षेत्र हैं, जहां पार्टी को दोनों ही स्थितियों में विरोध का सामना करना पड़ा.

BJP से सांसद रहे ज्ञान सिंह ने हिमाद्री सिंह को टिकट दिए जाने पर यहां तक कह डाला कि ‘टिकट करोड़ों में बेचा गया है’. वे निर्दलीय चुनाव लड़ने पर अड़े हुए थे, लेकिन उन्हें मना लिया गया. बालाघाट से पूर्व मंत्री ढाल सिंह बिसेन को टिकट मिला तो शिवराज सरकार में बरसों मंत्री रहे गौरी शंकर बिसेन की पुत्री टिकट की दावेदार मौसम बिसेन ने सोशल मीडिया पर अपना विरोध जाहिर किया.

टीकमगढ़ में वर्तमान सांसद वीरेंद्र खटीक के खिलाफ मोर्चा खोल दिया गया . मुरैना में नरेंद्र सिंह तोमर के मैदान में उतरने पर अशोक अर्गल फट पड़े. इस सीट पर अर्गल परिवार का लंबे समय तक कब्जा रहा है. केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को इस बार ग्वालियर से मुरैना शिफ्ट किया गया था. सो मुरैना से टिकट कटने के कारण अनूप मिश्रा इतने नाराज हुए कि उन्होंने पार्टी की तरफ से प्रचार करने से ही साफ इनकार कर दिया.

इस चुनाव में सबसे दर्दनाक है राष्ट्रीय स्तर की तीन महिला सांसदों का मैदान से बाहर हो जाना. इनमें से एक तो सुमित्रा महाजन हैं ही, दूसरी सुषमा स्वराज हैं और तीसरी उमा भारती. सुषमा स्वराज ने सेहत संबंधी कारणों से और उमाश्री ने अपने निजी कारणों से चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया. 

सुषमा स्वराज पिछले दो चुनाव विदिशा से जीत रही थीं. यह सीट BJP की सबसे सुरक्षित सीटों में से एक मानी जाती है. उमा भारती मूलत: टीकमगढ़ की हैं और भोपाल व खजुराहो लोकसभा सीटों का प्रतिनिधित्व कर चुकी हैं.

इन महिलाओं की अपनी विशिष्ट कार्यशैली रही है. अपनी मर्जी से खुद को चुनाव मैदान से अलग कर लेने का निर्णय लेने के विपरीत बड़ी संख्या उनकी रही है, जो टिकट नहीं मिलने से खफा हैं. बीजेपी के प्रवक्ता राहुल कोठारी इस नाराजगी पर सफाई देते हुए कहते हैं कि BJP बहुत बड़ा परिवार है, टिकट न मिलने पर तात्कालिक नाराजगी स्वाभाविक है. पार्टी ने सारे राजनीतिक समीकरणों को ध्यान में रखकर टिकट बांटे हैं.

टिकट को लेकर BJP की तरह कांग्रेस में भी खासी उठापटक मची रही है. शहडोल में BJP छोड़कर कांग्रेस में आई प्रमिला सिंह को पार्टी ने टिकट ने टिकट दिया तो स्थानीय नेता उबल पड़े. प्रमिला सिंह को कमलनाथ की सिफारिश पर टिकट दिया गया था. यहां BJP ने भी कांग्रेस से आई हिमाद्री सिंह को मैदान में उतारा है. मंडला में कांग्रेस प्रत्याशी की घोषणा होते ही पार्टी में घमासान मच गया. पूर्व मंत्री गंगाबाई उरैती की पुत्री रूपा उरैती ने इस्तीफा दे दिया.

विदिशा से शैलेंद्र पटेल को टिकट मिलने पर कांग्रेस के प्रभावी नेता पूर्व मंत्री राजकुमार पटेल इतने नाराज हुए कि निर्दलीय पर्चा भरने जा पहुंचे. उन्हें जीतू पटवारी ने जैसे-तैसे मनाया. सतना में पूर्व विधानसभा उपाध्यक्ष राजेंद्र सिंह और अजय सिंह राहुल कांग्रेस से टिकट मांग रहे थे, लेकिन अजय सिंह राहुल को अनिच्छा के बावजूद सीधी लोकसभा सीट से टिकट दिया गया, जबकि इसी इलाके से वे विधानसभा चुनाव भारी मतों से हार चुके हैं.

जाहिर है कांग्रेस में भी जबरदस्त बगावत के नजारे आम हैं, लेकिन कांग्रेस प्रवक्ता शोभा ओझा बगावत को नकारती हैं. उनका कहना है कि कोई बड़ी नाराजगी नहीं है. मुख्यमंत्री कमलनाथ जी खुद लोगों से बात कर रहे हैं और मसले सुलझा लिए गए हैं.

इन चुनावों की एक दुखद हकीकत ये है कि सड़क,पानी, बिजली मंहगाई बेरोजगारी जैसे बुनियादी सवाल राष्ट्रवाद और धर्म जैसे चुनावी शोर –शराबे में कहीं गुम से होकर रह गए हैं. चार महीने पहले विधानसभा चुनाव के दौरान एट्रोसिटी एक्ट, सवर्ण आंदोलन जैसे मुद्दे खूब उछले थे.

इनसे चुनाव नतीजे बुरी तरह प्रभावित हुए थे, लेकिन लोकसभा चुनाव में पुराने सारे मुद्दे हवा हो चुके हैं. जिस तरह किसानों की कर्जमाफी के मुद्दे पर BJP को कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव में घेरा था, इस बार बीजेपी उसे घेरने में लगी है.

इधर बिजली की गैरजरूरी कटौती पर कांग्रेस सरकार फिर से घिरती नजर आ रही है. पंद्रह साल पहले बिजली की कटौती राज्य के लिए कलंक बन गई थी. कांग्रेस को अपनी सरकार गंवानी पड़ी थी. इधर जिस तरह पूरे राज्य से बिजली कटौती की खबरें आ रही हैं, उससे मुख्यमंत्री कमलनाथ भी हैरान रह गए हैं.

बिजली कटौती का मसला कितना गंभीर बन पड़ा होगा, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि राज्य सरकार ने केवल तीन दिनों में 387 अधिकारियों-कर्मचारियों पर कार्रवाई की. इनमें से 217 को नौकरी से निकाला जा चुका और 142 सस्पेंड किए जा चुके हैं.

राज्य में चुनाव अपने जुनून की ओर है, लेकिन दोनों दलों की परेशानी नेतृत्व का संकट है. कांग्रेस के तमाम बड़े नेता अपने-अपने क्षेत्रों में घिरे हुए हैं. कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया, अरुण यादव, अजय सिंह राहुल, कांतिलाल भूरिया, विवेक तन्खा समेत सभी बड़े नेता जिन्हें चुनाव लड़ना था, चुनाव मैदान में हैं. कमोबेश BJP की स्थिति भी यही है. प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह जबलपुर से मैदान में हैं.

शिवराज सिंह की भूमिका सीमित नजर आती है. केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर भी मुरैना से कड़े मुकाबले में हैं. चुनाव के एक और जानकार कैलाश विजयवर्गीय पं. बंगाल में पार्टी के लिए ताकत लगाए हुए हैं, जबकि नरोत्तम मिश्रा यूपी में चुनाव प्रचार कर रहे हैं. ऐसे में बागियों और भितरघातियों को संभालने के लिए दोनों पार्टियों के पास कोई सर्वमान्य नेता बचा हुआ नजर नहीं आता है.

नतीजा यह है कि BJP के प्रदेश प्रभारी विनय सहस्त्रबुद्धे ने भोपाल में पार्टी के पूर्व विधायकों, पार्षदों, जिला अध्यक्षों की बैठक बुलाई थी, उसमें आधे से ज्यादा लोग आए ही नहीं. ऐसे लोगों को पार्टी को चेतावनी देनी पड़ी है.

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