राजस्थान में संपन्न पंचायत समिति और जिला परिषद चुनावों में बीजेपी की जीत 3 कारणों से महत्वपूर्ण है:
1. परंपरागत रूप से माना जाता रहा है कि सत्ताधारी पार्टी का प्रदर्शन अच्छा रहता है
- 15 साल में यह पहला अवसर है जब ग्रामीण निकायों में विपक्ष की तुलना में सत्ताधारी दलों के कम सदस्य होंगे. पंचायत समिति चुनावों में कांग्रेस के 1852 उम्मीदवारों के मुकाबले बीजेपी के 1989 उम्मीदवार जीते हैं. 2015 में बीजेपी के लिए यह संख्या 2960 थी और कांग्रेस के लिए 2490.
- प्रतिशत रूप में बीजेपी ने 45.5 प्रतिशत सीटें जीती हैं जबकि कांग्रेस ने 42.4 प्रतिशत सीटें. 2015 में बीजेपी के लिए यह 51 फीसदी था और कांग्रेस के लिए 41 प्रतिशत.
- जिला परिषद सीटों के रूप में देखें तो बीजेपी ने 56 फीसदी सीटों पर कब्जा जमाया, जबकि कांग्रेस ने 40 फीसदी सीटों पर. 2015 में बीजेपी और कांग्रेस की जीत का प्रतिशत क्रमश: 62 और 37 था.
- 13 जिलों में जिला प्रमुख के पद पर बीजेपी कब्जा करने जा रही है और कांग्रेस 5 जिलों में. बाड़मेर में दोनों पार्टियां बराबरी पर हैं, नागौर में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के हाथों में चाबी है और डुंगरपुर में भारतीय ट्राइबल पार्टी को निर्दलीयों का समर्थन है.
2. कांग्रेस में गुटबाजी
ये नतीजे ऐसे समय पर आए हैं जब राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट के दरम्यान राजनीतिक गुटबाजी के बीच कांग्रेस आंतरिक मंथन के दौर से गुजर रही है.
3. कृषि कानून
बीजेपी इस जीत में कृषि कानूनों के लिए जनता का समर्थन देख रही है और इसे इस बात का संकेत भी मान रही है कि किसानों के प्रदर्शन से ग्रामीण इलाकों में उसे नुकसान नहीं हो रहा है. खास तौर पर ऐसा इसलिए कि राजस्थान के कुछ किसान समूह भी इस आंदोलन का हिस्सा ले रहे हैं.
इस आर्टिकल में पांच सवालों के जवाब देने की कोशिश होगी:
- कांग्रेस का प्रदर्शन क्यों बुरा रहा?
- गुटबाजी के संदर्भ में कांग्रेस के लिए इन नतीजों के क्या मायने हैं?
- बीजेपी के लिए इसका क्या मतलब है?
- कृषि कानूनों के संदर्भ में इसका क्या मतलब है?
- बड़ी तस्वीर क्या है?
कांग्रेस का प्रदर्शन क्यों बुरा रहा?
कांग्रेस केवल पांच जिलों में जिला प्रमुख पदों पर कब्जा करने जा रही है: बीकानेर, जैसलमेर, हनुमानगढ़, बांसवाड़ा और प्रतापगढ़. इस बुरे प्रदर्शन के कई कारण हैं. कुछ का संबंध राजस्थान में इसकी कमजोरियों से हैं और कुछ कारक इसके नियंत्रण से बाहर हैं.
कई जिले छूट गए
कांग्रेस की ओर से स्पष्टीकरण दिया गया है कि पूरे राज्य में चुनाव नहीं हुए थे और कई इलाके जहां कांग्रेस मजबूत है, वोट नहीं पड़े.
सीटों के परिसीमन को लेकर मुकदमेबाजी की वजह से 33 जिलों में से 12 जिलों में चुनाव नहीं हुए.
यह सच है कि इन 12 जिलों में कांग्रेस मजबूत है: उदाहरण के लिए मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का गृह जिला जोधपुर; दौसा, जहां सचिन पायलट का प्रभाव माना जाता है और अलवर, भरतपुर, जाजपुर व सवाई माधोपुर जैसे पूर्वी जिले, जहां कांग्रेस की स्थिति मजबूत मानी जाती है.
बहरहाल कुछ बीजेपी के गढ़ माने जाने वाले इलाको में भी वोट नहीं पड़े- जैसे धौलपुर, जो शाही परिवार का गृहक्षेत्र है जहां बीजेपी नेता वसुंधरा राजे की शादी हुई है या बारन, जहां से उनके बेटे दुष्यंत सिंह संसद का प्रतिनिधित्व करते हैं.
कुल मिलाकर कांग्रेस को इस वजह से थोड़ा नुकसान जरूर हुआ है, लेकिन इसे एक वजह मान भी लें तब भी राज्य की सत्ताधारी पार्टी का यह उम्मीद के हिसाब से बहुत बुरा प्रदर्शन है.
बीटीपी और आरएलपी जैसी छोटी पार्टियों को फायदा
कांग्रेस ने संभवत: कुछेक छोटी पार्टियों के हाथों अपना परंपरागत वोट गंवाया है, जैसे हनुमान बेनीवाल की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी और गुजरात के आदिवासी नेता छोटू भाई वासवा के नेतृत्व वाली भारतीय ट्राइबल पार्टी.
परंपरागत रूप से जाट समुदाय राजस्थान में कांग्रेस का समर्थन करती रही है और हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में नए कृषि कानूनों के विरोध का नेतृत्व भी यही लोग कर रहे हैं. बेनीवाल की आरएलपी ने इन कानूनों के खिलाफ कड़ा रुख दिखलाया और एनडीए से बाहर निकलने तक की धमकी दे डाली. संभव है कि इसने जाट वोटों का बड़ा हिस्सा हासिल किया हो खासकर शेखावटी इलाके में. आरएलपी ने पंचायत समिति की 56 सीटें जीती हैं और अब वे नागौर और बाड़मेर में किंगमेकर की भूमिका में है.
ऐसा लगता है कि बीजेपी ने कांग्रेस को दक्षिणी राजस्थान के भील बहुल इलाके में नुकसान पहुंचाया है. बीटीपी समर्थित 13 निर्दलीय उम्मीदवारों की डुंगरपुर जिले में जीत हुई है. इस बात के पूरे आसार हैं इलाके में जिला प्रमुख का पद उसे मिलने जा रहा है.
अंदरूनी कलह
कांग्रेस के बुरे प्रदर्शन का प्रमुख कारण गुटबाजी है. पार्टी ने भले ही सचिन पायलट और उनके समर्थकों की बगावत को रोक लिया हो, लेकिन पायलट और गहलोत गुटों में सौहार्दपूर्ण रिश्ते नहीं हैं.
आश्वासनों के बावजूद मुख्यमंत्री और गहलोत के वफादार प्रदेश कांग्रेस कमेटी अध्यक्ष गोविंद सिंह दोतासरा ने बड़े फैसले लेते वक्त पायलट को विश्वास में नहीं लिया.
लेकिन गुटबाजी सिर्फ गहलोत-पायलट में स्पर्धा की वजह से ही नहीं है. जमीनी स्तर पर भी गुटबाजी ने अपनी पैठ बना ली है. कई जगहों पर स्पर्धी गुटों में मतभेद के कारण पार्टी की हार हुई है.
कांग्रेस के बुरे प्रदर्शन ने सभी गुटों को नुकसान पहुंचाया.
दोतासरा के गृहजिले सीकर; टोंक, जहां से विधानसभा में पायलट प्रतिनिधित्व करते हैं और अजमेर में भी जिसका प्रतिनिधित्व वरिष्ठ नेता रघु शर्मा करते हैं- कांग्रेस ने बहुत बुरा प्रदर्शन दिखाया है.
कांग्रेस के लिए नतीजों के मायने क्या हैं?
नतीजों के तुरंत बाद दोतासरा सीधे पायलट तक पहुंच गये. माना जा रहा है कि केंद्रीय नेतृत्व ने उन्हें विवश किया. ऐसा लगता है कि बेहतर समन्वय की जरूरत समझी गयी है.
बहरहाल ऐसा लगता है कि तब तक भ्रम की स्थिति बनी रहने वाली है और कांग्रेस को इसका नुकसान उठाते रहना होगा जब तक कि बड़ा बदलाव नहीं होता- चाहे वह स्वयं नेतृत्व में हो या फिर कार्यशैली में.
जाटों और आदिवासियों के बीच जनाधार वापस हासिल करने के लिए पार्टी को बड़े स्तर पर पहुंच बनानी होगी और उसे बीटीपी के साथ गठबंधन की भी कोशिश करनी पड़ सकती है जिससे गुजरात में भी मदद मिलेगी. वामदलों को भी साथ लेने की जरूरत महसूस होगी.
बहरहाल सबकुछ इस बात पर निर्भर करता है कि कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व में क्या होता है. जब हम बड़ी तस्वीर की चर्चा करेंगे तब इस पर और अधिक बात होगी.
बीजेपी के लिए इन नतीजों के क्या मायने हैं?
राजस्थान बीजेपी के वसुंधरा राजे गुट में अब जान आ गयी है और वह आरएलपी के साथ संबंध तोड़ने की बात कर रहा है, जिसके नेता हनुमान बेनीवाल हैं जो पूर्व मुख्यमंत्री के आलोचक रहे हैं.
बहरहाल बाड़मेर और नागौर में जिला प्रमुख पद हासिल करने के लिए आरएलपी की मदद की जरूरत पड़ सकती है. और, कृषि कानूनों के कारण जाटों की नाराजगी भी देखनी होगी.
बीजेपी का केन्द्रीय नेतृत्व और सतीश पुनिया व गजेंद्र सिंह शेखावत जैसे प्रदेश के कई नेता भी राजे के प्रभुत्व की पूर्ण वापसी नहीं चाहते. इस तरह पूर्व सीएम और केंद्रीय नेतृत्व के बीच रस्साकशी जारी रहने वाली है.
कृषि कानूनों के संदर्भ में इन नतीजों के क्या मायने हैं?
बीजेपी स्वाभाविक रूप से यह दावा करने जा रही है कि इन चुनाव नतीजों का मतलब है कि “किसानों को पीएम मोदी में भरोसा है” और इन नतीजों में कृषि कानूनों को जनता का समर्थन भी है. सीकर जैसे इलाकों में ये नतीजे खासतौर पर खुश करने वाले हैं जो राजस्थान में परंपरागत रूप से किसानों के आंदोलन का गढ़ रहा है.
बहरहाल अगर कांग्रेस में अंदरूनी कलह नहीं होती और आरएलपी एवं वामदलों की मौजूदगी नहीं होती तो ज्यादातर किसान कांग्रेस के लिए जबरदस्त तरीके से मतदान करते.
इसलिए यह उचित नहीं होगा कि चुनाव नतीजों को कृषि कानूनों का समर्थन माना जाए. लेकिन हां, बीजेपी अपने आकलन में सही हो सकती है कि पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी के हिस्सों के अलावा बाकी हिस्सों में उसे उतना राजनीतिक नुकसान अधिक नहीं हो.
बड़ी तस्वीर
बहरहाल बड़ी तस्वीर यह है कि ये चुनाव नतीजे उस बड़े राष्ट्रीय रुझान का हिस्सा लगते हैं, जिसमें बीजेपी के साथ सीधे मुकाबले में, खासकर हिन्दी हार्टलैंड में, कांग्रेस बुरा प्रदर्शन करती रही है.
मध्यप्रदेश और गुजरात जैसे राज्यों में हुए उपचुनाव नतीजे भी इसके प्रमाण रहे हैं और बिहार की वे सीटें भी जहां दोनों राजनीतिक दलों ने एक-दूसरे का सामना किया.
पार्टी की समस्या नेतृत्व की कमी है जिसमें बीजेपी की ओर बह जाने वाले वोटरों का दिल जीतने की क्षमता हो और जो नाराज तबके को पूरी तरह अपने साथ जोड़े रख सके, जैसे किसान और आदिवासी.
इसी अर्थ में हिन्दी हार्टलैंड और इसके बाहर भी कई हिस्सों में कमजोर होती कांग्रेस का संकेत है राजस्थान.
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