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तड़ीपार तालिबान कैसे इतनी तेजी से कब्जा रहा अफगानिस्तान? पूर्व राजदूत से समझिए

मजार-ए-शरीफ की लड़ाई से अफगानिस्तान में आगे बहुत कुछ तय होना है, पूर्व डिप्लोमेट Vivek Katju के साथ खास बातचीत

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अफगानिस्तान में तालिबान का कब्जा तेजी से बढ़ता जा रहा है. अमेरिकी सरकार ने शक्रवार को तीन हजार और सैनिकों को काबुल भेजा जिससे अमेरिकी दूतावास से अधिकारियों को निकालने में मदद मिल सके. अफगानिस्तान की स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है. वहां पर कुछ भारतीय नागरिक भी फंसे हुए हैं.

अफगानिस्तान की इस स्थिति पर द क्विंट ने भारत के पूर्व वरिष्ठ राजनायिक और भारत-अफगानिस्तान मामलों के जानकार विवेक काटजू से बात की.

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इशाद्रिता लाहिड़ी (सवाल): 15 अप्रैल को अमरीकी राष्ट्रपति द्वारा कहा गया था कि अब अमरीकी सैनिकों की अफगानिस्तान में कोई जरूरत नहीं है, लेकिन आज जो तस्वीरें आ रही हैं उससे लगता है कि बाइडेन की ये बहुत बड़ी गलती रही है. क्योंकि तालिबान अब काबुल तक पहुंच गया है. आपका इस बारे में क्या कहना है?

विवेक काटजू (जवाब): जो बाइडेन और अमेरिकियों का विश्वास था कि अफगानिस्तान के सैनिकों में इतनी मजबूती और हौसला है कि वो तालिबान का सामना कर पाएंगे, मुझे लगता है उनका ये अनुमान गलत है. दूसरा अमेरिकियों को यह भी विश्वास हो गया था कि तालिबानी शायद एक मिलीजुली सरकार में शामिल होने के लिए तैयार होंगे, उसके बाद युद्ध विराम लगने के बाद, आगे की प्रक्रिया राजनीतिक और संवैधानिक होगी. लेकिन जिस दिन बाइडेन ने यह कह दिया कि 11 सितंबर तक हम चले जाएंगे, उससे मुझे लगता है तब से अफगानिस्तान की परिस्थितियों में बदलाव आ गया और तालिबान को तालिबान ने फैसला किया कि वे बातचीत तो जारी रखेंगे, लेकिन साथ में अपनी सैनिक तैयारी भी तेज कर देंगे.

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उसके बाद तालिबान ने जो योजना बनाई, जिस प्रकार से वो आगे बढ़े हैं और जून के महीने से जो कार्रवाई हुई और जिस सोच के साथ वो आगे बढ़े हैं, मेरा विश्वास है कि इसमें पाकिस्तान का भी सहयोग रहा है. अगर आप देखें तो तालिबान सबसे पहले अफगानिस्तान के ग्रामीण इलाकों में फैला, उसके बाद जो बॉर्डर क्रॉसिंग प्वाइंट हैं, वहां पर उन्होंने कब्जा जमाया और अब एक हफ्ते के अंदर जायरन, सुबरगान, मध्य अफगानिस्तान की तरफ बढ़ रहे हैं.

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सवाल- भारत सरकार के एक डिप्लोमेट होने के नाते आप बार-बार आगाह करते रहे हैं कि अमेरिका के वहां से जाने के बाद, अफगानिस्तान में अफरा-तफरी जैसी स्थिति पैदा होने वाली है और भारत को उसके तैयार भी रहना चाहिए. आपने यह भी कहा कि भारत को तालिबान के साथ बात करने के लिए तैयार रहना चाहिए. लेकिन भारत शायद तालिबान से व्यवहार को लेकर हिचकिचाहट रखता है. लेकिन अब तो तालिबान काबुल तक पहुंच गया है. आपका इस बारे में क्या कहना है?

जवाब- मुझे आज से चार साल पहले ही ये महसूस होने लगा था कि अमेरिकी, अफगानिस्तान में अब थक रहे हैं. समाधान एक ही होगा कि तालिबान और अमेरिकी लोगों के बाच कुछ बातचीत होनी चाहिए. फिर ट्रंप ने अफगान नीति का ऐलान किया और पाकिस्तान को डराया-धमकाया.

पाकिस्तान पहले तो डरा, लेकिन बाद में पाकिस्तान को यह महसूस हो गया कि ट्रंप पाकिस्तान में प्रवेश नहीं करवाएंगे. जब ये स्थिति आ गई तो मुझे यकीन हो गया कि अब जो परिस्थितियां बदल रही हैं, भारत को उसके हिसाब से काम करना चाहिए और अपनी नीतियां बनानी चाहिए. इन परिस्थतियों में काबुल सरकार के साथ संबंध बरकरार रखते हुए तालिबान से भी खुल कर बातचीत करनी चाहिए. 2018-19 में ये साफ हो गया कि हर देश तालिबान से बात कर रहा था. रूस, ईरान, चान, यूरोप के देश और अमेरिका भी.

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सवाल- जब आप अफगानिस्तान में थे उस वक्त भी हालात खराब थे. आए दिन बम-ब्लास्ट और हमला होता रहता था. आज जो भारतीय वहां फंसे हुए हैं उनको वहां से निकालना कितना मुश्किल हो सकता है और इसमें भारत सरकार को अपने नागरिकों को सुरक्षित वापस लाने के लिए क्या कुछ करना पड़ सकता है.

जवाब- मैं जब भारत का वहां पर राजदूत था, उस वक्त वहां के हालात इतने बुरे नहीं थे. मै वहां मार्च 2002 से जनवरी 2005 तक रहा. उस समय तालिबान की गतिविधियां शुरू हो गई थीं, लेकिन स्थिति बिल्कुल अलग थी और आज स्थिति अलग है.

मैं भारतीय विदेश मंत्रालय से आशा करता हूं कि अफगानिस्तान में जो भारतीय नागरिक हैं उनकी हिफाजत करने के लिए जो भी करना पड़े, वो करेंगे. इस सिलसिले में वो क्या तरीका अपनाएंगे, यह परिस्थिति पर निर्भर करता है. मैं समझता हूं कि जो भी एडवाइजरी भारत का दूतावास जारी करता है और राय देता है, वहां फंसे भारतीय नागरिकों उस पर पूरी तरह से बेहिचक अमल करना चाहिए.

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सवाल- जो हालात इस वक्त अफगानिस्तान में बन गए हैं इससे आपको क्या लगता है कि ये सिलसिला कैसे और कहां जाकर रुकेगा?

जवाब- देखिए अब भी देश के हालात बुरे हैं. कांधार पर तालिबान का कब्जा है, वे इस वक्त काबुल को घेर रहे हैं. मजार-ए-शरीफ पर अभी तालिबान का कब्जा नहीं है. अब ये देखना है कि क्या मजार-ए-शरीफ की लड़ाई की तरफ देखना है. वहां कुरान-ए-मुजाहिदीन के नेता हैं, जिसमें अता मोहम्मद नूर हैं, दोस्तुम साहब हैं, 1990 के दशक में तालिबान के खिलाफ मोर्चे में शामिल होने वाले मुहाफिज हैं.

अब देखना ये है कि क्या वो अपने लोगों को भरोसा दिला सकते हैं. मुश्किल उनके सामने जरूर है. इसके साथ-साथ ये भी देखना है कि जो काबुल की आर्मी है, वो वहां वैसी ही नजीर पेश करेगी, जैसी हर जगह की है या राजधानी को पूरी तरह से संभालने की कोशिश करेगी. इसके साथ सवाल ये उठता है कि काबुल की जनता की क्या प्रतिक्रिया है, अब देखना ये होगा कि आगे क्या होता है. यह वक्त ही बता सकता है.

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