सुप्रीम कोर्ट और सरकार जजों की नियुक्ति और ट्रांसफर यानी कॉलेजियम सिस्टम को लेकर आमने-सामने है. सरकार पर ज्यूडिशियरी में हस्तक्षेप का आरोप लग रहा है. नेता कह रहे हैं जजों को चुनाव नहीं लड़ना पड़ता ना. PM की आलोचना करना, सोशल मीडिया पर सरकार पर सवाल उठाने वाला आर्टिकल शेयर करना और समलैंगिकता का पक्षधर होने पर जजों की नियुक्ति रोक दी जा रही है. इसलिए हम पूछ रहे हैं जनाब ऐसे कैसे?
सोचिए अगर अंग्रेजों के जमाने की तरह अब भी जिला मजिस्ट्रेट कार्यकारी और साथ ही न्यायिक, दोनों तरह के काम करते तो. मतलब उसी के खिलाफ आरोप हो और वही अपने ऊपर आरोपों पर फैसला सुनाए तो क्या होगा?
केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू सार्वजनिक रूप से लगातार कॉलेजियम के खिलाफ मुखर दिख रहे हैं. कभी किरेन रिजिजू जजों की नियुक्ति करने के पूरे प्रोसेस को 'संविधान से परे' या एलियन बता देते हैं. तो कभी पूछ रहे हैं कि बताइए कि संविधान में कॉलेजियम सिस्टम का कहां जिक्र है? कभी कह रहे हैं कि जजों को चुनाव का सामना नहीं करना पड़ता है.. अब जनता उन्हें चुनती नहीं है तो हटा भी नहीं सकती है.. लेकिन जनता देख रही है..
इस पूरे मामले को समझने के लिए थोड़ा फ्लैशबैक में चलना होगा और समझना होगा कि मोदी सरकार पर न्यायपालिका को अपने नियंत्रण में लेने की कोशिश का आरोप क्यों लग रहा है.
नेशनल ज्यूडिशियल अप्वाइंटमेंट कमीशन- सरकारी दखल की कोशिश?
मोदी सरकार और न्यायपालिका के बीच तनातनी की शुरूआत साल 2014 यानी नरेंद्र मोदी सरकार बनने के बाद से होती है. साल 2014 में ही मोदी सरकार संविधान में 99वां संशोधन करके नेशनल ज्यूडिशियल अप्वाइंटमेंट कमीशन (एनजेएसी) एक्ट लेकर आई. जिसमें कहा गया चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया और सुप्रीम कोर्ट- हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम की जगह अब एनजेएसी के प्रावधानों के तहत काम होगा. इसमें चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया, कानून मंत्री, सुप्रीम कोर्ट के दो सीनियर मोस्ट जस्टिस, दो एक्सपर्ट होंगे और इन दो विशेषज्ञों का चयन प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के तीन सदस्यीय पैनल करेंगे.
लेकिन मामला यहीं फंस गया और अक्तूबर 2015 को सुप्रीम कोर्ट ने नेशनल ज्युडिशियल अप्वाइंटमेंट्स कमीशन एक्ट को रद्द कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने तब कहा था कि ये "संविधान के आधारभूत ढांचे से छेड़छाड़" है.
जस्टिस अकील कुरैशी के नाम पर विवाद
खींचतान का एक और मामला तब सामने आया जब बॉम्बे हाइकोर्ट में कार्यरत जज जस्टिस अकील अब्दुलहमीद कुरैशी की मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस के तौर पर प्रोमोट करने की कॉलेजियम की सिफारिश पर केंद्र सरकार कुंडली मार कर बैठी गई थी.
साल 2010 में जस्टिस कुरैशी ने गृहमंत्री अमित शाह को सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले में दो दिनों की पुलिस हिरासत में भेजा था.
5 वकीलों की नियुक्ति और सरकार से टकराव
अब टकराव का ताजा मामला 5 जजों की नियुक्ति का है. सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम ने वरिष्ठ अधिवक्ता सौरभ कृपाल, वकील सोमशेखर सुंदरेसन, अधिवक्ता आर जॉन सत्यन, शाक्य सेन और अमितेश बनर्जी के नामों को अलग-अलग हाईकोर्ट के जजों के तौर पर नियुक्त करने की सिफारिश की थी. कम से कम तीन जजों की सिफारिश एक नहीं दो बार की गई. लेकिन सरकार ने इन नामों पर आपत्ति जताई. फिर क्या था कॉलेजियम ने जजों कि नियुक्ति पर सरकार की आपत्तियों को सार्वजनिक कर दिया
सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक सरकार को दिक्कत है कि सौरभ कृपाल समलैंगिकता के पक्षधर हैं, उनके पार्टनर एक स्विस नागरिक हैं. सरकार को आपत्ति है कि अधिवक्ता सोमशेखर सुंदरेसन सरकार की सरकार की नीतियों, पहलों और निर्देशों पर सोशल मीडिया पर आलोचनात्मक' रहे हैं. कॉलेजियम ने सरकार की आपत्ति को सार्वजनिक करते हुए बताया कि सरकार को आर जॉन सत्यन के नाम पर इसलिए आपत्ति है कि उन्होंने सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना से जुड़ी ‘द क्विंट’ में पब्लिश एक आर्टिकल शेयर की थी.
तो सवाल है कि क्या सरकार को सरकारी जज चाहिए?
सरकार और सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम में टकराव का एक और मामला
3 फरवरी 2023 को सुप्रीम कोर्ट ने जजों के ट्रांसफर की कॉलेजियम की सिफारिश पर फैसले लेने में हो रही देरी पर केंद्र सरकार को चेतावनी दी. Advocates Association बेंगलुरु की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए जस्टिस संजयकिशन कौल और जस्टिस अभय एस ओका की बेंच ने अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी से कहा, "हमें ऐसा कोई रुख अपनाने को मजबूर नहीं किया जाए, जो असुविधाजनक हो."
कोर्ट ने ये भी जानना चाहा कि जिस सात जजों की सुप्रीम कोर्ट में पोस्टिंग की सिफारिश केंद्र के पास गई है, उसकी क्या स्थिति है, इसपर एजी ने कहा कि काम चल रहा है, लेकिन ये कब होगा इसकी कोई तारीख नहीं बता सकते. जवाब में कोर्ट ने कहा कि आपको सिर्फ 5 दिन का समय दिया जाता है.
फिर क्या था दो दिन में यानी 5 फरवरी 2023 को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पांच नए जजों के अप्वाइंटमेंट का नोटिफिकेशन जारी कर दिया.
तो सवाल ये भी है कि सरकार किसी जज के ट्रांसफर की फाइल अटका कर क्यों बैठती है? इसके पीछे का मकसद क्या है?
केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में कहा है कि सरकार ने पिछले तीन सालों में कॉलेजियम के 18 प्रस्तावों को वापस कर दिया है, उन्होंने यह भी बताया कि 64 नामों पर अभी भी विचार जारी है.
कॉलेजियम विवाद पर द क्विंट पर लिखे एक आर्टिकलम में पूर्व जज रोहिंटन फली नरीमन कहते हैं कि "अगर स्वतंत्र न्यायपालिका का आखिरी गढ़ गिर जाता है, तो देश अंधकार के रसातल में चला जाएगा."
द क्विंट पर लिखे एक दूसरे आर्टिकल में सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट संजय हेगड़े कहते हैं कि अगर सरकार अभी भी कॉलेजियम के सिफारिश पर कार्रवाई नहीं करती है, तो यह सेपरेशन ऑफ पावर के सिद्धांत और न्यायपालिका की स्वायत्तता का उल्लंघन होगा.
जस्टिस गोविंद माथुर यानी इलाहाबाद हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस कहते हैं,
इसमें कोई शक नहीं कि कॉलेजियम सिस्टम में भी कमियां हैं और उन्हें दूर करने की जरूरत है लेकिन इसके लिए सभी स्तरों पर गंभीर सोच-विचार की जरूरत है. इतना अहम काम, इतने लापरवाह तरीके से नहीं किया जा सकता.
अब यहां ये समझना जरूरी है कि Executive, Judiciary and Legislature के बीच सेपरेशन ऑफ पावर है, ये संविधान में साफ लिखा है. संविधान के आर्टिकल 217 में लिखा है कि राष्ट्रपति हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया, राज्य के राज्यपाल और हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस से विचार-विमर्श करके फैसला लेंगे. हालांकि, 1993 में, सुप्रीम कोर्ट ने माना कि कार्यपालिका न्यायपालिका की सलाह से बंधी है और एक कॉलेजियम सिस्टम की स्थापना की गई, जिसमें भारत के चीफ जस्टिस और सुप्रीम कोर्ट के सीनियर जज शामिल हैं.
तो कुल मिलाकर बात इतनी है कि कॉलेजियम सिस्टम में ट्रांसपैरेंसि होनी चाहिए, ताकि लोगों को पता चल सके कि किसी जज को किस आधार पर नियुक्त किया जा रहा है. वहीं दूसरी ओर ये सवाल है कि ट्रांसपैरेंसी के नाम पर सरकार को न्यायपालिका में हस्तक्षेप की ताकत क्यों मिले? इसलिए हम पूछ रहे हैं जनाब ऐसे कैसे?
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