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खुला खत: पहले महाराष्ट्र से भगाया, अब गुजरात से...कहीं तो जीने दो

क्षेत्रवाद और नफरत फैलाने वाले लोगों के नाम एक उत्तर भारतीय प्रवासी मजदूर का खुला खत

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इन दिनों गुजरात क्षेत्रवाद और इससे पनपने वाली नफरत की आग में जल रहा है. वो गुजरात, जहां अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी का जन्म हुआ. वो गुजरात, जहां की सरकार अपने राज्य में तरक्की के बड़े-बड़े दावे करती है.

उसी गुजरात में सालों से रह रहे उत्तर भारतीय प्रवासी कामगारों पर स्थानीय लोगों का गुस्सा कुछ इस कदर फूटा कि अपनी जान बचाने के लिए 60 हजार से ज्यादा लोगों को अपने राज्य लौटना पड़ा. इससे पहले महाराष्ट्र में भी इन प्रवासियों को क्षेत्रवाद की ओछी राजनीति का शिकार होना पड़ा है. उन्हें कई बार मारपीट कर और जलील कर वहां से भगाया गया.

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एक के बाद एक दोनों ही राज्यों से इस नफरत का शिकार होकर वहां से भगा दिया गया एक दिहाड़ी मजदूर अंदर ही अंदर भरा बैठा है. वो अपने गुस्से को जताना चाहता है, अपनी तकलीफ को बांटना चाहता है, लेकिन उसकी सुनने वाला कोई नहीं. इसलिए उसने नफरत फैलाने वालों के नाम एक खुला खत लिखने का फैसला किया.

क्षेत्रवाद की नफरत फैलाने वाले गुजराती और मराठी भाइयों को नमस्ते !

मेरा नाम किशन है. वैसे आप मुझे और भी कई नामों से जानते हैं जैसे - राकेश, बबलू, जुनैद या फिर अकरम. खैर, नाम, धर्म और जाति में क्या रखा है, मेरी असली पहचान है कि मैं एक दिहाड़ी मजदूर हूं और हिंदी बोलता हूं. मैं यूपी, बिहार या मध्य प्रदेश के किसी गांव का रहने वाला हूं. सीधे-सीधे कहिए, तो मैं एक 'उत्तर भारतीय' हूं. वो मैं ही हूं, जिसे आप अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में अक्सर अपने आस-पास देखते हैं. कभी सर पर तसला उठाए मजदूरी करते हुए, कभी रिक्शा खींचते हुए, तो कभी सड़क किनारे रेहड़ी लगाते हुए.

मेरी मेहनत के बदले आपकी नफरत?

मैं ज्यादा पढ़ा-लिखा तो नहीं हूं, लेकिन इतना जरूर जानता हूं कि आपके राज्य की तरक्की में मेरा योगदान कुछ कम नहीं है. जिस घर में आप सुकून की नींद सोते हैं, उसको बनाने में मैंने अपना खूब पसीना बहाया है. जिस पक्की सड़क पर आप अपनी गाड़ी दौड़ाते हैं, उसे मैंने ही तो बनाया है. जिस स्कूल में आपके बच्चे पढ़ते हैं या जिस अस्पताल में आपके घर के बुजुर्गों का इलाज होता है, उसकी नींव खोदने से लेकर उद्घाटन के दिन तक की 'फिनिशिंग टच' देने का काम मैंने ही तो किया था. मैं उन फैक्ट्रियों और कारखानों में जी-तोड़ मेहनत करता हूं, जहां बनने वाली चीजें आपकी आम जिंदगी का अहम हिस्सा हैं.

लेकिन आपके और आपके राज्य के लिए इतना सब कुछ करने के बावजूद आप मुझसे इतनी नफरत करते हैं. आखिर क्यों? आपके बच्चे भी तो इंजीनियरिंग, मेडिकल या मैनेजमेंट की पढ़ाई करने हमारे राज्य में आते हैं. उनमें से कई वहां ऊंची तनख्वाह की नौकरी पाकर बस भी जाते हैं. लेकिन मैंने तो कभी उन्हें नफरत की नजर से नहीं देखा. हमेशा उन्हें अपने बच्चों की तरह ही माना. फिर आपकी और मेरी सोच में इतना अंतर क्यों है? सिर्फ इसलिए कि मैं गरीब तबके से हूं और दिहाड़ी मजदूरी के अलावा मैं कोई और काम नहीं कर सकता.

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पहले महाराष्ट्र से भगाए गए, अब गुजरात से

हमारे कस्‍बे और जिले में हम जैसे कम पढ़े-लिखे लोगों के लिए कोई काम-धंधा नहीं था. मेरा बड़ा भाई मुंबई में रहकर मजदूरी करके अपना गुजरा चलता था. घर पर कुछ पैसे भी भेजता था. जब थोड़ा बड़ा हुआ, तो उसने मुझे भी अपने पास मुंबई बुला लिया और काम पर लगवा दिया. मैं मन लगाकर काम करता और पैसे कमाता. अब दोनों भाई घर पर पैसे भेजते. फिर शादी हुई, बच्ची पैदा हुई और जिम्मेदारी भी बढ़ गई. लेकिन बड़े शहर में अपना और अपने परिवार का गुजारा आराम से चल रहा था.

फिर एक रोज पता नहीं क्या हुआ, रात को एक राजनीतिक पार्टी के लोगों ने हमारी बस्ती पर धावा बोल दिया. उस वक्त हम खाना खाकर थके-हारे सो रहे थे. उन लोगों ने हमें घरों से बाहर खींचकर पीटना शुरू कर दिया. मुझे तो पता ही नहीं चला कि मेरी गलती क्या है. उन्होंने कहा कि अगर अपनी जान प्यारी है, तो अपने राज्य लौट जाओ. मैं गिड़गिड़ाता रहा, मेरी पत्नी और बच्ची रोते रहे, लेकिन उन्हें तरस नहीं आया. मरता क्या न करता, वापस अपने गांव आ गए.

एक साल तक यहां-वहां भटकते रहे, लेकिन ढंग का काम नहीं मिला. फिर एक दिन हमारे गांव के भुवन चाचा दिवाली पर घर आये. वे कई सालों से गुजरात में रह रहे थे. उन्होंने कहा, “गुजरात के लोग बहुत अच्छे हैं. महाराष्ट्र वालों की तरह बर्ताव नहीं करते, बड़े दरिया-दिल हैं. तू यहां आजा, रोजी-रोटी चलाने में कोई दिक्कत नहीं होगी.” मुझे उनकी बात भा गई. एक बार फिर बोरिया-बिस्तर समेटकर चल दिया एक नए मुकाम की ओर. धीरे-धीरे वहां पांव जमने लगा और कुछ समय बाद मैंने अपने बीवी-बच्ची को भी अपने पास बुला लिया.

सब कुछ अच्छा ही तो चल रहा था कि एक दिन मेरे 'उत्तर भारतीय' होने का 'अभिशाप' ने एक बार मेरी खुशहाल जिंदगी में दस्तक दे दी. फिर एक बार वही दहशत, वही मारपीट, वही नफरत और वही जिल्लत. इस बार जगह नई थी, लेकिन मेरी बदकिस्मती पुरानी ही थी. मराठी लोगों ने तो कहा था कि 'तुम हमारे लोगों का रोजगार छीन रहे हो', लेकिन गुजराती लोग तो कहते हैं कि 'तुम अपराधी हो'.

मैं कैसे यकीन दिलाऊं कि मैंने कोई अपराध नहीं किया. मैं तो सिर्फ मेहनत करते अपना और अपने परिवार का पेट पालता हूं. हर राज्य में, धर्म में, जाति में अच्छे और बुरे लोग होते हैं. कुछ बुरे लोगों की वजह से सबको बुरा घोषित कर देना कहां का न्याय है? लेकिन गरीब की सुनता कौन है? लाख मिन्नतें करने के बावजूद यहां से भी भगा दिए गए.

क्षेत्रवाद और नफरत फैलाने वाले लोगों के नाम एक उत्तर भारतीय प्रवासी मजदूर का खुला खत
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उत्तर भारतीय से पहले 'भारतीय' हूं

काश, आपमें इतनी समझ होती कि क्षेत्रवाद की मानसिकता से थोड़ा ऊपर उठकर इंसानियत की नजर से आप मुझे देख पाते. काश, एक गरीब मजदूर की मजबूरी का दर्द समझने की आपमें काबिलियत होती. काश, आप मुझे एक 'अपराधी' की नजर से नहीं, बल्कि अपनी ही तरह 'कमाकर परिवार का गुजरा करने वाले' एक आम इंसान की नजर से देख पाते. कभी तो आप हमारे संविधान का सम्मान करेंगे, जो हर नागरिक को कहीं भी रोजगार करने का अधिकार देता है, सम्मान से जीने का अधिकार देता है.

जब आप मुझे मारते-पीटते हैं, डराते-धमकाते हैं, बार-बार बेइज्जत करके अपने राज्य से भगा देते हैं, तब आपके जेहन में मेरे लिए जो तस्वीर उभरती है, उसमें आपको सिर्फ एक 'उत्तर भारतीय' दिखता है.

जिस दिन आपको मेरी सूरत में एक 'भारतीय' नजर आएगा, यकीन मानिए, उस दिन आपके मन से मेरे लिए सारी नफरत खत्म हो जाएगी.

मैं जनता हूं, एक न एक दिन वो सुबह जरूर आएगी और उस सुबह के इंतजार में मैं यूं ही घुट-घुटकर ये जिल्लत भरी जिंदगी जीता रहूंगा. कभी महाराष्ट्र, कभी गुजरात तो कभी किसी और राज्य से ऐसे ही भगाया जाता रहूंगा...क्योंकि मैं ठहरा एक दिहाड़ी मजदूर, जिसे रोज की रोटी का जुगाड़ करने के लिए रोज पसीना बहाना है, और कभी-कभी खुद भूखे रहकर भी अपने बच्चों का पेट भी भरना है.

ऊपर वाला आप सबका भला करे.

आपका अपना,

एक प्रवासी मजदूर

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