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आर्यन खान केस भारतीय मीडिया, पुलिस और शासन के बारे में कर रहा कुछ खुलासे

Aryan Khan Drugs Case मीडिया, सांप्रदायिक पूर्वाग्रह और आज के भारत की जो स्थिति है, उसके लिए महत्वपूर्ण सीख है.

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पिछले साल गिद्धों का एक समूह, 24 साल के एक लड़के की गिरफ्तारी पर ऐसे टूट पड़ा था, जैसे कोई सामूहिक भोज हो. वो लड़का जो पब्लिक लाइफ में नहीं था. लेकिन उस पर कथित रूप से ड्रग्स रखने और निषिद्ध चीजों के व्यापार में शामिल होने के आरोप लगे.

आर्यन खान (Aryan Khan) के पीछे हाथ धोकर, गलत तरीके से और पत्रकारिता के सारे वसूलों को तोड़ कर पड़ा गया, उसे बताने का इससे कोई दूसरा बेहतर तरीका नहीं हो सकता. आर्यन की पहचान बस इतनी थी कि वो सुपरस्टार शाहरुख खान के बेटे हैं.

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जैसे ही आर्यन को जहाज से नीचे उतारा गया और तीन हफ्तों के लिए हिरासत में भेजा गया, बॉम्बे सिनेमा, ग्लैमर, स्कैंडल, ड्रग्स और क्राइम...ये सारी चीजें जैसे आर्यन के केस में एक साथ मिल गईं.

आर्यन के साथ ये सब तब जब हुआ जब वो बेगुनाह था, तब हमने अंदाजा लगाया था और अब साबित हो गया है.

एनसीबी और राजनीतिक संस्थाएं इस पूरे डार्क एपिसोड की शुरुआत करने वाले या इसे चलाने वाले थे, लेकिन ये हमारी न्यूज मीडिया की सक्रिय मिली-भगत के बिना संभव नहीं था.

हाल के भारतीय मीडिया के अपमानपूर्ण इतिहास का ये शर्मनाक अध्याय है. इसे भूला नहीं जा सकता. इसमें मीडिया, सांप्रदायिक पूर्वाग्रह और आज के भारत की जो स्थिति है, उसके लिए महत्वपूर्ण सीख है.

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मीडिया की ये सनक कैसे सियासत को फायदा पहुंचाती है

पहला

आर्यन खान एपिसोड ने एक्टर सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के बाद हुई चीजों की याद दिला दी.

सोशल मीडिया पर प्रलाप के सहारे मीडिया का उन्माद चला और फिर इस उन्माद से सोशल मीडिया पर और गंदगी फैली. और फिर कुछ गुमनाम और नए बनाए ग्रुप इससे जुड़ते चले गए. इसे मिशिगन यूनिवर्सिटी के जोयोजीत पाल और उनकी टीम ने बहुत ही सावधानी से डॉक्यूमेंट किया है.

उन्माद की इस लाठी को सत्ताधारी दल के कुछ हैंडल्स ने उठा लिया और इसने बेकार की बात को असली बना दिया. अंतत: ये मुख्यधारा की इवनिंग न्यूज साइकल का हिस्सा बन गई.

Aryan Khan Drugs Case मीडिया, सांप्रदायिक पूर्वाग्रह और आज के भारत की जो स्थिति है, उसके लिए महत्वपूर्ण सीख है.

अपने फ्लैट में सुशांत सिंह राजपूत

(स्क्रीनशॉट: YouTube/Asian Paints)

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अब समझिए कि इसने क्या किया? कुछ मीम्स, साउंडबाइट्स और साजिश वाली थ्योरीज के जरिए, जो अमेरिका के Pizzagate की याद दिलाने वाली जैसी थीं. कोशिश हुई कि सिनेमा जगत के कुछ नामी चेहरों को सुशांत सिंह राजपूत की मौत से जोड़ा जाए. वहीं शिव सेना के कुछ खास नामों को कथित रूप से कुछ पार्टीज और इवेंट्स से जोड़ा गया. अंत में इसके जरिए उन हाई प्रोफाइल नामों की छवि खराब करने की कोशिश की गई जो बीजेपी की सेवा में नहीं देखे गए.

इनमें से ज्यादातर चीजों का इस्तेमाल बदनसीब प्रवासी मजदूरों के दुखद पलायन, सरकारी बदइंतजामी, उपेक्षा और कोविड—19 के गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट का रूप लेने जैसी बातों से देश के लोगों का ध्यान हटाने के लिए किया गया.

जैसा कि Institute of Perception Studies ने हाल में 11 चैनलों और 26000 सेकेंड्स पर अध्ययन करके ये बताया है कि सिर्फ 0.16 प्रतिशत ने एलपीजी के दाम बढ़ने को लेकर बात की. तब ये सोचने वाली बात है कि एयरटाइम को किसने भरा?

क्रूर प्राइम टाइम बहसों में तथाकथित वाट्सएप्प चैट्स का इस्तेमाल सिनेमा स्टार्स को दोषी ठहराने और उनकी इमेज को खराब करने के लिए बहाने के तौर पर किया गया. एक मासूम युवा लड़के को शैतान बताया गया, जबकि वो दोषी भी नहीं था. टीआरपी की लालच में उसे नशेड़ी और ड्रग डीलर तक बताया गया.

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बॉलीवुड को झुकाने की कोशिश

दूसरा पहलू जिस पर तथाकथित आर्यन खान केस ने रोशनी डाली वो थी नौकरशाही (जिसके लिए बड़े टीवी न्यूज एक पारदर्शी लेंस उपलब्ध कराते हैं), ने सुपरस्टार खान्स के खिलाफ एक जंग छेड़ी हुई है.

उन्हें इंडस्ट्री के सबसे बड़े खान पर अटैक करने का बहाना मिल गया. नरेंद्र मोदी के साथ उनकी चर्चित सेल्फी के बावजूद, उन्हें सत्तारूढ़ पार्टी की तारीफ करने वाला नहीं माना जाता.

इसमें कोई शक नहीं है कि शाहरुख खान अभी भी सबसे बड़े स्टार हैं और ऐसी बातों, ऐसे भारत के प्रतीक हैं, जिसे नीचे खींंचना जरूरी है. उनके बेटे पर आरोप तय नहीं हुए, लेकिन उन्हें कस्टडी में रखा गया, टीवी और दूसरे मीडिया पर आर्यन खान को अपमानित किया गया. इस केस ने उनके पिता शाहरुख खान पर हमला करने का एक सबसे बढ़िया मौका दे दिया. उनके साथ ही इस अटैक ने उन सभी को समेट लिया जो अक्षय कुमार या कंगना रनौत नहीं थे. वो जिन्हें शासन व्यवस्था को नियमित रूप से दंडवत प्रणाम करने के लिए जाना जाता है.

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कानून, आदेश और पूर्वाग्रह

लेकिन इस शर्मनाक कहानी का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा वो था, जो रोशनी इसने कानून—व्यवस्था की मशीनरी पर डाली. इसका पूर्वाग्रह के अनुरूप होना और फिर मीडिया और सूत्रों ने इसे शर्मनाक तरीके से आगे बढ़ाया. इसने उन लोगों के मन में अपराध बोध की एक पूर्वधारणा डाल दी जिनके नाम कुछ खास तरह के थे.

हर साल ऐसे कैदी होते हैं जिन्हें जेल में रखने के दशकों बाद छोड़ा जाता है, ऐसे लोग जिन्हें झूठे तरीके से फंसाया गया और कैद में रखा गया.
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इसने कई जिंदगियां बर्बाद कीं और कई घर तोड़े हैं. पिछले साल के एक बिल्कुल अलग तरह के मामले को लें, तो 127 मुसलमानों जिन पर आतंक के आरोप लगे थे, उन्हें सूरत की एक कोर्ट ने 19 साल बाद रिहा किया. इन्हें गुजरात में गिरफ्तार किया गया था, जब वो मुसलमानों की शिक्षा पर एक सेमिनार को अटेंड कर रहे थे. इन पर आरोप लगे कि प्रतिबंधित संगठन SIMI के साथ इनके लिंक हैं.

ठीक वैसे ही जैसे एनसीबी के सूत्र कह रहे थे कि आर्यन खान को चुना गया है, और इसने पूर्वाग्रह से ग्रस्त दिमाग को कुछ उपलब्ध कराया साथ ही उन्माद से भरी खबरें दिखाने वालों के लिए ये एक चारा बना. न्यूज़ साइकल आर्यन को आतंक और ड्रग्स के साथ एक मुस्लिम सरनेम और अपराध से जोड़कर खुश थी. किसी ने सबूत या प्रक्रिया का इंतजार भी नहीं किया.

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जेल में ज्यादा मुस्लिम

कॉमन कॉज और सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (CSDS) की साल 2018 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, जेलों में मुस्लिमों की संख्या बहुत ज्यादा नजर आती है.

इस स्टडी में ये भी सामने आया कि मुस्लिमों के बीच ये समझ या अनुभव बहुत ज्यादा है कि उन्हें आतंक से जुड़े मामलों में फंसाया जाता है. ठीक उसी तरह जैसे अनुसूचित जनजातियों और आदिवासियों का मानना है कि उन्हें माओवादी बोलकर फंसाया जाता है या दलितों और अनुसूचित जातियों का ये मानना है कि उन्हें झूठे मामलों में फंसाया जाता है. इसमें जेलों में अनुपातहीन तरीके से बहुत ज्यादा मुस्लिमों के होने की तरफ ध्यान दिलाया गया है.

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रिपोर्ट के मुताबिक, पुलिस में मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व, राज्यों में और राष्ट्रीय स्तर पर उनकी संख्या के आकलन के अनुपात में लगातार कम होता गया है. ये देश में उनकी जनसंख्या से लगभग आधे तक कम है.

इसके साथ ही साल 2013 तक एनसीआरबी के क्राइम इन इंडिया के तहत पुलिस में मुस्लिमों के प्रतिनिधित्व पर जो डाटा दिया गया, वो उस वक्त से बंद है. विविधता के इस महत्वपूर्ण पहलू को लेकर सूचना का अभाव आगे पुलिसिंग के इस पहलू में सुधार की संभावनाओं को धुंधला करता है.

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भारतीय कैदियों पर डेटा, जिसे एनसीआरबी ने दिसंबर 2021 में रिलीज किया था इसमें खुलासा हुआ कि साल 2020 में 488,511 कैदियों में से 19 प्रतिशत मुस्लिम थे. मुसलमानों का पॉपुलेशन शेयर 14.2% है. इसमें कोई शक नहीं कि जाति, कबीलों और गरीबी में हाशिए पर रह रहे लोगों की सभी दूसरी कैटेगरीज को इसी अनुपातहीन तरीके पेश किया गया है. लेकिन मीडिया का पूर्वाग्रह खास करके पिछले 5 सालों में ऐसे मामलों को उठा रहा है, जिनमें मुस्लिम अपराधों में शामिल हैं और क्रोधपूर्ण तरीके से की गई कवरेज ने इन्हें दूसरी कैटेगरी में डाल दिया है.

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झूठी खबरों पर खड़ा किया गया आर्यन खान केस

आर्यन खान युवा हैं और पब्लिक लाइफ में नहीं हैं. वो सेलिब्रिटीहुड के चौराहे पर हैं, लेकिन बीजेपी की स्कीम में उन्हें इस तरह नहीं देखा गया. मुस्लिम पिता और मुस्लिम सेकेंड नेम के साथ उन्हें लापरवाह मीडिया सोर्सेज के लिए सबसे उपयुक्त ईंधन के तौर पर देखा गया. वो लापरवाह मीडिया जिसे सस्ती, सोर्स्ड और गर्वमेंट फ्रेंडली चीजों की जरूरत है और वो इन पर हर रोज शाम को एक हंगामा खड़ा करता है.

गिरती हुई अर्थव्यवस्था, गंभीर पब्लिक हेल्थ क्राइसिस और नौकरी के संकट से लोगों का ध्यान हटाने की इस प्रक्रिया में एक दूसरी न्यूज़ को पैदा किया गया और 24 साल के एक लड़के की जिंदगी को टुकड़े टुकड़े कर दिया गया.

आर्यन की किस्मत अच्छी नहीं थी कि वो इसका शिकार बन गए और वो भाग्यशाली भी थे कि अंतत: इससे बचकर निकल गए. लेकिन उनकी स्थिति पूर्वाग्रह की उस दुर्भावना को दिखाती है जिसने भारत को एक महामारी की तरह जकड़ा हुआ है.

(सीमा चिश्ती दिल्ली में स्थित एक लेखिका और पत्रकार हैं. अपने दस साल से ज्यादा के करियर में वह बीबीसी और द इंडियन एक्सप्रेस जैसे संगठनों से जुड़ी रही हैं. उनका ट्विटर हैंडल @seemay है. यह राय लेखक के निजी है. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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