बिहार (Bihar Elections 2020) में चुनावी बुखार चढ़ रहा है. दोनों ही गठबंधनों में सीटों का बंटवारा हो चुका है. एनडीए के सीट शेयरिंग फार्मूले के हिसाब से जेडीयू 122 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली है और भाजपा 121 पर. मांझी की हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (हम) के लिए सात सीटें छोड़ी गई हैं. पासवान की एलजेपी, एनडीए में रहकर भी अलग चुनाव लड़ेगी और उसने जेडीयू के उम्मीदवारों के खिलाफ अपने उम्मीदवार खड़े किए हैं.
महागठबंधन में आरजेडी 144 सीटों पर चुनाव लड़ेगी, कांग्रेस 70 और लेफ्ट-सीपीआई, सीपीआई (माले) और सीपीएम-29 सीटों पर. जाति आधारित तीनों पार्टियां- मांझी की हम, कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (आरएलएसपी) और मुकेश साहनी की विकासशील इनसान पार्टी (वीआईपी) महागठबंधन से अलग हो गई हैं. यूं यह समझ से बाहर की बात लगती है.
महागठबंधन की मुखिया आरजेडी, जो सिर्फ ‘मुसलिम यादव’ पार्टी बनकर रह गई है, इन्हें महागठबंधन में बरकरार रख सकती थी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
मांझी, कुशवाहा और साहनी अपने साथ महादलित, कोइरी/कुशवाहा और निषाद समुदाय के वोट लेकर आते. बिहार में इन जातियों की 24 से 26 प्रतिशत आबादी है. इससे महागठबंधन का सामाजिक आधार बड़ा हो सकता था.
बिहार में छोटी पार्टियों और स्वतंत्र उम्मीदवारों का क्या मायने हैं
दूसरी तरफ एनडीए को मुख्य जातिगत समूहों जैसे कुर्मी, कोइरी/कुशवाहा और सबसे वंचित समुदायों जैसे महादलितों का समर्थन मिल गया है. बिहार की आबादी में इनका हिस्सा लगभग 60 प्रतिशत है और यह महागठबंधन के वोटरों से लगभग दुगुना है. तेजस्वी ने इसकी बजाय लेफ्ट की मदद ली और हम, आरएलएसपी और वीआईपी को बाहर का रास्ता दिखा दिया. सीटों के बंटवारे में तेजस्वी से इन तीनों पार्टियों की लगभग गुत्थम गुत्था ही चल रही थी. 2019 में लोकसभा चुनावों के दौरान करारी हार के बाद आरजेडी इन छोटी पार्टियों को ज्यादा सीटें देने के पक्ष में नहीं थी.
लेकिन इतिहास बताता है कि बिहार के विधानसभा चुनावों में छोटी पार्टियों और स्वतंत्र उम्मीदवारों का वोट शेयर 20-25 प्रतिशत रहता है. बिहार की राजनीति में उनके महत्व से इनकार नहीं किया जा सकता. 1990 में लालू को, और फिर 2000 में राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री पद तक पहुंचाने में उनकी अहम भूमिका थी.
मार्च 2005 में छोटी पार्टियों (जिनमें स्वतंत्र उम्मीदवार भी शामिल थे) ने 37 सीटें जीती थीं जिसका नतीजा त्रिशंकु विधानसभा थी. तब छह महीने के लिए बिहार में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था. अक्टूबर 2005 में दोबारा चुनाव होने पर नीतीश के नेतृत्व मे एनडीए (जेडीयू और भाजपा) ने लालू की आरजेडी को हराया था, और 15 साल का लालू राज खत्म हुआ था. बाकी अन्य को 22 सीटें मिली थीं.
हालांकि पिछले कुछ वर्षों के दौरान उनका असर कम हुआ है. 2010 में अन्य को 8 और 2015 में सिर्फ 12 सीटें मिली थीं.
इसकी एक बड़ी वजह यह है कि हर विधानसभा चुनावों में छोटी पार्टियां गठबंधन बदलती रहती हैं और ‘अवसरवादी’ मानी जाती हैं. आरएलएसपी, हम और वीआईपी पहले एनडीए के साथ थे (2015 में विधानसभा चुनाव में) और फिर महागठबंधन के साथ (2019 के लोकसभा चुनाव में). इनमें से ज्यादातर छोटी पार्टियां जाति आधारित पार्टियां हैं.
हालांकि इनका मुख्य नेतृत्व यह दावा करता है कि वह अपने समुदाय का अविवादित नेता है लेकिन सच्चाई तो यह है कि ये पार्टियां अपने गठबंधनों के सहयोग के बिना कुछ नहीं. न तो मांझी महादलितों के अविवादित नेता हैं, और ही कुशवाहा और साहनी.
याद करें, 2015 के विधानसभा चुनावों में क्या हुआ था
2015 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने अपनी सहयोगी पार्टियों को 35 प्रतिशत सीटें दी थीं जोकि 86 सीटें होती हैं. लेकिन वे सिर्फ 5 सीटों पर ही जीती थीं यानी उनका स्ट्राइक रेट 6 प्रतिशत से भी कम था. उन्होंने जिन सीटों पर चुनाव लड़ा था, उनमें सभी में उनका वोट शेयर भाजपा से कम था.
भाजपा ने जिन सीटों पर चुनाव लड़ा था, उनमें एक तिहाई से ज्यादा सीटें जीती थीं. वीआईपी उस समय बनी ही नहीं थी, हालांकि कई रैलियों में साहनी अमित शाह के साथ नजर आए थे. नीतीश एनडीए छोड़कर लागू और कांग्रेस के साथ चले गए थे, इसलिए भाजपा को साहनी के चेहरे की जरूरत थी.
2019 के लोकसभा चुनाव से पहले जेडीयू एनडीए में लौट आई तो भाजपा ने एलजेपी को छोड़कर बाकी की छोटी पार्टियों से पल्ला झाड़ लिया. उनका ट्रैक रिकॉर्ड अच्छा नहीं था, और एक सच्ची बात यह भी थी कि वह सभी को गठबंधन में जगह दे भी नहीं सकती थी.
फिर महादलितों, ईबीसी और कोइरी जाति के वोटरों के बीच नीतीश की पैठ, मांझी, साहनी और कुशवाहा के मुकाबला ज्यादा अच्छी थी. इसके बाद इन पार्टियों ने महागठबंधन की शरण में जाना मुनासिब समझा. संयुक्त मोर्चा बनाने की इच्छा से तेजस्वी ने इन पार्टियों को बहुत सारी सीटें दे दीं- 40 में से 12. उसने खुद आधे से भी कम सीटों पर चुनाव लड़ा. नतीजा यह हुआ कि छोटी पार्टियां एक भी सीट नहीं जीत पाईं. वे आरजेडी और कांग्रेस के लिए वोट नहीं बटोर पाईं, और आरजेडी के लिए यह चुनाव सबसे बुरा रहा. अपने गठन के बाद पहली बार वह एक भी लोकसभा सीट नहीं जीत पाई थी. आरजेडी और कांग्रेस के रिक़ॉर्ड वोट शेयर में उनका मुसलिम यादव वोटर आधार था. हम और आरएलएसपी को इसका फायदा हुआ और उन्हें ये वोट मिल गए.
क्या तेजस्वी का दांव चलेगा
पिछली शिकस्त से तेजस्वी को सबक मिला है. इन छोटी पार्टियों का असर अपने इलाकों में हो सकता है और कुछ खास जातिगत समूहों में. लेकिन तेजस्वी ने उनकी ताकत पर ज्यादा भरोसा करने की भूल नहीं की. इसकी बजाय उन्होंने लेफ्ट पार्टियों पर ज्यादा विश्वास किया जोकि गरीबों और शोषित वर्ग के बड़ी हिमायती मानी जाती हैं. इस तरह तेजस्वी ने बिहार की राजनीति में ‘जाति और वर्ग’ की रणनीति का प्रयोग किया है. इसे नई सोशल इंजीनियरिंग थ्योरी कहा जा सकता है. यूं 2015 के विधानसभा चुनावों में इन तीनों पार्टियों का वोट शेयर 3.5 प्रतिशत था.
इस तरह तेजस्वी लालू के असली आधार को नई धार देना चाहते हैं, जो कि गरीब, हशिए पर पड़े वंचित समूह हैं.
एक्सिस माई इंडिया का सर्वे कहता है कि 2019 के लोकसभा चुनावों में छोटी पार्टियों को विभिन्न वर्गों- गरीब, निम्न, मध्य वर्ग और अमीरों में 17 से 18 प्रतिशत वोट शेयर मिला था. महागठबंधन की नजर इसी पर है, खास तौर से 10,000 से कम आय वाले लोगों पर.
वह अपनी रणनीति में कामयाब होते हैं या नहीं, और नीतीश की घटती लोकप्रियता का फायदा उठा पाते हैं, यह दूसरा मामला है. वैसे क्राउडविसटम360 के अनुसार, एनडीए फिलहाल थोड़ा आगे चल रहा है.
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