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केंद्र-राज्यों में तकरार: राजनीति अब संघर्ष नहीं जंग बन गई है?

क्या ऐसे माहौल में हम नेताओं से स्टेट्समैन बनने की उम्मीद रख सकते हैं?

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कभी सुना है कि किसी राज्य सरकार ने केंद्र सरकार के बनाए कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है? साठ साल में ऐसा पहली बार हुआ है और वो भी एक हफ्ते में दो बार. पहले केरल सरकार ने और अब छत्तीसगढ़ सरकार ने दो अलग-अलग मुद्दों पर केंद्र सरकार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है. दोनों सरकारों ने आर्टिकल 131 का सहारा लिया है. आर्टिकल 131 के तहत सुप्रीम कोर्ट को अधिकार है कि वो केंद्र सरकार और राज्य सरकार या राज्य सरकारों के बीच विवाद को सुलझाए.

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केरल, छत्तीसगढ़ की सरकारें केंद्र के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में

केरल सरकार ने जहां नागरिकता संशोधन कानून को चुनौती दी है, वहीं छत्तीसगढ़ सरकार ने एनआईए कानून को यह कहकर चुनौती दी है कि ये कानून राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में खलल डालती है. कानून व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की होती है. छत्तीसगढ़ सरकार का मानना है कि एनआईए कानून राज्य सरकार के इस अधिकार में दखल है.

गौरतलब है कि एनआईए कानून 2008 में बना था और तब केंद्र में कांग्रेस की नेतृत्व वाली यूपीए की सरकार थी और अभी छत्तीसगढ़ में भी सरकार कांग्रेस की ही है.

इससे पहले कई राज्यों ने संकेत दिए हैं कि वो नागरिकता संशोधन कानून को अपने राज्यों में लागू नहीं करेंगे. साथ ही राज्यों का विरोध एनपीआर और एनआरसी को लेकर भी है. एनआरसी फिलहाल ठंडे बस्ते में है, लेकिन एनपीआर कुछ ही महीनों में शुरू होने वाला है.

अभी तक की रिपोर्ट के मुताबिक पश्चिम बंगाल, केरल, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और पंजाब में इसे कैसे लागू किया जाएगा इसपर संशय है. इस कैटेगरी में महाराष्ट्र और बिहार भी जुड़ सकता है.
इसका मतलब है कि देश के करीब 40 परसेंट इलाकों में इसे लागू करने में मुश्किल हो सकती है. इस कानून के खिलाफ इसी तरह से विरोध बढ़ते रहे तो हो सकता है कि तेलंगाना और आंध्र प्रदेश की राज्य सरकारें भी शायद कानून के खिलाफ अपना विरोध दर्ज कर दें. ऐसा होता है तो ये अप्रत्याशित घटना होगी.

केंद्र सरकार और कुछ राज्य सरकारों में इतनी तनातनी है कि गणतंत्र दिवस की झांकियों पर भी विवाद हो रहा है. खबर आई कि इस बार 26 जनवरी के परेड में पश्चिम बंगाल, केरल, बिहार और महाराष्ट्र की झांकियां नहीं दिखेंगी. हो सकता है कि ये रुटिन मामला हो, लेकिन समय रुटीन नहीं है. इसीलिए जो मामला रुटीन दिखता है उसपर भी विवाद हो रहा है.

केंद्र-राज्यों की लड़ाई में GST काउंसिल में विवाद बढ़ सकता है

ऐसी ही तनातनी चलती रही तो जीएसटी काउंसिल में फैसले लेना काफी मुश्किल हो सकता है.

काउंसिल में एक तिहाई वोटिंग के अधिकार केंद्र के पास है जबकि बाकी दो तिहाई राज्यों के पास. दो मुद्दों पर फिलहाल केंद्र और राज्यों के बीच तनातनी है- कंपनसेशन सेस का हिस्सा राज्य सरकारों को देने में देरी और राज्यों को केंद्र से मिलने वाली सहायता पांच साल तक ही रहे या आगे भी बढ़े.

जिस तरह का माहौल बन रहा है उसमें काउंसिल में भी केंद्र और राज्य सरकारों के बीच तकरार और भी बढ़ सकती है और रुटीन फैसले भी अटक सकते हैं. इससे किसी का भी भला नहीं होगा. पहली बार हुआ कि जीएसटी काउंसिंल की हाल में हुई बैठक में फैसला वोटिंग से हुआ, आम सहमति से नहीं जैसा कि अबतक होता आया है. क्या यह इस बात का संकेत है कि आगे भी फैसले लेने में काफी खींचातानी हो सकती है?

आखिर केंद्र और राज्यों की सरकारों में इतनी तकरार क्यों बढ़ी हैं? क्या आजकल की राजनीति, जिसमें पार्टियों के बीच कॉम्पटिशन कम, लड़ाई ज्यादा दिखती है, इसके लिए दोषी है?
शायद उसमें लोगों के बदलते वोटिंग पैटर्न का भी योगदान है. देश में पहली बार ऐसा हो रहा है कि विधानसभा और लोकसभा के लिए लोग अलग-अलग पार्टियों को वोट कर रहे हैं. और वो भी तब जबकि इन चुनावों में काफी अंतराल ना रहा हो.

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लोकसभा-विधानसभा के अलग नतीजे का मतलब क्या है

लोकसभा चुनाव में भारी जीत के बावजूद हाल के दिनों में विधानसभा चुनावों में बीजेपी का प्रदर्शन काफी अच्छा नहीं रहा है. मेरे कैलक्यूलेशन के हिसाब से 2017 के बाद 7 बड़े राज्यों (गुजरात, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, छत्तीसगढ़, हरियाणा और झारखंड) के चुनावों में बीजेपी ने पिछले चुनाव के मुकाबले 23 परसेंट सीटें गंवाईं. ये तब हुआ जबकि इन राज्यों में लोकसभा में बीजेपी का रिकॉर्ड प्रदर्शन 2019 में भी जारी रहा.

विधानसभा में बेहतर प्रदर्शन की वजह से विपक्ष को लगता है कि उसके एजेंडा को लोगों ने सही माना है. विपक्ष के नेताओं का यह भी मानना है कि विधानसभा के नतीजे बताते हैं कि लोगों ने कोर्श करेक्शन किया है ताकि सत्ता का पूरी तरह से केंद्रीकरण ना हो.

दूसरी तरफ, लोकसभा में रिकॉर्ड प्रदर्शन की वजह से बीजेपी बाकी सारे विरोधियों को एंटी नेशनल मानने से परहेज नहीं करती है. पार्टी के नेताओं को शायद लगता है कि लोगों का मैंडेट सिर्फ उन्हीं के पास है.

इसकी वजह से दोनों ही तरफ से ऐसी भाषाओं का इस्तेमाल हो रहा जिसमें बड़े पॉलिसी पर आम सहमति जैसी बातें अब सुनने को भी नहीं मिलती है. ऐसी खंडित राजनीति में बातचीत की गुंजाइश ही नहीं बची है. ऐसे माहौल में ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ तो दूर-दूर तक नजर नहीं आता है.

क्या ऐसे माहौल में हम नेताओं से स्टेट्समैन बनने की उम्मीद रख सकते हैं? खंडित राजनीति से देश का माहौल और भी बिगडेगा. क्या हमारे नेता लोगों के अलग-अलग मैंडेट का मर्म समझकर बातचीत का सिलसिला शुरू करेंगे?

मेरे अंदर का आशावादी यही उम्मीद रखता है.

(मयंक मिश्रा वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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